हमारे समाज में ऐसी कई कुप्रथाएं हैं जिन्हें आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम जड़ से उखाड़ नहीं पाए हैं। इन कुप्रथाओं की नींव हैं अंधविश्वास और रूढ़िवाद और इनका प्रभाव सबसे ज़्यादा पड़ता है महिलाओं, बच्चों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर। चाहे कितनी भी वैज्ञानिक प्रगति हो गई हो और हमारे समाज के लोग कितना भी पढ़ लिख गए हों, ये कुप्रथाएं अभी भी प्रचलित हैं और लोग इन्हें नकारने से अभी भी इनकार करते हैं। हालांकि हमारे देश में ऐसे बहुत लोग पैदा हुए हैं जिन्होंने इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और जो मरते दम तक अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ते रहे, समाज में अंधविश्वास आज भी कूट-कूट कर भरा हुआ है जिसकी वजह से इन लोगों का काम अधूरा रह गया है। बाल विवाह भी एक ऐसी कुप्रथा है। ‘Save The Children’ संस्था के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में 47 फ़ीसद लड़कियों को 18 साल के होने के पहले शादी के मंडप पर धकेल दिया जाता है। सबसे बुरा हाल बिहार और राजस्थान में है जहां 65 फ़ीसद से 70 फ़ीसद शादीशुदा लड़कियों की उम्र 15 साल से 18 साल है। शोध से ये भी पता चला कि दुनिया में सबसे ज़्यादा बाल विवाह भारत में होते हैं। इसी बाल विवाह के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई थी एक औरत। राजस्थान की एक सरकारी कर्मचारी – भंवरी देवी।
कौन हैं भंवरी देवी?
साल 1992 की बात है। राजस्थान के भटेरी गाँव में रहनेवाली भंवरी देवी राज्य सरकार की ‘महिला विकास परियोजना’ की कार्यकर्ता थीं। अपनी ‘साथिनों’ के साथ भंवरी स्वास्थ्य, शिक्षा, मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर काम करती थीं। इसी दौरान उन्होंने बाल विवाह के ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक करने के लिए घर-घर जाकर प्रचार करना शुरू किया। इसका काफ़ी विरोध हुआ था जिसके बावजूद भंवरी पीछे नहीं हटीं, पर मुश्किल तब हुई जब वो राम करण गुज्जर की 1 साल की बेटी की शादी रुकवाने गईं।
गाँव का बाहुबली था राम करण गुज्जर। ऊंची जात का था। नीची जात की औरत उनके घर के मामले में दखलअंदाज़ी करे, ये बात बर्दाश्त नहीं हुई। और भी गुज्जर परिवार भंवरी के ख़िलाफ़ उसके साथ शामिल हुए। उन्हें धमकियां देने लगे। ख़ुशकिस्मती से उस दिन पुलिस के डीएसपी और एसडीओ गांव में आए हुए थे, जिनकी मदद से भंवरी ने वो शादी रुकवा दी। फिर भी, ये शादी सिर्फ़ एक ही दिन के लिए रुक पाई। अगले दिन डीएसपी और एसडीओ के जाने के बाद उस बच्ची की शादी करवा दी गई और पूरा गांव भंवरी और उनके पति के ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ। गांव के लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार करने लगे। कुछ गांववालों ने भंवरी के बॉस की पिटाई कर दी तो भंवरी को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी।
हम भंवरी देवी को इंसाफ़ नहीं दिला पाए। ये हम सबके लिए बहुत ही शर्मनाक बात है जिसकी कोई माफ़ी नहीं हो सकती। पर उनकी ज़िंदगी से प्रेरित इस क़ानून के ज़रिए अगर हम उनके जैसी और औरतों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ले सकें, तो शायद इसकी भरपाई हो।
बलात्कार और उसके बाद
22 सितंबर 1992 की शाम भंवरी अपने पति के साथ खेतों में काम कर रहीं थीं। इसी वक़्त पांच लोग वहां आ पहुंचे। ये लोग थे राम करण गुज्जर, उसका चाचा बद्री गुज्जर, उसके दो भाई राम सुख गुज्जर, ग्यारसा गुज्जर और श्रवण शर्मा नाम का एक आदमी। पांचों ने डंडों से भंवरी के पति को मार-मारकर बेहोश कर दिया और बारी-बारी भंवरी का बलात्कार किया।
एक सहकर्मी के साथ भंवरी अगले दिन थाने में एफ़आईआर लिखवाने गईं। वहां थानेदार ने उनका यक़ीन नहीं किया और उन्हें “तुम्हें पता भी है बलात्कार क्या होता है?” जैसे सवाल पूछकर शर्मिंदा भी किया। कई घंटों के इंतज़ार के बाद जाकर एफ़आईआर दर्ज हुआ और भंवरी को शारीरिक जांच के लिए जयपुर के एसएमएस अस्पताल जाने को कहा गया। अस्पताल में डॉक्टरों ने भंवरी की जांच करने से इंकार कर दिया क्योंकि उनके पास मजिस्ट्रेट से चिट्ठी नहीं थी (जब कि ऐसा कोई नियम नहीं है।)महिला एवं शिशु कल्याण विभाग के डायरेक्टर ने पुलिस पर दबाव डाला तब जाकर जांच हुई। बलात्कार के पूरे 48 घंटे बाद भंवरी की मेडिकल जांच हुई, जब कि क़ानून के मुताबिक़ 24 घंटों के अंदर होनी चाहिए।
जांच के बाद भंवरी को आगे की कार्रवाई के लिए वापस गांव के थाने में जाना पड़ा। वहां सबूत के तौर पर उनसे उनका लहंगा मांगा गया। सरेआम भंवरी को अपना लहंगा उतारना पड़ा और अपने पति के साफ़े से ख़ुद को ढककर पैदल वापस घर जाना पड़ा।
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कोर्ट में केस और उसका फैसला
भंवरी के बलात्कारियों को गिरफ़्तार कर उन्हें ज़िला न्यायलय में लाया गया। चूंकी भंवरी की मेडिकल जांच देर से हुई थी, जब ज़्यादातर घाव भर गए थे तब कोर्ट ने कहा कि बलात्कार का कोई ठोस शारीरिक सबूत नहीं है। बाक़ी सबूत से छेड़खानी की संभावना भी है, क्योंकि भंवरी के लहंगे पर पांच मर्दों का वीर्य तो पाया गया था ज़रूर, पर वो वीर्य पांचों आरोपियों में से किसी के भी वीर्य के सैंपल्स के साथ मैच नहीं हो रहा था। आरोपियों का समर्थन स्थानीय एमएलए धनराज मीणा ने किया था। उन्होंने ही उनके लिए वकील का इंतज़ाम भी किया था और ऐसा हो सकता है कि सबूत से छेड़छाड़ में उनका हाथ रहा हो।
15 नवंबर 1995 में कोर्ट ने सभी आरोपियों को निर्दोष बताकर बरी कर दिया। ये फ़ैसला सुनाया कि भंवरी देवी ने उन पर झूठा इलज़ाम लगाया है। कोर्ट ने ये भी कहा कि इस फ़ैसले के तीन मुख्य कारण हैं। एक, कोई भी ऊंची जात का आदमी एक नीची जात की औरत को हाथ लगाकर ख़ुद को जानबूझकर अशुद्ध नहीं करना चाहेगा। दो, कोई भी चाचा अपने भतीजों के सामने बलात्कार जैसा काम नहीं कर सकता। और तीन, अपनी बीवी का बलात्कार होते देख कोई भी पति लड़ने के बजाय चुप नहीं बैठेगा। फ़ैसले के बाद पांचों बलात्कारियों के लिए शोभा यात्रा का इंतज़ाम हुआ, जिसमें कई राजनैतिक दलों की महिला विंग भी उपस्थित थीं।
भंवरी देवी आज
आज भी भंवरी गरीबी और अकेलेपन में जीतीं हैं। गांव में कोई भी उनका मुंह तक नहीं देखना चाहता। उनके परिवार के साथ भी उनका कोई लेना-देना नहीं है और उनके भाइयों ने उन्हें अपनी मां के अंतिम संस्कार पर भी नहीं आने दिया। उनके पति के गुज़रे कई साल हो गए हैं और उनके बेटे मुकेश की शादी बहुत मुश्किल से हुई थी क्योंकि गांव में कोई भी परिवार उन्हें अपनी लड़की देने को तैयार नहीं था। भंवरी के चार बच्चों में से दो बेटे जयपुर में काम करते हैं, बड़ी बेटी पढ़ी लिखी नहीं है, और छोटी बेटी गांव के स्कूल में इंग्लिश पढ़ाती है।
पिछले 28 सालों में भंवरी को ‘नीरजा भनोट स्मारक पुरस्कार’ से नवाज़ा गया है और राजस्थान सरकार की तरफ़ से आर्थिक मदद मिली है। उनके बारे में फ़िल्म बनी है। यहां तक कि वो भारत की तरफ से संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के चौथे वर्ल्ड कांफ्रेंस के लिए बीजिंग भी जा चुकी हैं। पर उन्हें जो नहीं मिला है वो है इंसाफ़ और एक आम ज़िन्दगी जीने का हक़।
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विशाखा गाइडलाइन्स
भंवरी देवी को तो इंसाफ़ मिलने से रहा। पर एक नारीवादी संगठन ‘विशाखा’ ने उनके केस को मद्देनज़र रखते हुए सुप्रीम कोर्ट में कामकाजी महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (पीआईएल) दर्ज किया। इस पीआईएल में संविधान के आर्टिकल 14 (न्याय की नज़रों में समानता), आर्टिकल 19 (अभिव्यक्ति वगैरह की आज़ादी) और आर्टिकल 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) पर ख़ास ज़ोर डाला गया था।
इसका नतीजा ये हुआ कि अगस्त 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने वर्कप्लेस सेक्शुअल हरासमेंट यानी कर्मक्षेत्र में यौन शोषण की परिभाषा तय की और इस तरह के यौन शोषण से गुज़रती महिलाओं के एम्प्लॉयर्स को क्या करना चाहिए इसके लिए कुछ निर्देश भी दिए। इन निर्देशों को हम ‘विशाखा गाइडलाइन्स’ के नाम से जानते हैं और 2013 में इन्हीं गाइडलाइन्स के आधार पर एक नया क़ानून बना: सेक्शुअल हरासमेंट ऑफ़ वीमेन ऐट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रेड्रेसल) ऐक्ट, 2013। आज इस क़ानून के तहत हर छोटी-बड़ी कंपनी में एक ‘प्रिवेंशन ऑफ़ सेक्शुअल हरासमेंट’ (POSH) समिति, जो विशाखा गाइडलाइन्स का पालन करती हो, का होना अनिवार्य है।
भंवरी देवी को निशाना उनके काम के लिए बनाया गया था। उन्हें हर तरह से दबाया गया ताकि वो अपना काम न कर पाएं। किसी और वर्किंग औरत को अपने वर्कप्लेस में या अपना काम करते वक़्त ऐसा न झेलना पड़े, ये क़ानून इसीलिए बनाया गया है। हम भंवरी देवी को इंसाफ़ नहीं दिला पाए। ये हम सबके लिए बहुत ही शर्मनाक बात है जिसकी कोई माफ़ी नहीं हो सकती। पर उनकी ज़िंदगी से प्रेरित इस क़ानून के ज़रिए अगर हम उनके जैसी और औरतों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ले सकें, तो शायद इसकी भरपाई हो।
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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए