समाजखेल लैंगिक समानता के लिए ज़रूरी है महिला खिलाड़ियों को बढ़ावा देना

लैंगिक समानता के लिए ज़रूरी है महिला खिलाड़ियों को बढ़ावा देना

खेल महिलाओं के जीवन को चूल्हे चौके से अलग भी एक नई जिंदगी देता है इसलिए हमें बस खुले दिल से महिलाओं को खेलों में भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए।

बचपन में मैं जब शाम को खेलने जाता तो मैं उस मैदान में केवल लड़को को ही देखता। बड़े होने पर भी जब हर शाम खेलने जाता तो उस मैदान में लड़के ही नजर आते। कभी फुटबॉल खेलते हुए कहीं बैडमिंटन तो कहीं क्रिकेट।

जब लौटता तो अपने मौहल्ले की गली में लड़कियों को छुआछुई तो कभी केवल झित-कित्ता खेलते देखता। मुझे लगा कि लड़कियों के लिए यही घर-घर, गुड़िया का खेल और छुआछुई ही है। वे उन खेलों के लिए नहीं बनी, जिनमें अधिक शारीरिक बल लगता हो। शायद इसीलिए वे कभी पेशेवर खिलाड़ी एक प्रोफेशनल एथलीट नहीं बन सकती।

जब मैं और थोड़ा बड़ा हुआ और ऊंची कक्षाओं में गया तो सामान्य ज्ञान का विषय पढ़ने को मिला। उस किताब में मैंने पी.टी उषा का नाम पढ़ा। उनकी तस्वीर देखी। वे भारत की महान एथलीट है, जिन्होंने एथलीटिट्स में कई रिकॉर्ड बनाए। उस तस्वीर में वो अपने द्वारा जीते मेडलों से लदी थी। दूसरे पन्ने पर सानिया मिर्जा दिखी। टेनिस खेलते हुए। मैं आश्चर्यचकित हो गया कि आखिर इतनी मुश्किल खेल टेनिस जिसमें एक शॉट मारने में शरीर की बहुत ताकत लगती है। उसमें महिलाएं आखिर कैसे? मैंने तो कभी किसी लड़की को खेलते नहीं देखा। दरअसल हमसब ने केवल उसी मैदान को देखा हैं, जहां महिलाएं खेलती ही नहीं और इसी कारण हमने मन में यह धारणा बनती गयी कि महिलाएं खेलती कोई पेशेवर खेल नहीं खेलती। एक पहले से हमारे अंदर पूर्वाग्रह बन गया हैं कि लड़कियां खेलने के लिए नहीं बनी। वे कोमल हैं और चोट के कारण अगर उनके शरीर में दाग हो गया तो उनका भविष्य खराब हो जाएगा, कोई उनसे शादी नहीं करेगा और भी न जाने क्या-क्या।  

पितृसत्ता को बरकरार रखने, खुद को श्रेष्ठ और सत्ता के करीब रखने के लिए पुरुष कभी भी खेलों के माध्यम से भी महिलाओं को आत्मनिर्भर नहीं होने देते। स्त्री की जिंदगी केवल पुरुष के इर्द-गिर्द बना दी गई है। हम कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली और खेलने वाली लड़कियां देखना ही नहीं पसंद। इसीलिए क्योंकि हम खेल के मैदानों में पुरुष को ही देखने के आदी हो चुके हैं। हमने प्राचीन ओलंपिक खेलों के वक्त महिला खिलाड़ियों को पहली देखा। उस समय महिलाओं के लिए ओलंपिक शुरू होने से पहले महिला एथलीट्स की प्रतियोगिता होती।

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और यह सब विश्वभर में कई नारीवादी आंदोलनों ने सामाजिक परिवर्तन लाया, जिसने पुरुषों के साथ समाज में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया। जिसके बाद महिलाएं भी खेलों में आई। पर भले ही हमने खेलों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा दिया, लेकिन हमने अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इसपर कोई काम नहीं किया। हमने कभी पितृसत्ता की जड़े नहीं काटी जो महिलाओं को खेलों में आने से रोकते है। इसका जीवंत उदाहरण है भारतीय महिला क्रिकेट टीम की खिलाड़ी शेफाली वर्मा, जिन्हें क्रिकेट की प्रैक्टिस करने के लिए लड़का बनना पड़ा।

पितृसत्ता को बरकरार रखने, खुद को श्रेष्ठ और सत्ता के करीब रखने के लिए पुरुष कभी भी खेलों के माध्यम से भी महिलाओं को आत्मनिर्भर नहीं होने देते।

इस लेख की शुरुआत में मैंने आपसे कहा था कि हम सब एक ऐसे खेल के मैदान को सिर्फ देखते हैं, जहां लड़कियां नहीं होती। महिलाओं का ख्याल भी खेल के मैदान में नहीं होता। इन सब की वजह ये है कि हमने कभी औरतों को खेलते हुए देखा ही नहीं। और इसका ज़िम्मेदार वे ब्रॉडकास्टर और अखबार हैं जो केवल पुरुषों के खेलों को ही तवज्जों देते हैं।

कुछ साल पहले की बात है जब स्टार स्पोर्ट्स में लोगों से एंकर ने सवाल किया कि ‘सबसे पहले क्रिकेट में दोहरा शतक किसने लगाया? सभी का जवाब सचिन तेंदुलकर था लेकिन जब उन्हें जवाब बताया गया कि वो सचिन नहीं मिताली राजहैं तो वे सब आश्चर्य में थेजैसे मैं उस किताब में पी.टी उषा को देखकर आश्चर्यचकित हुआ था। लेकिन  उसमें एक दर्शक ने उस चैनल वालों से कहा कि आप सभी महिला क्रिकेट दिखाते ही कहां हो?

यह सच है कि हम हमेशा अखबार के खेलों के सेक्शन में बड़ी सी तस्वीर पुरुष खेल की देखते है। वहीं कोने में पड़ी होती हैमहिला खेल की तस्वीर। अब हालात बदलें हैं। थोड़ी सी दिलचस्पी हमारी महिलाओं के खेल के प्रति जागी है। इसीलिए, अब हम गीता फोगाट, विनेश फोगाट, पी.वी. सिंधु, मिताली राज, हरमनप्रीत कौर, जैसे महिला खिलाड़ियों को जान पाए हैं।

लेकिन इस वक्त की सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं के खेलों में है, गैर-बराबरी। महिला खिलाड़ियों को पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में कम वेतन मिलता है। हम बराबरी की ओर जाना चाहते है, जहां सबको एक ही काम के लिए सामान वेतन मिले। लेकिन, कम स्पोंसरशिप और कम दर्शकों की वजह से स्थिति वैसी ही है। खेल महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाता है। खेल महिलाओं को इस समाज में एक नई पहचान देता है। खेल बराबरी का भाव लाता है। खेल महिलाओं के जीवन को चूल्हे चौके से अलग भी एक नई जिंदगी प्रदान करता है। हमें बस खुले दिल से महिलाओं को खेलों में भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए, क्योंकि लैंगिक समानता के ये मज़बूत और प्रभावी कदम है।   

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तस्वीर् साभार : iismworld

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