साल 1913 में दादा साहेब फ़ाल्के ने भारतीय सिनेमा की नींव रखी और बहुत जल्द ही यह मनोरंजन के सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम के रूप से स्थापित हो गया। साल 1930 तक क़रीब 200 फिल्में बन चुकी थीं,जिनमें अनेक ब्लॉकबस्टर्स और ग़ज़ब की भीड़ इकट्ठी करने वाली फिल्में थीं― पटकथा में अलग इन फिल्मों में एक बात समान थी―इनके पुरुष पात्र में स्थापित व मान्य सामाजिक पौरुषता झलकती थी और स्त्री-छवि आदर्शों की प्रतिमूर्ति के रूप मात्र तक संकुचित थी।
असल में, भारतीय समाज पितृसत्ता की गहरी जड़ों तले जकड़ा हुआ है। परिणामस्वरूप यहाँ होने वाले प्रत्येक क्रियाकलाप में उसकी झलक साफ़ दिखती है। इस तरह, ऑन स्क्रीन व ऑफ़ स्क्रीन दोनों ही जगहें महिलाएं लैंगिक असमानता व रूढ़िवादी मानसिकता झेलने के लिए बाध्य थी। ग़ौरतलब है कि पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण संसाधन पर पुरुष स्वामित्व था। बाहरी ‘स्पेसेज़’ पुरुषों के लिए होते थे। इसलिए सिनेमा के दर्शक अधिकांशतः पुरुष होते थे। एक उद्योग के रूप में बढ़ते सिनेमाई जगत के लिए वह परोसना ही उसके फ़ायदे में था,जो आमतौर पर प्रचलित व स्वीकार्य अवधारणा थी। साथ ही, फिल्मी तकनीक व फ़िल्म के ज़रूरी अवयवों को रचने वाले अधिकतर पुरुष थे, जिसका सीधा असर फ़िल्म की कहानी व स्वरूप पर पड़ता था। अंग्रेज़ी फ़िल्म क्रिटीक जॉन बर्ज़र साल 1972 में अपने लेख ‘एस्से ऑन आर्ट क्रिटिज़्म- वेज़ ऑफ़ सीइंग) में इसी ‘मेल गेज़’ की बात करते हैं।
उसी शुरुआती दौर में, इस पितृसत्तात्मक व विभेदकारी ढांचे को चुनौती देते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई― बोल्ड,खूबसूरत,करिश्माई,’प्राइमा डोमा’, ‘ड्रैगन लेडी’ और भारतीय सिनेमा की पहली महिला कही जाने वाली ‘देविका रानी’ ने। देविका रानी ‘चौधरी’ का जन्म 30 मार्च 1908 को ब्रिटिश भारत के मद्रास प्रान्त में एक कुलीन और अंग्रेज़ी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता कर्नल डॉक्टर मनमथनाथ चौधरी व माँ लीला चौधरी थीं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की समृद्धि व कुलीनता का आलम यह था कि क़रीब सभी नजदीकी संबंधी कानून, प्रशासन, साहित्य इत्यादि कार्यक्षेत्रों में बड़े नाम के रूप में स्थापित थे। देविका रानी चौधरी की दादी नोबल पुरस्कार विजेता रबिन्द्रनाथ टैगोर की बहन थी। ख़ुद देविका के पिता भारत के पहले सर्जन-जनरल थे।
ऐसे कुलीन व तथाकथित ‘उच्चवर्गीय’ परिवार से आने के बावजूद देविका का सिनेमाई क्षेत्र में करियर बनाने का निर्णय स्पष्ट करता है कि वे अपनी इच्छाओं व अधिकारों व चयन के प्रति जागरूक थीं और बने- बनाए सामाजिक ढर्रे को तोड़ने का जज़्बा रखती थी। तत्कालीन स्थिति को देखें तो उस दौरान भारत में महिलाओं को बाहरी कार्यक्षेत्र में भागीदारी के अवसर भी नहीं थे। महिलाएं सामाजिक स्तर पर शोषण से जूझ रही थीं और तमाम सुधारवादियों से महिला शिक्षा व शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठनी क़रीब शुरू ही हुई थी। साल 1942 में गांधी ने महिलाओं के स्वरों को सबके साथ सम्मिलित करने का निर्णय लिया गया था।
उस समय समाज के तथाकथित उच्च वर्गों में सिनेमा को हेय दृष्टि से देखा जाता था। महिलाओं की भूमिकाएं रेड लाइट एरिया में काम करने वाली स्त्रियों से करवाए जाते थे। यानी महिलाओं के लिए वह प्रतिबंधित क्षेत्र था। ऐसे दौर में, देविका रानी ने तमाम रूढ़ियों को खारिज़ करते हुए इस कार्यक्षेत्र में आने का निर्णय उनकी स्पष्ट इच्छाशक्ति दर्शाता है।
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इंग्लैंड और जर्मनी में देविका की ‘बैकग्राउंड’ यात्रा
देविका रानी को आठ-नौ साल की उम्र में इंग्लैंड के एक बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया था। जहाँ स्कूल के बाद उन्होंने रॉयल अकेडमी ऑफ डांस एंड म्यूजिक में एक्टिंग व संगीत सीखा। इसके बाद उन्होंने आर्किटेक्चर के अंतर्गत टेक्सटाइल व डेकॉर की पढ़ाई की। इस दौरान उन्होंने एलिज़ाबेथ अर्डन (अमेरिकी-कनेडियाई बिज़नेस वूमन) के साथ प्रशिक्षु के रूप में काम किया। इन आधुनिक विषयों के अध्ययन और पुनर्जागरण के बाद यूरोपीय जीवन व कला में उपजे नवीन विचारों का प्रभाव सीधेतौर पर देविका रानी पर पड़ा था, जिसका असर उनके व्यक्तित्व, कौशल व अभिव्यक्ति में साफ़ दिखता है।
देविका ने दक़ियानूसी सामाजिक मापदंडों को खंडित कर दिया। उन्होंने अपनी भावनाओं को सजगता से उजागर किया।
साल 1929 में वे हिमांशु रॉय से मिलती हैं और हिमांशु अपनी फ़िल्म ‘अ थ्रो ऑफ डाइस’ के लिए उन्हें ‘कॉस्ट्यूम डिज़ाइन और आर्ट डायरेक्शन में सहयोग देने के लिए अपनी ‘प्रोडक्शन टीम’ में आमंत्रित करते हैं। यह सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था, इन क्षेत्रों में पारंगत होने के कारण ही देविका ने हिंदी सिनेमाई ढर्रे को बदला क्योंकि पुरुष व महिला के नज़रिए व उनके अनुभवों में एक बड़ा अंतर होता है और नज़रिया ही फ़िल्म की दिशा व स्वरूप तय करता है। देविका तमाम तकनीकी कौशल व फ़िल्म के निर्माण में बुनियादी तरीकों में प्रवीण थीं, तभी वे भारतीय सिनेमा की ‘प्राइमा डोमा’ बनीं।
देविका की फिल्में : रील और रीयल का कॉम्बो
देविका की पहली फ़िल्म कर्मा (1933) दो भाषाओं (हिंदी-अंग्रेज़ी) में वे हिमांशु रॉय के अगेंस्ट अभिनय कर रही थीं। इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग लंदन में हुई जिसमें देविका के हाव-भाव व अभिव्यक्ति के तरीके वहाँ के अखबारों में चर्चा का विषय बने। उनकी पहली फ़िल्म में चार मिनट का लिपलॉक सीन था, जिसे भारतीय परम्परावादी दर्शक समूह से स्वीकार किया जाना सम्भव न हुआ हो और यह फ़िल्म फ्लॉप हो गयी।
लेकिन यह देविका की रूढ़ियों को खंडित करने का अपना तरीका था। देविका की फिल्में समाज में व्याप्त रूढ़ियों के खात्मे व मानवीय मूल्यों सहित सामाजिक उत्थान की पैरवी करती हैं। सिनेमा को अभिव्यक्ति का वृहद माध्यम मानते हुए ऐसी फिल्में रचने की कोशिश हुई, जो समाज से जुड़ी थीं, जिनमें कुरीतियों और शोषण के खत्म करने का आग्रह था। साल 1936 में आई अछूत कन्या ऐसी ही एक कोशिश थी। इस फ़िल्म के माध्यम से भारतीय समाज के ब्राह्मणवादी संरचना पर प्रहार करते हुए दलितों के ख़िलाफ़ शोषण के मुद्दे को मुखरता से भारतीय जनमानस के समक्ष लाने का प्रयास किया गया था। यह फ़िल्म सफ़ल रही।
देविका की फिल्मों में एक ख़ास बात यह भी थी कि इसमें उस गैप को खत्म किया गया जो आमतौर पर सिनेमा में होते चले आ रहा था― लीड रोल्स में महिला था और ‘स्क्रीन स्पेस’ भी पुरुषों के बराबर दिया गया। ‘अछूत कन्या’ ‘निर्मला’, ‘इज़्ज़त’ जैसी फिल्मों में देविका लीड में थीं। देविका और अशोक कुमार दोनों की ‘अछूत कन्या’ के बाद सराहे गए। जहाँ तक स्क्रीन स्पेस की बात है, उसमें आज भी असमानता है। साल 2017 में हुए गीना डेविस इंस्टीट्यूट के एक सर्वे के मुताबिक महिला व पुरुष का स्क्रीन स्पेस 31.5 : 68.5 फ़ीसद है ; जबकि 1930 के दशक में देविका ने लीड रोल्स निभाए और स्क्रीन स्पेसेज में असमानता को खत्म कर अपने लिए अवसर बनाया, यह दर्शाता है कि वे कितनी जागरूकता से सिनेमाई प्रभाव व मनोस्थिति निर्मित जैसी बुनियादी बातों को समझती थीं।
सामाजिक मापदंड नकारती देविका
आज भी समाज पितृसत्ता और परम्परागत सोच को पूरी तरह से छोड़कर आगे नहीं बढ़ पाया है। ऐसे में 1930 के दशक की हालत समझी जा सकती है लेकिन उस दौरान भी देविका ने अपने जीवन व आचार-व्यवहार से थोपे गए ढांचों को नकार दिया। भारतीय समाज में महिला त्याग की देवी व समर्पण करने वाली स्त्री के रूप में स्वीकार की जाती है। देविका ने दक़ियानूसी सामाजिक मापदंडों को खंडित कर दिया। उन्होंने अपनी भावनाओं को सजगता से उजागर किया। उन्होंने तीन बार प्रेम किया तथा दो बार विवाह किया।
हिमांशु रॉय(1940) की मृत्यु के बाद उन्होंने दूसरा विवाह (1945) भी किया। वे अपने आर्थिक अधिकारों को लेकर भी सजग थीं। बॉम्बे टॉकीज़ में उनके और हिमांशु के शेयर अलग-अलग थे और हिमांशु के बाद वे स्टूडियो की मालकिन बनीं। उन्हें उनके सहकर्मियों ने बॉलीवुड की ‘ड्रैगन लेडी’ कहा जाता था। सिगरेट व शराब की ग्लास थामे बेबाकी से बात रखते हुए उन्होंने उन सभी परम्पराओं पर चोट की, जिन्होंने औरतों को त्याग की प्रतिमूर्ति बनाकर उनकी इच्छाओं को सीमित किया था। समाज में फैले जातिगत विभेदों को खत्म करने की शुरुआत उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ से की जहाँ सभी मतों,वर्गों के सहकर्मियों के लिए एक ही कैंटीन से उन्हीं प्लेट्स में खाना आता था और सब खाते थे।
हिमांशु की मृत्यु के बाद उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ को सम्भाला और भारतीय सिनेमा को मधुबाला, मुमताज़, दिलीप कुमार जैसी प्रतिभाओं से मिलावाया। बाद में अशोक कुमार व शशाधर मुखर्जी के अलग होने के बाद उन्होंने अपने अभिनय से रिटायरमेंट ले लिया और स्वेतस्लाव रोएरिच के साथ कर्नाटक में रहने लगीं। देविका रानी को उनकी प्रतिभा व सिनेमा में योगदान के लिए साल 1953 में पद्मश्री सम्मान दिया गया और साल 1969 में दस बेमिसाल सालों के बेहतरीन अभिनय के लिए पहला दादा साहेब फ़ाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया। 9 मार्च 1994 को उनकी मृत्यु हो गयी।
इस तरह, अपने पूरे जीवन में देविका रानी ने भारतीय समाज में व्याप्त पितृसत्ता के ढांचों व परम्पराओं पर चोट की और अपने निर्णय, चयन व कुशलता के दम पर अपने आप को स्थापित किया। आज भी बॉलीवुड की हालत बहुत ठीक नहीं है। अभी भी ‘मेल गेज़’ व्यापक तौर पर सिनेमा को घेरे हुए है। महिला डायरेक्टर्स और प्रोड्यूसर्स की संख्या गिनी-चुनी मात्र है। पूंजीवादी दौर व बाज़ार ने सिनेमा को बहुत प्रभावित किया है। ‘आइटम नम्बर्स’ इत्यादि ने देह का बाज़ारीकरण किया है। कई बार लगता है कि देविका रानी का दौर आज के मुकाबले कम असहिष्णु था।
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तस्वीर साभार : cinestaan