बसंती : फ़ुरसत में औरतें एक फोटो-प्रोजेक्ट है जिसका उद्देश्य महिलाओं और लड़कियों को फ़ुरसत के पलों में कैद करना है, जो कुछ पलों के लिए ही सही पर किसी भी तरह की रोक-टोक, प्रतिबंधों से आज़ाद हो। एक मंदिर में भगवान के जन्म के मौके पर साथ में नाचती-गाती महिलाएं, जंगलों के बीच अकेले वक्त गुज़ारती कोई महिला, अपने साथी के साथ कुछ प्यार-भरे लम्हें बिताने के लिए बाहर निकली एक लड़की, लड़कियों का एक समूह जो किसी नई कहानी या खेल को बुनने में व्यस्त है, ऐसा हर एक पल महिलाओं के लिए फ़ुरसत का पल होता है, जहां उन्हें किसी के हुक्म की तामील नहीं करनी पड़ती।
अपनी मां के गुज़र जाने के चार सालों बाद मैंने यह प्रॉजेक्ट साल 2018 में शुरू किया था। इस प्रॉजेक्ट को शुरू करने की प्रेरणा मुझे पड़ोस में रहने वाली अपनी मां की दोस्त से हुई बातचीत के दौरान मिली। मुझे याद है उन्होंने कहा था, ‘तुम्हारी मम्मी मस्ती-मज़ाक करने में सबसे आगे थी हमारे ग्रुप में।’ मेरे पास अपनी मां के व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए कई शब्द हैं लेकिन ‘मस्ती’ एक ऐसा शब्द है जो मेरी लिस्ट में कभी रहा नहीं। सच यह है कि मेरे पिता मेरे घर में सबसे मज़ाकिया शख्स हैं लेकिन मेरी मां उनके चुटकुलों पर बहुत कम हंसा करती थी। ऐसा नहीं था क्योंकि मां को हंसी-मज़ाक पसंद नहीं था बल्कि ऐसा इसलिए होता था क्योंकि पापा का मज़ाक कभी-कभी उनके ऊपर ही केंद्रित हुआ करता था।
हमारी पड़ोसी गांगले आंटी ने मेरी मां से जुड़ी कई कहानियां मुझे सुनाई हैं। मेरी मां होली मिलन समारोह में सबके सामने नाटक के किरदार बनकर मस्ती किया करती थी। दूसरों को भी खींच-खींचकर नाच-गाने में शामिल किया करती थी। उन्होंने यह भी बताया कि हर शाम वह जब भी मिलती थी तो हंसी-मज़ाक करके सबकी दिनभर की थकान मिटा देती थी।
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आंटी की बातें मुझे याद दिलाती हैं कि मैंने कभी अपनी मां को एक व्यक्ति के रूप में जाना ही नहीं। इसके पीछे एक बड़ी वजह ये भी थी कि उन्होंने मेरे लिए ऐसी ज़िंदगी बनाई जहां मैं उनके मुकाबले कहीं अधिक आज़ाद थी। मेरी मां एक गांव में पली-बढ़ी थी और उन्हें आठवीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखने की इजाज़त नहीं दी गई। फिर भी वह अपनी बहनों में सबसे अधिक-पढ़ी लिखी थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई एक अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में हुई, जिसके बाद मैंने आईआईटी में दाखिला लिया और विदेश भी गई। मैं जितनी ज़्यादा पढ़ती-लिखती गई मैं उनसे शारीरिक और बौद्धिक रूप से उतना ही दूर होती गई। उनकी हकीकत मेरी महत्वकांक्षाओं का हिस्सा नहीं थी।
इसकी एक वजह जिस तरीके से मेरी परवरिश की गई वह भी है। मेरे पिता बाहर काम करते थे, उनके काम का महत्व था और इज्ज़त थी। मां घर का काम करती थी और उन्हें कभी वह अहमियत नहीं मिली। यह वही वजह है जो हमारे ध्यान और यादों से महिलाओं की पहचान को मिटा देता है। चूंकि उनकी मेहनत मुझे कीमती नहीं लगती थी, मुझे उनके फ़ुरसत के पल कभी दिखाई नहीं दिए, मेरे लिए वे पल कभी मौजूद ही नहीं थे।
महिलाओं को उनके फ़ुरसत के पलों में कैद करने का यह प्रोजेक्ट मेरी मां की गैरमौजूदगी की एक प्रतिक्रिया के रूप में शुरू हुई। न सिर्फ उनकी मौत बल्कि वह हर चीज़ जिस पर मैंने ध्यान नहीं दिया जब वह हमारे बीच थी। मैंने अपनी बहन की ज़िंदगी को डॉक्यूमेंट करना शुरू किया। मैं सिर्फ देखना नहीं चाहती थी बल्कि उसके फ़ुरसत के पलों को अपनी ध्यान और भाषा का हिस्सा बनाना चाहती थी।
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मैं देखना चाहती थी कि किस तरह वह एक प्राइमरी स्कूल टीचर, दो बच्चों की मां, बड़े सपनों और सीमित अवसरों के बीच वह अपने लिए वक्त निकालती है। इसके बाद जहां-जहां मैं जाती रही मैंने ध्यान देना शुरू कर दिया कि मेरे आसपास की औरतें और लड़कियां किस तरह अपना वक्त बिताती हैं। मैं जानती हूं कि वक्त अब एक नारीवादी मुद्दा है, और फ़ुरसत भी। जिन्हें अपने लिए वक्त गुज़ारने का वक्त मिलता है वह एक विशेषाधिकार ही है, जिनके वक्त को आर्थिक और सामाजिक तौर पर कीमती समझा जाता है। उत्पीड़न एक भारी शब्द है। जब हम अत्याचार की बात करते हैं तो यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह हमेशा एक बड़ी बर्बादी के रूप में हमें नहीं दिखता। रोज़मर्रा की जिंदगी में यह छोटी-छोटी बुनियादी चीज़ें छीनकर अपना ज़ोर चलाता है मसलन कैसे बात करनी है, कैसे खाना है, पहनना है, खेलना है, प्यार करना है आदि। अगर अत्याचार बुनियादी चीज़ों पर नियंत्रण करता है तो फ़ुरसत उसकी गैर-मौजूदगी के मायने बताता है
जब भी कोई औरत या लड़की हंसती है, कुछ गढ़ती है और अपने आप को पूरी तरह जीती है तो वह इस दुनिया को और अनोखा बनाती है, और मुझे इस बात से भी अवगत कराती है कि मेरी मां एक लड़की के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में कैसी होती अगर मैं उन पर ध्यान दे रही होती तो।
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एक लड़की के भाई ने आखिरकार उसे टूवीलर घर के बाहर ले जाने की इजाज़त दी। पड़ोस की लड़कियां टूवीलर चलाना सीखने में उसकी मदद कर रही हैं, जबकि उनमें से किसी को भी ड्राइविंग नहीं आती।
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अल्का के बालों में मेहंदी लगाती पूजा
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तेरहवीं, वह मृत्यु भोज है तो किसी की मौत के बाद आयोजित होती है।
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अपने दोस्तों के साथ चेस खेलती ज़ेबा
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स्नेहा की नई-नई शादी हुई है और वह शहर की एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर के पद पर काम करती हैं। अपने गांव में वह दूसरी महिलाओं के साथ इंतज़ार कर रही हैं
और महिलाएं के आने का ताकि वे स्नेहा के गांव आने का साथ मिलकर जश्न मनाएं।
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सुरभि यादव ‘साझे सपने’ नाम की संस्था की संस्थापक हैं, वह एक नवोदित सामाजिक उद्यमी हैं जो गांवों में लड़कियों को उनके करियर से संबंधित आकांक्षों को पूरा करने में मदद करती हैं।आप उनसे इंस्टाग्राम और मीडियम जुड़ सकते हैं
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