इन दिनों नेटफ्लिक्स का एक शो ‘इंडियन मैचमैकिंग’ काफी चर्चा में है। इस शो के ज़रिए भारत की पेशेवर मैचमैकेर ‘सीमा तापड़िया’ भी काफी चर्चा में है। सीमा युवाओं और उनके परिवाओं की मदद करती है उनके लिए ‘परफेक्ट’ जीवनसाथी ढूंढ़ने में। भारत में होने वाले अरेंज्ड मैरेज की सच्चाई दिखाते इस शो की काफी आलोचना भी हो रही है। एक वजह यह है कि अरेंज्ड मैरेज की इस व्यवस्था में लड़कियों को एक ‘वस्तु’ की तरह दिखाया गया है।
अरेंज्ड मैरेज में लड़का और लड़की के परिवार वाले उनके लिए एक उचित जीवनसाथी ढूंढ़ते है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि मां- बाप ही बच्चों के लिए बेहतर जीवनसाथी चुन सकते हैं। अरेंज्ड मैरेज का ये सिस्टम इस बात को समझने को तैयार ही नहीं है कि शादी किसी भी इंसान का एक निजी फैसला होता है। यह समझने की जगह हमारे परिवार और समाज के बड़े, इस मुद्दे पर इस तरीके से दखल करते हैं जैसे कि शादी उनकी हो रही है। इस पूरी प्रक्रिया में वे ये खुद को हमारा शुभ-चिंतक बताते हैं। ये शुभ चिंतक कहां होते हैं जब हम 11वीं में विषय को लेकर फैसला नहीं कर पाते? ये शुभ चिंतक कहां होते हैं जब हम अपने करियर को लेकर परेशान होते हैं? ये शुभ चिंतक कहां होते हैं जब हम समझ नहीं पाते कि हमें हमारे पैसे को कैसे और कहां निवेश करना है? ये शुभ चिंतक कहां होते है जब ऑफिस पॉलिटिक्स की वजह से हम परेशान होते हैं? आखिर ‘शादी’ ऐसी क्या बात है जो ये शुभ चिंतक एकाएक जाग जाते हैं?
यहां यह समझना जरूरी है कि अरेंज्ड मैरेज कि प्रथा हमारे समाज में न जाने कब से चली आ रही हैं। शादी अक्सर लड़का, लड़की की सामाजिक और आर्थिक हैसियत देखकर की जाती है। जबकि शादी के रिश्ते में हैसियत से ज्यादा ये मायने रखता है कि दो लोगों के बीच में प्यार है या नहीं, कम्पेटिबिलिटी है या नहीं, ऐसे में अरेंज्ड मैरिज का सिस्टम आज के दौर में कितना प्रासंगिक है?
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पितृसत्तात्मक है ‘परफेक्ट मैरेज मटीरियल’
अरेंज्ड मैरेज के तहत जब जीवनसाथी चुनने की प्रक्रिया शुरू होती है, तो दोनों पक्षों की तरफ़ से अपने-अपने मापदंड बताए जाते हैं। आमतौर पर लड़कियों के लिए निम्ननलिखित मापदंड तय किए जाते हैं :
- सुन्दर होनी चाहिए
- गोरी होनी चाहिए
- ‘पवित्र’ (वर्जिन) होनी चाहिए
- लम्बी और पतली होनी चाहिए
- अच्छे खानदान, एक ही जाति से होनी चाहिए
- परिवार में एडजस्ट करने वाली होनी चाहिए
- घर की, परिवार की, पति की जिम्मेदारियां लेने वाली होनी चाहिए
- उससे खाना बनाना आना चाहिए, साफ़ सफाई के काम आने चाहिए
- ज्यादा महत्वाकांक्षी/ ज्यादा ऊँचे सपने देखने वाली नहीं होनी चाहिए, वगैरह-वगैरह।
अरेंज्ड मैरेज के सिस्टम को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि खाने और सफाई के अलावा महिला में और भी कोई प्रतिभाएं, योग्यताएं और क्षमताएं हो सकती है।
जो लड़कियां इन मापदंडों पर खरी उतरती हैं, उन्हें परफेक्ट ‘मैरेज मटीरियल’ का टैग दे दिया जाता है। समाज की रूढ़िवादी मानसिकता की माने तो ऐसी लड़कियों के लिए सही जीवनसाथी ढूंढ़ने में ज्यादा कोई परेशानी नहीं होती बल्कि उनके लिए लड़का ढूंढ़ना बहुत आसान होता है। समस्या तो उन लड़कियों के लिए होती है जो इस ‘परफेक्ट मैरेज मटीरियल’ की परिभाषा में फिट नहीं बैठती। समस्या उन लड़कियों के लिए होती है जो हर बात पर समझौता नहीं करती। समस्या उन लड़कियों के लिए होती है जो एडजस्ट नहीं करना चाहती। समस्या उन लड़कियों के लिए होती है जो बहुत महत्वाकांक्षी होती है। समस्या उन लड़कियों के लिए होती है जिनके शब्दकोष में ‘त्याग’ शब्द नहीं होता, जिन्हें घर के काम में रूचि नहीं होती, जिनके बहुत सारे पुरुष मित्र होते है। समस्या उन लड़कियों के लिए होती है जो काली होती है, मोटी होती है, बहुत खूबसूरत नहीं होती।
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‘परफेक्ट मैरेज मटीरियल’ की इस परिभाषा का अनुसरण करने वालों को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लड़की की इच्छा क्या है, वो क्या करना चाहती है, क्या वो शादी के बाद सिर्फ पति और बच्चों के लिए ही अपनी जिंदगी बिताना चाहती है। इन सारे सवालों से अरेंज्ड मैरेज का कोई लेना-देना नहीं है। अरेंज्ड मैरेज के सिस्टम को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि खाने और सफाई के अलावा महिला में और भी कोई प्रतिभाएं, योग्यताएं और क्षमताएं हो सकती है।वह तो औरत को सिर्फ सबकी चिंता करने वाली, सबका ध्यान रखने वाली, बच्चे पैदा करने वाली, घर का काम करने वाली ‘एक वस्तु’ के रूप में देखता है।
इसीलिए अरेंज्ड मैरेज के इस खांचे में महिलाओं को जिस तरीके से देखा जाता है हमें उससे बदलने की सख्त जरुरत है। हमें यह समझना होगा कि परफेक्ट मैरेज मटीरियल नामक कुछ नहीं होता। ‘सुन्दर, सुशील और संस्कारी’, लड़की का रंग कैसा है, लड़की कितनी ‘फ्लेक्सिबल’ है, लड़की में ‘समझौते’ करने की कितनी क्षमता है ये सवाल मायने नहीं रखते। हमें ‘सुन्दर, सुशील और संस्कारी’ जैसे मापदंडो को भी अपने शब्दकोष से बाहर निकलना होगा। तभी अरेंज्ड मैरेज का ये सिस्टम पितृसत्तातमक विचारधारा से खुद को अलग कर पाएगा।
अरेंज्ड मैरेज के इस पूरे सिस्टम में इस पर बहुत ज़ोर दिया जाता है कि क्या लड़की परिवार में तालमेल बिठा पाएगी? यहां एक बहुत बड़ा सवाल यह है कि जब एक नया सदस्य परिवार में आता है तो ‘एडजस्ट’ करने की सारी जिम्मेदारी सिर्फ उसकी ही क्यों होती है? क्यों कभी हम यह नहीं पूछते कि क्या लड़का भी एडजस्ट कर पाएगा, क्या लड़का ‘फ्लेक्सिबल’ है? अगर कोई लड़का बहुत पढ़ा-लिखा हो, गुणी हो, महत्वाकांक्षी हो, तो ये कभी भी नहीं सोचा जाता कि उसकी होने वाली पत्नी भी उतनी ही पढ़ी-लिखी हो, उतनी हो महत्वाकांक्षी हो, उतनी ही कमाऊ हो। ऐसा इसलिए क्योंकि अरेंज्ड मैरेज के इस सिस्टम में यही माना जाता है कि लड़कियों की मुख्य ज़िम्मेदारी घर और परिवार है। अगर कोई लड़की इस ज़िम्मेदारी को निभाने में सक्षम प्रतीत होती है तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि वो कितनी पढ़ी लिखी है या कितना कमाती है।
वहीं, दूसरी और अगर कोई लड़की बहुत पढ़ी लिखी हो, अच्छा कमाती हो, ऊंचे ख़्वाब देखती हो, तो हम सबको ख़ुशी कम, चिंता ज्यादा होती है। चिंता कि उसकी शादी कैसे होगी? चिंता कि उसके बराबर का लड़का कैसे मिलेगा? लड़कों के लिए थोड़ी कम बराबर लड़की चलती है, लेकिन लड़कियों के लिए बराबर लड़का ही क्यों चाहिए? हमें ज़रूरत है अरेंज्ड मैरेज के इस सिस्टम में बदलाव लाने की। पितृसत्ता से ग्रसित इसकी जड़ों और डालियों को काटना ही होगा। महिलाओं को एक वस्तु नहीं बल्कि एक इंसान के तौर पर देखना शुरू करना ही होगा।
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