संस्कृतिसिनेमा आपको भी देखना चाहिए पितृसत्ता के चेहरे पर लगता ये ‘थप्पड़’

आपको भी देखना चाहिए पितृसत्ता के चेहरे पर लगता ये ‘थप्पड़’

संवेदनशील मुद्दों पर बनी बॉलीवुड फिल्मों से हमेशा एक शिकायत रहती है कि ये फिल्में कहीं न कहीं जाकर असंवेदनशील हो जाती हैं। लेकिन थप्पड़ इस आलोचना से ऊपर है।

एक औरत जो खुद को दुनिया की बेस्ट हाउसवाइफ साबित करना चाहती है, एक नामी वकील जिसकी हर सफलता का क्रेडिट उसका पति ले जाता है, एक नौकरानी जो हर रोज़ अपने पति से पिटकर काम पर जाती है और एक मां जिसकी बेटी उसके लिए लड़के खोज रही है। कुछ ऐसे ही सामान्य से किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती फिल्म थप्पड़ बिना कोई शोर मचाए पितृसत्ता को एक करारा तमाचा मारती हुई नज़र आती है।

फिल्म की कहानी बिल्कुल ऐसे सीन से शुरू होती है जिसे हम रोज़ अपने आस पास घटते हुए देखते हैं। जैसे ही घड़ी में 6 बजते हैं अमृता (तापसी पन्नू) किसी रोबोट की तरह उसे बंद करती है मानो वह सोई ही इस सोच के साथ थी कि 6 बजे अलार्म बंद करना है ताकि ऑफिस से थककर घर आए पति की बाकी बची नींद खराब न हो। झटके से अलार्म बंदकर दबे पांव उठती अमृता हमारी मांओं की याद दिलाती है। जो हर दिन एक तय पर एक ही काम करती देखी जा सकती है। हमारा ध्यान अपने घर की औरतों की तरफ तब जाता है जब वे उस तय वक्त पर अपना रोज़ाना काम करती नज़र नहीं आती। अमृता का अपना वक्त शायद सिर्फ उसकी सुबह की चाय होती है जिसकी एक-एक घूंट वह तसल्ली से पीती है। चाय की प्याली की आखिरी घूंट खत्म होते के साथ ही अमृता अपने लिए जीना छोड़ देती है। पति की सुबह की चाय से लेकर टिफिन तैयार करना, सास का शुगर लेवल जांचना, परांठे बनाना सीखना, अमृता का हर दिन एक सा नज़र आता है। इस पूरे दिन के बीच अमृता आधे घंटे के लिए एक डांस टीचर की भूमिका में नज़र आती है। टीचर इसलिए क्योंकि दुनिया की बेस्ट हाउसवाइफ बनते-बनते एक डांसर कब साथ छोड़ जाती है इसका अमृता को पता ही नहीं चलता।

अमृता का दिन बदलता है उस पार्टी की रात से जहां उसका पति उसे थप्पड़ मारता है। सब कहते हैं भूल जा अमृता, एक थप्पड़ से कुछ नहीं होता, औरतों को बर्दाश्त करना पड़ता है। अमृता इस थप्पड़ को नहीं भूलती, वह अपनी मां और सास की सीख को अनसुनी कर देती है- औरतों को बर्दाश्त करना पड़ता है। अमृता अपने सवालों के साथ टिकी रहती है- एक थप्पड़ भी क्यों मारा, नहीं मार सकता।अमृता कहती है ये थप्पड़ सिर्फ उसके गाल पर नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व और उसके आत्मसम्मान पर पड़ा है। फिल्म का सबसे खूबसूरत भाग इस थप्पड़ के साथ ही शुरू होता है जहां दुनिया की बेस्ट हाउसवाइफ बनने की ख्वाहिश रखने वाली अमृता अपने हक के लिए खड़ी हो जाती है और कानूनी लड़ाई लड़ती है। हमारे-आपके घरों में न जाने कितनी बार औरतों को थप्पड़ मारे गए होंगे।

हमारे घर की औरतें इस थप्पड़ को भूलकर अपने कामों में लग जाती हैं लेकिन अमृता अपनी लड़ाई लड़ने का फैसला करती है। अमृता इस बात से अवाक रहती है कि आखिर उसके परिवार वाले उसे पड़े थप्पड़ को तवज्जो क्यों नहीं दे रहे। उसके पति से सवाल करने की जगह आखिर उसे क्यों बर्दाश्त करने की सलाह दी जाती है। अमृता से ये समाज बार-बार उम्मीद लगाता है कि वो इस एक थप्पड़ को भूलकर आगे बढ़ जाएगी क्योंकि पति कभी-कभी गुस्से में हाथ उठा देते हैं।

और पढ़ें : ‘थप्पड़’ – क्यों मारा, नहीं मार सकता।’- वक्त की माँग है ये ज़रूरी सवाल

फिल्म की छोटी-छोटी बातें मिनट दर मिनट एहसास दिलाती हैं कि मर्द जिन्हें लगता है कि वो अपने घर की औरतों के साथ बराबरी का बर्ताव कर रहे हैं, वे कितने गलत हैं। फिल्म पूछती है कि आखिर सुबह की चाय पति को बिस्तर पर क्यों मिले, क्यों पति के पीछे-पीछे पत्नी उसका बैग और उसका पर्स लेकर भागती फिरे। ये किसने तय किया कि पति किस दिन कौन सी शर्ट पहनेगा? ये कब तय हुआ कि वह रातभर प्रेजेंटेशन बनाकर अपनी फाइलें बिखेरकर सो जाएगा और पत्नी सुबह उन्हें समेटेगी और गलती से एक पन्ना भी इधर उधर हुआ तो इसका जवाब थप्पड़ हो सकता है। 

एक हाउसवाइफ की जिंदगी को परत दर परत उतारता अमृता का किरदार फिल्म का एक सशक्त भाग है और इस किरदार के साथ तापसी पन्नू ने पूरा न्याय किया है। तापसी का किरदार देखकर आप कह सकते हैं कि तापसी अपनी आंखों से एक्टिंग करती हैं। जब तापसी सवाल पूछती हैं तो उनकी सारी भावनाएं उनकी आंखों में साफ-साफ नज़र आती हैं। चाहे वह एक थप्पड़ का गुस्सा हो या वकील से सामने अपनी अर्जी में ईमानदारी बरतने की ज़िद तापसी की एक्टिंग बेहद उभरकर आई है। सिर्फ तापसी ही नहीं फिल्म कई दूसरे महिला किरदार भी बेहद खूबसूरत हैं। मसलन फिल्म का एक सीन है जहां अमृता की नौकरानी सुनीता अपने पति से सवाल पूछती है कि तू मुझे क्यों मारता है? इसके जवाब में उसका पति एक ज़ोर का थप्पड़ देता है। थप्पड़ खाने के बाद सुनीता चंद सेकंड्स में संभलकर दोबारा पूछती है लेकिन थप्पड़ पड़ने के बाद सुनीता के चेहरे के भाव नहीं बदलते हैं जैसे थप्पड़ उसके रूटीन का हिस्सा हो। थप्पड़ के बाद सुनीता कहती है- मारते तो सब हैं। यहां सुनीता उस भ्रम क तोड़ती है जहां लोग कहते हैं गरीब पीकर अपनी औरतों को मारते हैं। मारते तो एक बड़ी कंपनी के कर्मचारी भी अपनी पत्नियों को हैं और फर्क बस इतना है कि उन्हें लगता है वो एक हीरे के ब्रेसलेट के दम पर अपनी पत्नी का आत्मसम्मान खरीद लेंगे।

फिल्म का हर महिला किरदार आपको खुद के लिए जीने की सीख देता है। फिल्म कहती है कि खुद के लिए खड़े होने के लिए आपको थप्पड़ का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।

एक नामी वकील जो महिलाओं के हक के लिए लड़ती है। जिसके केस उदाहरण के रूप में पेश किए जाते हैं, वह मशहूर वकील नेत्रा अपने पति के सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही होती है। नेत्रा का पति अपनी पत्नी की हर कामयाबी में अपना हिस्सा मांगता नज़र आता है, उसके साथ जबरदस्ती करता है। उसके मुताबिक नेत्रा इसलिए कामयाब है क्योंकि उसके साथ उसके पति और ससुर का नाम जुड़ा है। दूसरों के लिए लड़ती नेत्रा अपने पति के सामने नहीं कह पाती- नो मीन्स नो। शिवानी (दीया मिर्जा) जिसके पति की मौत हो चुकी है पर उसकी 13 साल की बेटी चाहती है कि उसकी मां दोबारा शादी करे, लेकिन शिवानी अपनी बेटी के साथ खुश है। शिवानी का किरदार बताता है कि एक औरत को खुश रहने के लिए मर्द की जरूरत नहीं होती। एक अकेली और कामयाब औरत समाज को कितनी खटकती है इसका पता हमें तब चलता है जब शिवानी की नई गाड़ी देखकर अमृता का पति पूछता है- इसने फिर नई गाड़ी खरीद ली, ये करती क्या है? जिसके जवाब में अमृता सिर्फ एक शब्द कहती है- मेहनत!

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थप्पड़ पड़ने पर अपनी बेटी अमृता को बर्दाश्त करने की सलाह देने वाली मां दुपट्टे से अपना दुख छुपाती हुई याद करती है कि बेटी को डांसर बनाने के चक्कर में वो न जाने अपना हारमोनियम कहां भूल आई। फिल्म के अंत में अमृता मां बनने वाली होती है। तब बतौर दर्शक हम उम्मीद लगा बैठते हैं कि अब वह अपने पति के साथ चली जाएगी। लेकिन अमृता अपने फैसले पर डटी रहती है क्योंकि अमृता ने लड़ाई अपने लिए शुरू की थी तो वह बच्चे की खातिर समझौता कैसे कर सकती है, जैसा आमतौर पर हमारे समाज में होता रहा है। बच्चे पैदा करना औरत की हर समस्या के रामबाण इलाज के रूप में देखा जाता है। फिल्म का आखिरी सीन आपको और भी सुकून देता है जिसे देखने के लिए आपको सिनेमा हॉल का रुख करना होगा।  

संवेदनशील मुद्दों पर बनी बॉलीवुड फिल्मों से हमेशा एक शिकायत रहती है कि ये फिल्में कहीं न कहीं जाकर असंवेदनशील हो जाती हैं। मुद्दों की सतही समझ के साथ बनाई जाती हैं। लेकिन थप्पड़ इस आलोचना से ऊपर है। एक नारीवादी होने के नाते जब फिल्म को आप इन पहलुओं पर तोलते हैं तो थप्पड़ आपको निराश नहीं करती। फिल्म का हर महिला किरदार आपको खुद के लिए जीने की सीख देता है। फिल्म कहती है कि खुद के लिए खड़े होने के लिए आपको थप्पड़ का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। एक महिला के रूप में थप्पड़ हमें एहसास दिलाती है कि ऐसी गैर-बराबरी से तो हम रोज़ गुज़रते हैं जो हमें नज़र नहीं आती। बतौर पुरुष थप्पड़ आपको सीन दर सीन शर्मिंदा करती है बशर्ते आपको एहसास हो कि आप कितने गलत हैं। वरना आप सिनेमा हॉल में बैठे उस मर्द की तरह होंगे जो फिल्म के खत्म होने पर ये कहते हुए उठ खड़ा होता है कि एक थप्पड़ के लिए फिल्म कौन बनाता है यार!

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तस्वीर साभार : bookmyshow

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