आमतौर पर जब कोई पुरुष किसी तरह के दर्द की बात करता है तो उसे गंभीरता से लिया जाता है जबकि महिलाओं के दर्द को आज भी अक्सर ‘हार्मोनल बदलाव’, ‘उन दिनों की बात’, ‘ओवर रिएक्टिंग’ या ‘मूड स्विंग’ यहां तक कि ‘नाटक’ कह कर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। दर्द तो जेंडर नहीं देखता, लेकिन दर्द को देखने वाले अक्सर जेंडर के चश्मे से देखते हैं। भारत जैसे देशों में तो महिलाओं को बचपन से ही सहनशील बनने की ट्रेनिंग दी जाती है। पीरियड्स, प्रेगनेंसी और डिलिवरी के दौरान होने वाले दर्द का तो मातृत्व के नाम पर ख़ासतौर पर महिमामंडन किया जाता है। इस वजह से किसी तरह की सेहत से जुड़ी समस्या होने पर भी अक्सर उसे अनदेखा किया जाता है और फिर ठीक से जांच, इलाज और देखभाल नहीं मिल पाता है।
क्या है जेंडर पेन गैप
स्वास्थ्य देखभाल में जेंडर के नाम पर किया जाने वाला यह भेदभाव जेंडर पेन गैप कहलाता है। जेंडर पेन गैप का कॉन्सेप्ट 2001 में मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में सामने आया था, जिसका नाम था- “द गर्ल हू क्रायड पेन: ए बायस अगेंस्ट वीमेन इन द ट्रीटमेंट ऑफ पेन।” इसमें पाया गया कि महिलाओं के दर्द को उपचार मिलने की संभावना कम होती है बल्कि उसे नज़रअंदाज ज़्यादा किया जाता है। यह केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तरों में भी गहराई से जड़ें जमा हुए है।
महिलाओं की सेहत से जुड़ी स्थितियों जैसे पीरियड्स, प्रेगनेंसी, मेनोपॉज को प्राकृतिक और किस्मत का नाम देकर सहने को मजबूर किया जाता है जबकि ऐसे में इन्हें ख़ास देखभाल की ज़रूरत होती है। बहुत सारी महिलाओं को इस दौरान अलग-अलग तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे- अत्यधिक दर्द, नींद आने में कठिनाई, तनाव, मूड स्विंग। इनमें से कुछ में तो हालत इतनी खराब हो जाती है कि अस्पताल में भर्ती होने तक की नौबत आ जाती है। न सिर्फ़ भारत बल्कि दुनिया भर में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा बार, ज़्यादा लंबे समय तक और ज़्यादा तेजी से होने वाले दर्द से गुज़रना पड़ता है। इसके बावजूद उनके दर्द को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है इसी भेदभाव को “जेंडर पेन गैप” कहा जाता है।
नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन में प्रकाशित 2024 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि लगभग 90 फीसद लड़कियों ने पीरियड्स से जुड़े दर्द की शिकायत की, जिसमें से सिर्फ़ 14.3 फीसद को ही ठीक ढंग से उपचार मिल पाया, बाकियों ने घरेलू उपचार या ख़ुद से मेडिकल स्टोर से दवा लेकर खाने की बात स्वीकार की।
पेन में शरीर की बनावट और हार्मोन का असर
महिलाओं, पुरुषों और दूसरे जेंडर्स के शारीरिक बनावट अलग-अलग होती है, जिससे दर्द और इसे महसूस करने की प्रक्रिया में फ़र्क आ जाता है। महिलाओं के शरीर में हर महीने होने वाले पीरियड्स की वजह से हार्मोन्स में उतार-चढ़ाव होते हैं। एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रॉन जैसे हॉर्मोन्स दर्द के प्रति होने वाली संवेदनशीलता को बढ़ा देते हैं। इसके साथ ही पीरियड्स से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं जैसे- एंडोमीट्रियोसिस, पीसीओडी और पीसीओएस महिलाओं को ही होती हैं। अब क्योंकि हमारे यहां पीरियड्स और उस पर बात करना अभी भी एक टैबू समझा जाता है इसलिए ऐसी समस्याएं होने पर इसे पीरियड्स के आम दर्द की तरह समझा जाता है।

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन में प्रकाशित 2024 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि लगभग 90 फीसद लड़कियों ने पीरियड्स से जुड़े दर्द की शिकायत की, जिसमें से सिर्फ़ 14.3 फीसद को ही ठीक ढंग से उपचार मिल पाया, बाकियों ने घरेलू उपचार या ख़ुद से मेडिकल स्टोर से दवा लेकर खाने की बात स्वीकार की। पीरियड्स और इससे जुड़ी समस्याओं के लिए अक्सर सही समय पर इलाज़ नहीं मिल पाता है इसलिए समय बीतने के साथ ये और गंभीर हो जाती हैं। द गार्डीअन में प्रकाशित 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 42 मिलियन महिलाएं एंडोमीट्रियोसिस से पीड़ित हैं, जिनका इलाज मिलने में इन्हें औसतन 7 से 10 साल लग जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि इन सालों में उन्हें इस दर्द से बिना किसी उपचार और ख़ास देखभाल के अकेले ही जूझना पड़ता है।
आमतौर पर यह माना जाता है कि पुरुष शारीरिक तौर पर मजबूत होते हैं और ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जबकि महिलाएं ज़्यादा भावुक होती हैं। इस सोच की वजह से भी परिवार में यहां तक कि डॉक्टर्स भी पुरुषों के दर्द को तो गंभीरता से लेते हैं जबकि महिलाओं के दर्द को ‘ओवर रिएक्शन’ कहकर अनदेखा कर देते हैं।
साइंस डेली में प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट से पता चला है कि महिलाओं के शरीर में दर्द महसूस करने वाले रिसेप्टर्स यानी सेंसर ज्यादा होते हैं। रिसर्च में यह भी पाया गया कि महिलाओं की चेहरे की त्वचा में 1 वर्ग सेंटीमीटर में औसतन 34 नर्व फाइबर्स होते हैं जबकि पुरुषों में यह संख्या 17 होती है।
इस वजह से एक जैसी चोट या बीमारी होने पर महिलाओं को पुरुषों से ज़्यादा तकलीफ़ का सामना करना पड़ता है। इसी तरह एनआईएएमएस की रिपोर्ट में भी यह पाया गया कि फाइब्रॉमॉयल्जिया जैसी लंबे समय तक चलने वाली बीमारियों के पुरुषों की तुलना में महिलाओं में होने का जोख़िम ज़्यादा होता है। इसमें लगातार दर्द बना रहता है लेकिन डॉक्टर्स कई बार इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं।
पितृसत्तात्मक सोच और सामाजिक पहलू

आमतौर पर यह माना जाता है कि पुरुष शारीरिक तौर पर मजबूत होते हैं और ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जबकि महिलाएं ज़्यादा भावुक होती हैं। इस सोच की वजह से भी परिवार में यहां तक कि डॉक्टर्स भी पुरुषों के दर्द को तो गंभीरता से लेते हैं जबकि महिलाओं के दर्द को ‘ओवर रिएक्शन’ कहकर अनदेखा कर देते हैं। इस वजह से न तो इन्हें घर में ठीक से देखभाल मिल पाती है न ही सही समय पर उपचार मिल पाता है। यहां तक कि बार-बार दर्द की शिकायत करने पर महिलाओं को कहा जाता है कि वे बेवजह ज़्यादा सोच रही हैं। किसी भी तरह की स्वास्थ्य से संबंधित समस्या होने के बावजूद उन्हें अक्सर घर के कामों से छुट्टी नहीं मिल पाती है। अवैतनिक घरेलू कामों में उलझे रहने से उन्हें आर्थिक रूप से भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिस वजह से वह ख़ुद चाह कर भी सही समय पर इलाज नहीं कर पाती हैं।
1433 लोगों पर किए गए क्लीनिकल टेस्टिंग में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ़ 42 फीसद पाई गई जबकि इन बीमारियों से ग्रस्त रोगियों में महिलाओं की हिस्सेदारी 60 फीसद थी।
हमारे समाज में महिलाओं को आज भी दोयम दर्ज़े का नागरिक माना जाता है और खाने-पीने, पोषण और इलाज़ के मामले में उनकी ज़रूरतों को प्राथमिकता सूची में आख़िर में जगह मिल पाती है। इसके अलावा घर और बाहर हर जगह महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा, यौन हिंसा और शोषण का ख़तरा बना रहता है जो उनमें तनाव, चिंता, अवसाद जैसी मानसिक बीमारियों का जोख़िम बढ़ा देता है। साथ ही सामाजिक दबाव, उम्मीद और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का दबाव इस तरह हावी रहता है कि उन्हें ख़ुद पर ध्यान देने के लिए वक़्त और मौका कम मिल पाता है। इन सारी वजहों से जेंडर पेन गैप बढ़ता चला जाता है।
हेल्थकेयर सेक्टर में होने वाले लैंगिक भेदभाव
द हिंदू की एक रिपोर्ट में अमेरिका में 2016 से 19 के बीच किए गए अध्ययनों में पाया गया कि मेडिकल के कुछ क्षेत्र जैसे कि ऑन्कोलॉजी, न्यूरोलॉजी, कार्डियोलॉजी और साइकोलॉजी से जुड़ी समस्याएं महिलाओं में अधिक होती है जबकि इससे जुड़े रिसर्च और क्लिनिकल ट्रायल्स में महिलाओं की हिस्सेदारी कम पाई गई। 1433 लोगों पर किए गए क्लीनिकल टेस्टिंग में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ़ 42 फीसद पाई गई जबकि इन बीमारियों से ग्रस्त रोगियों में महिलाओं की हिस्सेदारी 60 फीसद थी। इसी तरह का लैंगिक भेदभाव रिसर्च के लिए दिए जाने वाले फंड में भी देखा गया। जहां पुरुषों में ख़ासतौर पर होने वाली बीमारियों के लिए दिया जाना वाला फंड तुलनात्मक रूप से महिलाओं में होने वाली बीमारियों के लिए दिए जाने वाले फंड से कहीं ज़्यादा था। इससे साफ पता चलता है कि समानता और प्रगतिशीलता के तमाम दावों के बावजूद दुनियाभर में लैंगिक भेदभाव किसी न किसी रूप में अब भी बरक़रार है और जेंडर पेन गैप इसमें लगातार एक चुनौती की तरह बना हुआ है।
जेंडर पेन गैप का कॉन्सेप्ट 2001 में मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में सामने आया था, जिसका नाम था- “द गर्ल हू क्रायड पेन: ए बायस अगेंस्ट वीमेन इन द ट्रीटमेंट ऑफ पेन।” इसमें पाया गया कि महिलाओं के दर्द को उपचार मिलने की संभावना कम होती है बल्कि उसे नज़रअंदाज ज़्यादा किया जाता है।
आर्थिक असमानता और जेंडर पेन गैप
विश्व असमानता रिपोर्ट (वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट) 2022 के अनुसार दुनिया में वैतनिक काम से होने वाली कुल श्रम आय में महिलाओं की हिस्सेदारी 1990 में जहां 30 फीसद के करीब थी, वह 3 दशकों से ज़्यादा का समय बीतने के बावजूद आज भी 35 फीसद तक ही पहुंच पाई है। इस तरह आर्थिक संसाधनों की कमी भी महिलाओं में जेंडर पेन गैप की एक बड़ी वजह है। भारत में लड़कों को जहां बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई, कॅरियर बनाने और कमाने के लिए न सिर्फ़ प्रोत्साहित किया जाता है बल्कि इसके लिए बाक़ायदा माहौल और सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाती हैं। सीमित संसाधन होने पर लड़कों की पढ़ाई-लिखाई को प्राथमिकता दी जाती है।
क़ानून बनने के बावजूद घर का खानदानी बिजनेस और संपत्ति पर पहला हक़ लड़कों का ही माना जाता है। वहीं लड़कियों को बचपन से ही त्याग, सेवा और समर्पण के नाम पर घर-परिवार संभालने की ट्रेनिंग दी जाती है। कम उम्र से ही लड़कियों को घरेलू ज़िम्मेदारियों में व्यस्त रखा जाता है और इनकी सेहत को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है। परिवार और समाज की इस तरह की कंडीशनिंग की वजह से महिलाएं ख़ुद भी अपनी सेहत को प्राथमिकता नहीं दे पाती हैं और दर्द को झेलते रहने के लिए मजबूर हो जाती हैं। ये सारी बातें जेंडर पेन गैप को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती हैं।
साइंस डेली में प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट से पता चला है कि महिलाओं के शरीर में दर्द महसूस करने वाले रिसेप्टर्स यानी सेंसर ज्यादा होते हैं। रिसर्च में यह भी पाया गया कि महिलाओं की चेहरे की त्वचा में 1 वर्ग सेंटीमीटर में औसतन 34 नर्व फाइबर्स होते हैं जबकि पुरुषों में यह संख्या 17 होती है।
क्या हो सकता है समाधान
जेंडर पेन गैप खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण बदलाव लाने की ज़रूरत है। इसके लिए मेडिकल फील्ड से जुड़े लोगों को जेंडर सेंसिटिव बनाया जाना चाहिए। इनमें जेंडर सेंसिटिविटी को महिला और पुरुष की जेंडर बाइनरी तक सीमित न रखकर एलजीबीटीक्यू+ समुदाय तक को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। मेडिकल फ़ील्ड से जुड़े रिसर्च के लिए फंड के आवंटन में भी भेदभाव रोकने के लिए उपाय किए जाने ज़रूरी हैं। इसके साथ ही किसी तरह के क्लीनिकल ट्रायल और टेस्टिंग में सभी जेंडर्स की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए जिससे उनकी ख़ास ज़रूरतों को ध्यान में रखकर रिसर्च किये जाएं। महिलाओं और ट्रांसजेंडर्स की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए विशेष क्लिनिक बनाये जा सकते हैं।
मेडिकल स्टाफ में भी इन समुदायों की हिस्सेदारी बढ़ाने से इन्हें खुलकर अपनी समस्या और दर्द बयां करने का मौका मिल सकेगा। सरकार को स्वास्थ्य संबंधी नीतियां बनाते समय महिलाओं समेत दूसरे जेंडर्स का भी ध्यान रखना चाहिए। इन सब के अलावा, समाज की पितृसत्तात्मक सोच में बदलाव लाना बेहद ज़रूरी है जिससे सभी जेंडर्स को समान प्राथमिकता और अवसर मिले। हमें यह समझना होगा कि हर इंसान के दर्द को बराबर महत्त्व देना ज़रूरी है चाहे वह किसी भी जेंडर का क्यों न हो! जेंडर पेन गैप एक मेडिकल से जुड़ी समस्या नहीं बल्कि यह हमारी सोच, संवेदना और मानव अधिकार से जुड़ा हुआ मुद्दा है, इसलिए इस पर व्यापक विमर्श की ज़रूरत है, जिससे हम समाधान की तरफ आगे बढ़ सकें और सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित कर सकें।