संस्कृतिसिनेमा मसाबा-मसाबा : महिलाओं की दोस्ती की कहानी कहती एक सीरीज़

मसाबा-मसाबा : महिलाओं की दोस्ती की कहानी कहती एक सीरीज़

मसाबा-मसाबा उस स्थापित पितृसत्तात्मक धारणा को भी ध्वस्त करती है जिसके मुताबिक महिलाएं कभी अच्छी दोस्त नहीं होतीय़

नेटफ्लिक्स पर प्रसारित मसाबा-मसाबा एक सेमी-फिक्शनल सीरीज़ है, जो बॉलीवुड अभिनेत्री नीना गुप्ता और उनकी बेटी मसाबा गुप्ता के असल जीवन के संघर्षों पर आधारित है। यह सीरीज़ मसाबा गुप्ता और नीना गुप्ता के निजी जीवन की समस्याओं को दर्शाता है। कहानी का केंद्र है तीस साल की मशहूर फैशन डिज़ाइनर मसाबा गुप्ता, जो अपने तलाक के बाद समाज में अपने आप को एक स्वतंत्र महिला के रूप में रहने और काम करने की कोशिश में जुटी है। वहीं, नीना गुप्ता 60 साल की उम्र में फिल्मों में काम ढूढ़ने की चुनौती से जूझती हैं। उससे ज़्यादा यह सीरीज़ महिलाओं के आपसी सहयोग के बारे में है। एक दूसरे के सहयोग और विश्वास के बूते ही वे टूटकर भी बिखरती नहीं हैं, उठ पड़ती हैं और अपनी-अपनी भूमिकाओं में छा जाती हैं।

मसाबा-मसाबा की सबसे बेहतरीन बात यह है कि इसमें महिलाएं ही महिलाओं की कहानियां कह रही हैं। डायरेक्टर सोनम नैयर, जो कि पुण्य अरोरा, नंदिनी गुप्ता और अनुपम रामचंद्रन के साथ इस सीरीज़ की लेखिका भी हैं, उन्होंने बड़ी सहजता से मां-बेटी के संबंध को दिखाया है। आज के दौर में जब सिनेमा और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लैटफॉर्म का कंटेंट ‘मेल गेज़’ से प्रभावित है। ऐसे में इस तरह की सीरीज़ और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। पारंपरिक तौर पर कंटेंट के लेखक से लेकर डायरेक्टर और अन्य तकनीकी प्रक्रियाओं का नियंत्रण पुरुषों के पास होता है। फिल्मों, वेबसीरीज़ की कहानियों में पुरुष का पक्ष होता है, महिला का नहीं। महिलाओं का किरदार केवल ‘ग्लैमरस’ होता है। या एक ऐसा किरदार जो पुरुष की वासना संतुष्ट करती है या जब वह दुखी होता है, तब उसके लिए मौजूद रहती है। उन कहानियों में पुरुष से हटकर उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। मसाबा-मसाबा इस प्रचलन को तोड़ती है और स्थापित करती है कि पुरूष से इतर महिला का भी एक स्वतंत्र अस्तित्व है। एक स्त्री के जीवन में हमेशा पुरुष की आवश्यकता नहीं होती। स्त्री अपने आप में पूर्ण है।

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मसाबा-मसाबा का बैकग्राउंड जो फ़िल्मों और डिज़ाइनिंग की दुनिया को दर्शाता है, उसमें नैयर कमोबेश सफ़ल भी हुई हैं। सेलिब्रिटी जीवन की चकाचौंध और भीतर के घुप्प अंधेरे की सच्चाई इस सीरीज़ के ज़रिए दर्शकों तक पहुंचती है। कैमरे और लाइट के सामने की बनावटी हंसी और आलिंगन की आड़ में भीतर छिपा दुख और परेशानी सेलिब्रिटीज़ को अवसाद की ओर धकेलते हैं। हर चीज़ पर उन्हें प्रतिक्रिया देनी होती है, जिससे उनका निजी जीवन और निजता खत्म हो जाती है। ग्लैमर की दुनिया में काम को लेकर होड़ और दिखावापन साफ़ दिखता है लेकिन मसाबा-मसाबा में मां और बेटी दोनों एक दूसरे के हौसले को टूटने नहीं देती।

मसाबा के लिए उसकी मां ही उसकी आदर्श हैं, जिन्होंने आज से अधिक रूढ़िवादी दौर में एक बेटी को पाला और अपना करियर संभाला। वहीं, नीना के अनुसार मसाबा (यानी हर औरत) मज़बूत होती है। समाज के इतने थपेड़े खाकर भी औरतें संघर्ष नहीं छोड़ती, उनकी यह जिजीविषा उन्हें साहसी सिद्ध करती है। सीरीज़ में फैशन की दुनिया में समलैंगिक संबंधों को भी दर्शाया गया है। कई बार लोग इसे ‘क्लीशेड डिस्क्रिप्शन’ मान लेते हैं, हालांकि उससे ज़्यादा यह फ़ैशन और सिनेमाई दुनिया में लिंग को लेकर रूढ़िवादी धारणाओं का टूटना दर्शाता है। साथ ही यह एक प्रयास है, जो बड़े दर्शक वर्ग तक समलैंगिक संबंधों की सहजता प्रसारित करेगा।

मसाबा-मसाबा उस स्थापित पितृसत्तात्मक धारणा को भी ध्वस्त करती है, जो यह दर्शाती है कि महिलाएं कभी अच्छी दोस्त नहीं होती और हमेशा एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही होती हैं।

मसाबा गुप्ता, वेस्टइंडीज के पूर्व क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स और नीना गुप्ता की बेटी हैं। विवियन, जो पहले से ही शादीशुदा थे, भारत दौरे पर उनकी नीना गुप्ता से नज़दीकियां बढ़ीं। नीना गुप्ता ने विवियन रिचर्ड्स से शादी नहीं की और मसाबा को अकेले पालने की ज़िम्मेदारी उठाई। यह 1989 की बात है। वहीं, मसाबा गुप्ता का अपना फैशन ब्रांड है, जो हाउस ऑफ मसाबा के नाम से जाना जाता है। वह भारत की दस प्रसिद्ध फैशन डिज़ाइनर्स में से एक हैं। अपना फैशन शो ख़राब होने पर वह पहली डिज़ाइनर हैं, जिन्होंने इंस्टाग्राम पर अपना कलेक्शन ‘हॉट मेस’ रीलीज़ किया था। तलाक़ के बाद अपना घर ‘अपना स्पेस’ तलाशने का उनका संघर्ष आम औरत की ज़िन्दगी का संघर्ष है, जिससे मेट्रो शहर में हम और आप अक़्सर ही गुज़रते हैं। समाज महिलाओं को हर कदम पर ‘सेंसर’ करता है।

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यह सीरीज़, नीना और मसाबा गुप्ता के जीवन की झलकियों से गुज़रती है, जिसमें अलग-अलग स्तर पर कई सारे किरदार आते हैं। नीना और मसाबा दोनों ही स्वतंत्र महिलाएं हैं, जो मुंबई में अपना-अपना काम कर रही हैं। दोनों की सहेलियां हैं, जो उनके साथ खड़ी हैं- उनके दुख में सहयोग के लिए, सुख में सेलिब्रेट करने के लिए। नीना और मसाबा खुद एक दूसरे का काम सेलिब्रेट करती हैं। एक दूसरे की तरक्की पर जश्न मनाती हैं। कहीं न कहीं इस माध्यम से मसाबा-मसाबा उस स्थापित पितृसत्तात्मक धारणा को भी ध्वस्त करती है, जो यह दर्शाती है कि महिलाएं कभी अच्छी दोस्त नहीं होती और हमेशा एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही होती हैं। यहां ग्लोरिया स्टेनिम का कथन बरबस याद आता है कि ‘अ वुमन नीड्स हर सिस्टरहुड।’

एक्टिंग के लिहाज़ से नीना गुप्ता हमेशा की तरह बेहतरीन रही हैं। फ़ैशन डिज़ाइनिंग के बाद पहली बार एक्टिंग में अपना हाथ आज़मा रहीं मसाबा गुप्ता भी सफ़ल होती दिखती हैं। मसाबा की दोस्त के रूप में रायतशा राठौर ‘ज़ीरो फ़िगर’ वाली भारतीय सिनेमाई सौंदर्य के पर्याय को ख़ारिज करती हैं। छोटी भूमिकाओं में गजराज राव, मालविका मोहनन, मिथिला पालकर इत्यादि भी जंचे हैं।

सीरीज़ का एक गाना- ‘आंटी किसको बोला बे’ उम्रदराज़ महिलाओं के ऑब्जेक्टिफिकेशन पर एक हमला है। कुछ समय पहले यूट्यूब पर एक गाना वायरल हुआ था- ‘बोल न आंटी आऊं क्या’, जिसे किसी भी आती-जाती लड़की पर छींटाकशी कर हुए लड़के पित्तसत्ता का परिचय देते नज़र आए। असल में, कोई भी शब्द अपने साथ सांस्कृतिक अर्थ लिए होता है। पितृसत्तात्मक समाज में ‘आंटी’ एक ऐसा प्रतीक चिह्न है, जो उन महिलाओं पर केंद्रित है, जिनकी शरीर भारी हो जाता है। मूलत यह शब्द महिलाओं की सेक्सुअलिटी पर पितृसत्तात्मक टिप्पणी है। कुल मिलाकर, मसाबा-मसाबा पुरुष केंद्रित समाज में महिलाओं द्वारा महिलाओं की कहानी कहने का सफ़ल प्रयास है। यह सीरीज़ महिलाओं की सशक्तता और स्वतंत्रता, चयन और उनके अस्तित्व जैसे महत्वपूर्ण मसलों को केंद्र में रखकर विमर्श का विषय बनने का अवसर देती है।

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तस्वीर साभार : netflix

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