नारीवाद से जुड़े आंदोलनों के तीसरे चरण के बाद भी ग्रामीण और पिछड़े इलाकों की महिलाएं आज भी शोषण के उसी पुराने ढर्रे को झेलने को मजबूर हैं। इस आधार पर हम ये कह सकते हैं कि भारत में नारीवाद अभी ग्राउंड ज़ीरो तक नहीं पहुंच पाया है। ग्रामीण महिलाओं के पास अधिकार नहीं कर्तव्य अधिक हैं और इन कर्तव्यों का पालन ही उनके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है। सामाजिक, आर्थिक और राजीतिक तीनों ही स्तरों पर उन्हें अलग-थलग रखा जाता है। खासकर, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए शिक्षा एक विशेषाधिकार है, जो सबको नहीं मिलती। शिक्षा के अभाव में ज़्यादातर महिलाएं अपने जीवन का उद्देश्य नहीं तय कर पाती। नतीजतन पुरुष महिलाओं के लिए कर्तव्य तय करते हैं जिसके पालन के लिए महिलाएं बाध्य हो जाती हैं।
परिवार : शोषण का बुनियादी ढांचा
सभी तरह के शोषण का केंद्र परिवार होता है। परिवारिक संरचनाओं में पिता सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। उनकी इच्छा सर्वोपरि होती है। पारिवारिक ढांचे में सभी पुरुष महिलाओं से दर्जे में ऊपर होते हैं। पत्नी पति से, बहन भाई से कमतर आंकी जाती है। उनके रहन- सहन, विचार-व्यवहार में ये भेदभाव जन्म से डाले जाते हैं। लड़कियों को जन्म से बताया जाता है कि वे ‘पराया धन’ हैं यानी परिवार के किसी भी संसाधन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। उन्हें घर की इज़्ज़त कहकर चारदीवारी के भीतर रखा जाता है, जिसके कारण उनके पास न सामाजिक पूंजी होती है न ही बाहरी समाज में हस्तक्षेप कर सकने का कोई और माध्यम। उन्हें हमेशा यह कहा जाता है कि यह सब उनके भले के लिए है। इस तरह, लड़कियों को अपने भले के लिए सोचने का ‘अवसर’ और उनके ‘चयन’ को महत्व नहीं दिया जाता।
पिछले दो सौ सालों से महिलाओं के संघर्ष से सरकारी नीतियों में कुछ बुनियादी बदलाव आए तो हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्र अभी भी अपनी पारंपरिक रूढ़ियों के साथ आगे बढ़ रहा है। पितृसत्ता समाज के सभी ढांचे का एक अभिन्न अंग बन चुकी है, जहां नारीवाद अब तक पहुंच नहीं पाया। उदाहरण के तौर पर हम महिलाओं के लिए स्कूलों में शिक्षा का स्तर और शिक्षकों के व्यवहार को देख सकते हैं। अधिकतर शिक्षक पितृसत्तात्मक व्यवस्था से ही निकल रहे होते हैं इसलिए वे इस पितृसत्तात्मक ढांचे के ख़िलाफ़ किसी भी कदम को स्वीकार नहीं करते। कई स्कूलों में आज भी लड़के और लड़की में असमानता को जायज़ ठहराया जाता है।
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ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में महिलाएं घरेलू काम काज में जुटी होती हैं। उनका अपना कोई जीवन और अपने लिए कोई समय नहीं होता। विवाह के बाद बच्चे पैदा करने की इच्छा भी उनपर थोप दी जाती है। राजनीतिक क्षेत्र में उन्हें एक वोट डालने का अधिकार तो है लेकिन वह वोट किसको डालना है,यह वे तय नहीं कर सकती। पढ़ी- लिखी महिलाओं के लिए कुछ ख़ास तरह के ‘महिला लायक’ पेशे शिक्षिका और नर्स इत्यादि जैसे पारंपरिक पेशे से इतर जाने पर उन्हें अधिक मर्दों के साथ उठने-बैठने जैसी आशंकाओं के कारण रोक दिया जाता है।
भारत हमेशा से स्त्री को या तो देवी मानता है या उसे वेश्या कहकर नकार देना चाहता है। यहां स्त्री को सहजता से स्त्री मानकर जीने देने की प्रक्रिया विकसित नहीं हुई है।
शादी की पितृसत्तात्मक व्यवस्था
आज भी ग्राउंड जीरो नारीवाद के उन तमाम लक्ष्यों और उद्देश्यों से बहुत दूर है ,जिनके लिए महिलाएं और बुद्धजीवी लगातार प्रयास कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की के पैदा होने के बाद से ही उसके ब्याह की तैयारी होने लगती है। उसके साथ होने वाला हर व्यवहार उसे शादी के बाद के जीवन के लिए तैयार करने के उद्देश्य से किया जाता है। आज भी समाज में पिता के बाद पति को देवता मानने की प्रथा प्रचलित है। विवाह संस्थान की तमाम प्रथाएं अपने स्वरूप में महिला विरोधी और उसके अवसरों को सीमित करने वाली होती हैं। शादी के बाद पुरुष को अपनी पत्नी से किसी भी तरह व्यवहार करने का अधिकार मिल जाता है। वह पत्नी की इच्छा के बगैर यौन संबंध बना सकता है। जब चाहे तब मार सकता है। समाज में यह सब सामान्य माना जाता है।
ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा और नारीवाद की पहुंच न होने से व हरेक जगह सीमित की गयी स्त्री इतनी स्वतंत्र व मुक्त व वैचारिकी के स्तर पर इतनी सशक्त नहीं होती कि वह खुलकर विरोध करे या अगर करती भी है तो वह वल्नरेबल हो जाती है और उसे मायके से भी सहायता नहीं मिलती और आर्थिक स्वतंन्त्रता न होने से वह इस शोषण से जूझने को बाध्य होती है। फेमिनिज़्म और उसकी बहसें एकेडमिक जगत व विश्वविद्यालयों में तो आकार ले रही हैं लेकिन असल जीवन में ये विचार महिलाओं तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। आज के आधुनिक युग में भी महिलाएं मैरिटल रेप और घरेलू हिंसा से अब भी जूझ रही हैं। पुरुष के लिए वे फ्रस्टेशन निकालने का माध्यम है, जिसे वह बेड पर लिटा कर निकाल सकता है या मार-पीट कर। पुरुष शादी के बाद जितने चाहे संबंध रख सकता है, लेकिन स्त्री अगर पुरुष का विरोध भी कर दे तो उसे वेश्या का तमगा दे दिया जाता है।
भारत हमेशा से स्त्री को या तो देवी मानता है या उसे वेश्या कहकर नकार देना चाहता है। यहां स्त्री को सहजता से स्त्री मानकर जीने देने की प्रक्रिया विकसित नहीं हुई है। यहां महिलाओं के लिए पुरूषों ने दायरे बना दिए हैं, जबकि वे खुद स्वतंत्र हैं। समाज में स्त्री का अस्तित्व उसकी हर प्रतिक्रिया से हाशिए पर चला जाता है। यह आज की बड़ी विडंबना है कि जब महिलाएं हर क्षेत्र में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। उनमें से कुछ सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर पिछड़ी हैं और वो सब कुछ सहने के लिए बाध्य हैं जिसके ख़िलाफ़ उनकी सहयात्रियों ने लंबे संघर्ष किए हैं। नारीवाद की चेतना को ग्राउंड ज़ीरो तक ले जाने की जिम्मेदारी सभी पढ़ी-लिखी महिलाओं की है। इसके लिए अधिक से अधिक महिलाओं के संगठन बनाए जाने चाहिए और ऐसे अवसर दिए जाने चाहिए जहां आकर वे सशक्त हो सकें और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें।
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तस्वीर साभार : thestatesman