बचपन से शादी होने तक एक मुद्दा ऐसा रहा है जिसपर कभी मैंने खुलकर बात नहीं की। दोस्तों में उस मुद्दे को लेकर मजाक तो बहुत किया लेकिन उसकी गंभीरता को समझने में मुझे बहुत साल लग गये। यह समझकर कि पुरुषों में इसके बारे में बात नहीं होती क्योंकि यह तो महिलाओं की मुद्दा है। घरों से लेकर कार्यस्थलों पर महिलाओं और लड़कियों से फुसफुसाते हुए बहुत बार सुना था। लेकिन इस मुद्दे पर खुलकर बात करते कभी नहीं देखी थी। लैंगिक संवेदनशीलता से जुड़े इस मुद्दे को समझने और दूसरों को समझने का अवसर मुझे ब्रेकथ्रू नामक सामाजिक संस्था में काम करने के दौरान मिला। ब्रेकथ्रू ने किशोरियों के सशक्तिकरण कार्यक्रम हरियाणा के कुछ ज़िलों चलाया गया।
इस कार्यकम की शुरूआत हरियाणा के उन जिलों हुई जिन्हें हरियाणा का असली गढ़ माना जाता है। इन क्षेत्रों में लैगिंक भेदभाव को दूर करने लिए स्कूल और समुदाय स्तर पर जागरूक करना कोई आसान काम नहीं था। ब्रेकथ्रू में काम करते समय यह अनुभव हुआ कि स्कूलों में लड़कियों को ना तो पीरियड के बारे में जानकरी मिलती है और ना ही स्कूल स्तर पर पीरियड सम्बंधित कोई सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। यहाँ तक कि घरों में भी इस विषय पर खुलकर बात नहीं की जाती । ब्रेकथ्रू में काम करने के दौरान यह तय किया गया कि स्कूल स्तर पर किशोरियों को पीरियड के बारे में जागरूक किया जाएगा । जब पहली बार मैंने पीरियड पर जागरूकता के लिए प्रिंसिपल से बात की तो वो बहुत असहज हो गए क्योंकि उन्हें यह बात स्वीकार नहीं थी कोई पुरुष इस मुद्दे पर बात करें।
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बहुत बातचीत के बाद आखिरकार प्रिंसिपल ने सहमति दर्ज कर ही थी । उन्होंने एक महिला अध्यापिका को भी क्लास रूम पर उपस्थिति रहने के लिए कहा। सच कहूं तो क्लास में जाने से पहले मेरे मन में भी बहुत सवालों की लहरें दौड़ रही थी। मैं सोच रहा था कि कैसे किशोरियों से इस विषय पर सहजता से बात की जाए। कक्षा में बात शुरू होते ही पूरी कक्षा में सन्नाटा-सा छा गया। सभी किशोरियां अपनी गर्दन नीचे करते हुए एकदूसरे को देकर शर्माने लगी। मैंने पूछा कि क्या पीरियड में शर्म महसूस करने वाली कोई बात हैं? तभी एक कोने से एक किशोरी की आवाज आई नहींसर ,इसमें कोई शर्म की बात नहीं है ।
पीरियड जैसे संवेदनशील मुद्दे को हम महिला का मुद्दा समझकर नज़रंदाज़ करते है तो ये लैंगिक समानता और संवेदनशीलता के लिए रोड़ा बनते जाता है।
धीरे-धीरे कक्षा में जो चुप्पी थी वो टूट रही थी और किशोरियां पीरियड पर अपनी बात कहना शुरू कर चुकी थी। पीरियड को लेकर बहुत से भ्रमों के पीछे का सच सामने आ रहा था और किशोरियों की आँखों में एक अगल सा विश्वास झलक रहा था । किशोरियों का विश्वास इस स्तर पर था कि उन्होंने स्कूल में पीरियड्स सम्बन्धित सुविधाओं के ना होने की बात भी रखी। फिर चर्चा का केन्द्र इस बात पर आ गया कि कैसे स्कूल स्तर पर पीरियड्स सम्बन्धित सुविधाओं को सुनिश्चित किया जाए। ऐसे कौन से कदम उठाए जाए कि पीरियड पर हुई बात इस कक्षा तक सीमित ना हो। बहुत विचार के बात किशोरियों ने एक स्वास्थ्य कमेटी का गठन किया, जिसका काम स्कूल में सभी किशोरियों से कुछ पैसे इक्कठे करके सैनिटरी पैड की व्यवस्था करना और अन्य किशोरियों को पीरियड्स के बारे में जानकारी देना था। जब मैं स्कूल में अगली बार गया था तो महिला अध्यापिका ने बताया कि किशोरियों के लिए स्कूल में सैनिटरी पैड की व्यवस्था की गई।
उस दिन यह बात समझ आई कि बात इतनी भी मुश्किल नहीं होती जितना हम उसे बना देते है। उस दिन उस कक्षा में ना केवल किशोरियाँ पीरियड को लेकर सहज हुई बल्कि मैंने भी अपने आप को सहज महसूस किया। किसी ने सही कहा है बात करने से ही बात बनती हैं। इसके साथ ही मैंने ये भी महसूस किया कि पीरियड जैसे संवेदनशील मुद्दे को हम महिला का मुद्दा समझकर नज़रंदाज़ करते है तो ये लैंगिक समानता और संवेदनशीलता के लिए रोड़ा बनते जाता है। पर जैसे ही हम इस विषय पर चर्चा शुरू करते हैं तो हमारे व्यक्तित्व के साथ-साथ समाज में भी लैंगिक संवेदनशीलता बढ़ने लगती है।
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तस्वीर साभार : sports.yahoo