रोडवेज बस थी। बस में चढ़ने और सीट पर बैठने के क्रम में जिस चीज नजर गई और नजरिए में बदल गई, वो था – ड्राइवर की सीट के ठीक पीछे एक रस्सी पर टंगा पुरुष अंडवियर। परेशानी वाली बात नहीं है। बस का ड्राइवर सुबह काम से पहले नहाया धोया होगा और अंडरवियर सूखने के लिए, जो एकमात्र जगह उसके पास थी, वहां डाल दिया। अब अगर एक पल को सोचें कि ऐसी ही किसी सार्वजनिक जगह पर अगर स्त्री अंडरवियर लटका दिखे, तब भी क्या मामला इतना ही सामान्य होता। नहीं ना! चलिए फिर महिला दिवस की शुभकामनाएं।
सोमवार की सुबह काम पर जाने के लिए रोडवेज की बस पकड़ी थी। रास्ते में जब बस एक कस्बे के पड़ाव अड्डे पर सवारियों के उतरने चढ़ने के लिए रुकी तो मेरी बगल की सीट पर बैठी महिला मुझे अपने सामान का ध्यान रखने का कहकर नीचे उतर गई। एक मिनट बाद जब वो वापस सीट पर आई, तो मैंने पूछा, ‘यहां पर टायलेट है क्या?’ मैंने अंदाजा लगाया था कि वो टायलेट के लिए बस से नीचे उतरी होंगी। अपनी सीट पर बैठते हुए वो मुझसे बोलीं, ‘नहीं बहन… तड़के 4 बजे के बस में बैठे हुए हैं और दोपहर तक घर पहुंचेंगे, क्या करते, कहीं तो जाना पड़ता।’ बोल वो रहीं थीं और लग रहा था जज्बात मेरे बयां हो रहे थे। मैं बस से यात्रा के दौरान पानी पीने से घबराती हूं। अरे चलता है यार, थोड़ा डिहाइड्रेट हो गए तो कोई बात नहीं, लेकिन यात्रा के बीच में टायलेट जाने की जरूरत आन पड़ी तो भगवान ही मालिक है।
एक बार सफर में तबियत ठीक नहीं लगने पर मैंने पानी पी लिया और फिर वही हुआ जो होना था। खुदा-खुदा करते जब एक बस अड्डे पर सार्वजनिक शौचालय दिखा तो लगा जैसे, यहीं चार कदम पर स्वर्ग है। बस से कूद कर गिरते-पड़ते भागते हुए जब शौचालय तक पहुंची तो पाया कि मेरे उस क्षणिक स्वर्ग के दरवाजों पर ताले पड़े थे। एक अकेला जो खुला था, उसकी हालत देखकर मुझे समझ नहीं आया कि मुझे तेज पेशाब आया है या उल्टी आई है।
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अपने काम के दौरान गांवो के दौरे में मैंने लोगों के मकानों के साथ सरकारी शौचालय बने देखे हैं, जिनपर जाने क्यूं लिखा है, ’इज्जत घर‘। खैर मान लिया कि शौचालय माने इज्जत घर तो फिर इज्जत सिर्फ अपने मकान के दायरे में क्यूँ? घर से बाहर, सार्वजनिक स्थानों पर इज्जत के सवाल का क्या?
हम हर साल महिला दिवस मनाते हैं, महिलाओं की तरक्की पर गर्व करते हैं और देश के विकास में योगदान देने के लिए उत्साहित करते हैं, लेकिन किस कीमत पर?
सामाजिक संस्था एक्शनएड इंडिया द्वारा साल 2016 में दिल्ली के सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति पर किए गए सर्वे के अनुसार, हर तीन में से एक या एक से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों में महिलाओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। महिलाओं के लिए अलग शौचालय की सुविधा की बात हो तो जहां यह सुविधा है भी वहां साफ सफाई, पानी, बिजली, दरवाजे पर कुंडी ठीक नहीं है। एक ऐसे समाज में रहते हुए, जहां महिलाओं के लिए तय किया हुआ है कि उनकी जगह कहां है और उस जगह पर उन्हें करना क्या है, यह सोचने वाली बात है कि हम अपने शहरों में, गांवों में सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की जरूरतों को दरकिनार कर देते हैं।
जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक में महिलाओं के लिए उचित सुविधाएं मुहैया नहीं हैं, जिनकी वो हकदार हैं, तो देश के कस्बों और गांवों के हालातों का हम अंदाजा लगा ही सकते हैं। अंदाजा लगाना भी अगर मुश्किल लगे, तो मुश्किलों का रोना रोते मेरे जैसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। हम हर साल महिला दिवस मनाते हैं, महिलाओं की तरक्की पर गर्व करते हैं, उनसे प्रेरित होते हैं, शहरों और गांवों हर जगह से महिलाओं को आगे आने, घर से निकलने, अच्छी शिक्षा प्राप्त करने, नौकरी करने, परिवार, समाज और, देश के विकास में योगदान देने के लिए उत्साहित करते हैं, लेकिन किस कीमत पर? महिलाओं के स्वास्थ्य, उनकी सुरक्षा का क्या? क्या इन सब मुद्दों पर हमें विचार और काम नहीं करना चाहिए, अगर हम सच में चाहते हैं कि महिलाएं पढ़ें, बढ़ें, सशक्त बनें, आत्मनिर्भर बनें और सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंचे।
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यह लेख वर्षा रानी तिर्की ने लिखा है।
तस्वीर साभार : yahoo