स्तब्ध करने वाला फ़िल्म का आख़िरी हिस्सा बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह जाता है और हमारी सभ्यता पर एक बड़ा सवाल छोड़ता है।कहा जाता है कि औरत होती नहीं बनायी जाती है। सच में हम जिस धारणा की बात कर रहे है, उन धारणाओं के तहत सदियों से महिलाओं के बीच बोए गए द्वेष के बीज को भी देख सकते है, जब एक महिला का दूसरी महिला के प्रति व्यवहार और बात करने का लहजा उसके पहनावे और शिक्षा पर केंद्रित होता है। वे एक दूसरे को ताने मारती और बहस करती है। ये सब भी उसी सोच को दर्शाती है जो समाज की है, क्योंकि वे भी समाज का हिस्सा है और उन्हें भी इसी समाज ने बनाया है। लेकिन फ़िल्म का आख़िरी मिनट समाज में हिंसा के उस घिनौने रूप को सामने लाता है, जिससे मुँह चुराना भी अब हमारी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। स्तब्ध करने वाला फ़िल्म का आख़िरी हिस्सा बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह जाता है और हमारी सभ्यता पर एक बड़ा सवाल छोड़ता है। इस हिस्से पर ज़्यादा कुछ नहीं कहूँगीं बाक़ी आप ख़ुद देखिएगा। आख़िर में यही कहूँगीं इस तरह की फ़िल्में ज़्यादा देखी नहीं जाती। ये करोड़ों का बिज़नेस भी नहीं करती है, क्योंकि इसमें मसाला नहीं समाज की कड़वी सच्चाई होती है। पर इन सबके बावजूद संजीदे विषय को बिना किसी लीपापोती के उजागर करना सराहनीय और ज़रूरी है।और पढ़ें : पितृसत्ता पर लैंगिक समानता का तमाचा जड़ती ‘दुआ-ए-रीम’ ज़रूर देखनी चाहिए
तस्वीर साभार : indiatoday
ऐसी फिल्म समाज का आइना होती है और ये एक सच्चाई है रेप भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन गया है
जिसे दूर करने की कोशिश घर से ही होनी चाहिए क्यूँ की व्यक्ति हर किसी न किसी घर का हिस्सा होता है ना जाने ये कब रुकेगा
कुरान सूरा 4: 34 – पति ने पत्नी पर अपना माल खर्च किया है इसलिये जरूरत पड़ने पर पत्नी को मारो-पीटो ।