समाजपर्यावरण अमीर वर्ग की 1 फ़ीसद आबादी 50 फ़ीसद कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार: रिपोर्ट

अमीर वर्ग की 1 फ़ीसद आबादी 50 फ़ीसद कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार: रिपोर्ट

ऑक्सफैम के मुताबिक दुनिया के सबसे अमीर एक फीसद लोग जितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, जो गरीब आबादी के किए गए कार्बन उत्सर्जन से लगभग दोगुना है।

दुनियाभर में प्रदूषण एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है, विकास की होड़ में औद्योगीकरण और मशीनीकरण को बढ़ावा दिया जाना इसकी प्रमुख वजहों में शामिल है। वैसे तो जब भी वैश्विक स्तर पर पर्यावरण से संबंधित बैठकों का आयोजन होता है तो उसमें विकसित देश अक्सर इसके लिए विकाशसील देशों पर दोष मढ़ते नज़र आते हैं वहीं, विकाशसील देश कहते हैं कि इसके लिए विकसित देश अधिक जिम्मेदार हैं। इन सभी आरोप-प्रत्यारोपों को अलग रखकर हाल ही में आई एक रिपोर्ट पर गौर करें तो इसमें जो खुलासा हुआ है वह प्रदूषण के लिए अमीर तबके को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है। दरअसल, ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसद लोग जितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, वह पूरी दुनिया की आधी गरीब आबादी द्वारा किए गए कार्बन उत्सर्जन से लगभग दोगुना है। इन परिणामों को दिखाते हुए इस अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था ने ऐसे अमीर तबके पर कार्बन उत्सर्जन से संबंधित प्रतिबंध लगाने की मांग की है। इसी के साथ दुनिया में जलवायु परिवर्तन के मामले में सबकी भागीदारी तय करने और इसकी न्यायोचित व्यवस्था स्थापित करने के लिए सार्वजनिक ढांचों में निवेश बढ़ाने और अर्थव्यवस्था में सुधार करने की मांग की है।

ऑक्सफैम और स्टॉकहोम पर्यावरण संस्थान द्वारा सयुंक्त रूप से जारी की गई इस रिपोर्ट में 1990 से लेकर 2015 के बीच 25 सालों के आंकड़ों का अध्ययन किया गया है। यह वही समय है जब दुनिया का कार्बन उत्सर्जन दोगुना हो गया। रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान दुनिया के 10 फीसद सबसे अमीर लोग ही कुल वैश्विक उत्सर्जन के आधे से भी अधिक (लगभग 52 फीसद) के लिए जिम्मेदार हैं। इतना ही नहीं इसमें दुनिया के 15 फीसद उत्सर्जन को शोधकर्ताओं ने केवल टॉप एक फीसदी अमीरों की गतिविधियों से जुड़ा पाया। वहीं, दूसरी ओर गरीब देशों द्वारा किए गए दोहन की बात की जाए तो इसी 1990 से लेकर 2015 के बीच की अवधि में गरीब लोगों ने करीब 7 फीसद उत्सर्जन किया इतने कम उत्सर्जन के बावजूद इस गरीब आबादी को जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार झेलनी पड़ रही है।

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अमीरों और गरीबों के बीच कार्बन उत्सर्जन में इतना बड़ा अंतर नज़र आने का सबसे बड़ा कारण ट्रैफिक है। विशेष तौर पर हवाई यात्रा से जुड़ी व्यवस्था में परिवर्तन कर बदलाव किया जा सकता है। ऑक्सफैम ने अपनी रिपोर्ट में बड़ी लक्ज़री कारें, एसयूवी गाड़ियों की आलोचना की है। अध्ययन में पाया गया है कि 2010 से 2018 के बीच यही गाड़ियां कार्बन उत्सर्जन का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत रही हैं।

ऑक्सफैम के अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने के वैश्विक लक्ष्य को पूरा करने के लिए धनी वर्ग की 10 फ़ीसद आबादी यानी 630 मिलियन लोगों को अपने उत्सर्जन में अभी के स्तर से 10 गुना नीचे लाना होगा क्योंकि यही 10 फ़ीसद वर्ग 25 सालों में हुए 52 फीसद उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। इसके लिए उसने एसयूवी गाड़ियों और समय-समय पर हवाई यात्रा करने वालों पर अधिक कर लगाने का सुझाव दिया है।

ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसद लोग जितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं, वह पूरी दुनिया की आधी गरीब आबादी द्वारा किए गए कार्बन उत्सर्जन से लगभग दोगुना है।

एसयूवी गाड़ियों के अधिक इस्तेमाल की बात करें तो वाहन कंपनियों ने विभिन्न प्रकार के माॅडल आकर्षक फीचर के साथ बाजार में लांच किए। शुरू-शुरू में तो लोगों को एमयूवी (मल्टी यूटिलिटी व्हीकल) माॅडल पसंद आते थे, लेकिन फिर कंपनियों ने हाईवे, शहर, जंगल रोड जैसी जगहों के लिए सभी प्रकार की सड़कों पर चलने वाली आरामदायक कार बाजार में उतारी, जिसे ‘‘एसयूवी’’ सेगमेंट (स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल) नाम दिया गया। वर्तमान में ये सबसे लोकप्रिय कार बन गई हैं, लेकिन लोकप्रिय होने के साथ-साथ एसयूवी पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा भी है, क्योंकि दुनियाभर में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में एसयूवी (SUV) कार का दूसरा सबसे बड़ा योगदान है और जैसा कि ऑक्सफैम की रिपोर्ट में भी बताया गया है।

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एसयूवी (SUV) कार 1980 के दशक से ही काफी लोकप्रिय हैं, लेकिन साल 2010 के बाद से इन कारों को पसंद करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है। साल 2010 से 2018 के बीच में एसयूवी के मार्केट शेयर 17 फ़ीसद से बढ़कर 39 फ़ीसद तक हो गए थे। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2018 में दुनियाभर में एसयूवी सेगमेंट की करीब 35 मिलियन कारें बेची गई थी। तो वहीं दूसरी ओर आईईए के आंकड़ों के अनुसार अमेरिका में बिकने वाली हर दो कारों में से एक एसयूवी होती है, जबकि यूरोप में हर तीन कार में से एक, चीन में हर दस कार में से चार और भारत में दस कार में से तीन एसयूवी कार होती हैं। ये कारें बड़ी और अधिक वजनदार होती हैं, इसलिए अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती हैं।

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ऑक्सफैस की इस रिपोर्ट के सामने आने से पहले यह माना जाता था कि लोहा, स्टील, सीमेंट, एल्यूमीनियम, विमानन सहित भारी उद्योग कार्बन डाइऑक्साइड का अधिक उत्सर्जन करते हैं, लेकिन बाद के किये गए अध्ययनों में सामने आया कि बिजली को छोड़कर किसी भी ऊर्जा क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन में भारी वृद्धि नहीं हुई है, पर एसयूवी कार्बन उत्सर्जन के मामले में इन भारी उद्योग से भी आगे निकल गई है। आईईए के आंकड़ों के अनुसार ऊर्जा क्षेत्र से वर्ष 2010 से 2018 के मध्य सबसे ज्यादा 1405 मेगाटन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन हुआ। वहीं एसयूवीज़ से करीब 544 मेगाटन उत्सर्जन हुआ, जो कि यूनाइटेड किंगडम और नीदरलैंड द्वारा संयुक्त रूप से उत्सर्जित किए जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड के बिलकुल बराबर है। जबकि भारी उद्योग से 365 मेगाटन, ट्रक से 311 मेगाटन, विमानन से 233 मेगाटन, शिपिंग से 80 मेटागन और अन्य कारों से -75 मेगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ था। रिपोर्ट के मुख्य लेखक और संस्था के प्रमुख टिम गोर ने कहा कि अमीरों से अपनी मर्जी से व्यक्तिगत स्तर पर बदलाव लाने की उम्मीद करना काफी नहीं , इस तरह के बदलावों के लिए सरकारों को आगे आना होगा।

कोरोना महामारी के दौर में हवाई यात्रा में काफी कमी आई है। बिज़नेस क्लास, प्राइवेट जेट से सफर करने वाले लोग महामारी के डर से घरों में रहना ज्यादा पसंद कर रहे है। इसलिए जलवायु से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि नए और ऊंचे टैक्स लागू करने के लिए यह सबसे सही मौका होगा, इसलिए टैक्स को बढ़ाकर इन यात्राओं में कमी लाई जा सकती है। साथ ही टैक्स रुपी कमाई को गरीबों की सेवा में लगाया जाना चाहिए। इससे गरीबों के लिए बेहतर सुविधाएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य भी उपलब्ध कराइ जा सकेंगी। इन क़दमों से ही कोई देश सही मायनों में विकसित हो पाएगा। आर्थिक विकास की सीढ़ी भी तभी चढ़ी जा सकती है जब समानता और  सामाजिक विकास में उन्नति हो।

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तस्वीर साभार : DW

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