‘आपके घर की आर्थिक हालात ठीक नहीं। लड़की की जल्दी शादी करके हटा दीजिए।’
‘काफ़ी उम्र हो गई है, कभी भी आंख बंद हो सकती है। लड़की की जल्दी शादी कर दो।’
‘भाई आवारा है। इसलिए जल्दी से लड़की की शादी कर दीजिए।’
‘घर में बहु लाने से पहले बेटी का ब्याह कर दीजिए।’
‘इतनी बेटियां है, जल्दी से शादी करके हटाइए।’
‘ज़माना ठीक नहीं। जल्दी से बेटी की शादी कर दीजिए।’
मतलब दुनिया की कोई भी आफ़त हो, ग़रीबी हो, बुढ़ापा हो, घर के पुरुष आवारा हो, वग़ैरह-वग़ैरह। इन सभी समस्याओं का हल लोगों को सिर्फ़ लड़की की शादी ही क्यों नज़र आता है ? ये सोचने-समझने और इसकी तह खोलने की ज़रूरत है। भारतीय समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे में ‘लोग क्या कहेंगें’ और ‘इज़्ज़त’ के नाम पर लड़कियों के साथ लैंगिक भेदभाव को बखूबी क़ायम रखा जाता है। एक समय के बाद लड़की को एक समस्या और शादी को इस समस्या का हल दिखाना भी पितृसत्ता की ही राजनीति है।
ऐसे में कोरोना महामारी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की जल्दी शादी करने का प्रचलन ज़ोरों पर है। आर्थिक रूप से कमजोर तबका कोरोना महामारी में मानो अपनी अंतिम सांसें गिनने को मजबूर है। ऐसे में लड़कियों की जल्दी शादी करना उन्हें एकमात्र हल समझ में आ रहा है। नतीजतन गांव में जल्द-जल्दी में लड़कियों की शादी तय करने का चलन बढ़ गया है। इसकी ढेरों वजहें बतायी जा सकती है, जिनके कुछ उदाहरण मैंने शुरुआत में ही दिए। लेकिन इन सबमें हमें ये समझने की ज़रूरत है कि ‘शादी’ को हल नहीं है। बाक़ी सत्ता क़ायम रखने की राजनीति के कई हवाले हो सकते है।
कोरोना महामारी में लड़कियां जैसे ‘एक समस्या’ और ‘शादी’ जैसे एकमात्र हल
बनारस से पच्चीस किलोमीटर दूर बसे दशरथपुर गांव की मीरा (बदला हुआ नाम) की उम्र उन्नीस साल है। इस साल उसे बारहवीं की परीक्षा देनी थी, लेकिन कोरोना महामारी की मार परिवार पर इस कदर लगी कि आठ बच्चों में सबसे बड़ी बहन मीरा की शादी करवा दी गई।
कहते हैं कि किसी भी आपदा, महामारी या युद्द की दोहरी मार महिलाएं झेलती है और लड़कियों की जल्दी शादी करना भी इसी का हिस्सा है। आर्थिक मंदी के दौर में गाँव लौटे प्रवासी मज़दूरों के साथ शादी तय करना लोग फ़ायदे का सौदा समझ रहे है। इसलिए बिना किसी जांच-पड़ताल बस जाति का मिलान कर शादी के मुहूर्त निकाले जा रहे है। ये शादियां कितनी सफ़ल होंगी या नहीं यह तो समाज के तथाकथित मानक और वो चार लोग ही जाने, लेकिन इस शादी का लड़कियों के मानसिक और शारीरिक विकास पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है इसपर हम बात क्या सोचना भी नहीं चाहते।
आर्थिक तंगी झेल रहा ग्रामीण तबका कोरोना महामारी में लड़कियों की जल्दी शादी करने को सभी समस्या का हल समझ रहा है।
उल्लेखनीय है कि उत्तर भारत के जिन गांव के संदर्भ में ये बात कर रही हूं वहां शराब पीकर घरेलू हिंसा करना क़रीब हर दूसरे परिवार का क़िस्सा है। कितने घरों में महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है और कितने घरों की बच्चियाँ यौन उत्पीड़न का शिकार होती है, इसके कोई आंकड़े मौजूद नहीं है, क्योंकि जब ये शिकायतें पुलिस स्टेशन के गेट तक पहुंचती है तो पुलिस अपने डंडे के साथ फटकार लगाती हुई सहने और चुप रहने की सीख देती है। समाज की जाति और अर्थ के स्तर पर निचले पायदान में रहने वाले इस तबके को कभी किसी रिपोर्ट-रिसर्च के लायक़ नहीं समझा जाता है।
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परिवार की किसी भी समस्या का हल लड़की की शादी को समझना कोई नयी बात नहीं है और ये सोच सिर्फ़ निचले तबके ही नहीं बल्कि मध्यमवर्गीय परिवारों में भी ख़ूब देखने को मिलती है। पर इसका ये मतलब क़तई नहीं कि ये सामान्य है। अब परिवार की समस्या किसी से भी संबंधित हो लड़की की शादी करके परिवार खुद को हल्का महसूस करवाने का भ्रम पालते है और जीवनभर अपनी उसी समस्या से जूझते रहते है।
ऐसे में जब हम एकतरफ ये कहते है कि ‘हम तो लड़का-लड़की में कोई भेदभाव नहीं करते’ तो हमें कभी किसी भी परिस्थिति में लड़की बोझ या उसकी शादी किसी समस्या का हल नहीं नज़र आना चाहिए। पर अगर हमें ये नज़र आ रहा है तो इसका मतलब है कि लैंगिक समानता वाले हमारे वो प्रोग्रेसिव दिखने वाले विचार भी खोखले हैं जिन्हें अभी अपनी पक्की समझ से भरने की ज़रूरत है। क्योंकि शादी की संस्था महिला-पुरुष दोनों के ही शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन, विकास और अवसर से जुड़कर उन्हें प्रभावित करता है।
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