सशक्तिकरण की लड़ाई हमेशा से सत्ता में बराबर की साझेदारी की लड़ाई रही है। यही बात महिला सशक्तिकरण को लेकर भी रही है। दरअसल जब भी बात नारीवाद की होती है तो उसमें महिला और पुरुष के बीच शक्ति के समान बंटवारे की बात निहित होती है। चूंकि हम एक ऐसे लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा हैं, जहां चुनी हुई सरकार के रूप में एक ‘लोककल्याणकारी राज्य’ की कल्पना की गई है ऐसे में सरकार समय-समय पर योजनाओं और नवीन प्रणाली के ज़रिये सामाजिक परिवर्तन की पहल करती रहती है। भारत गांवों का देश है। महात्मा गांधी कहते थे कि भारत का विकास गांवों के विकास से ही संभव हो सकता है। इसलिए ही उन्होंने पंचायती राज की वकालत की थी। समाज के पितृसत्तात्मक होने के कारण महिलाओं की सामाजिक स्थिति भी काफी बेकार है। ऐसे में देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को सुधारने और सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अप्रैल 1993 को संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज एक्ट के तहत पंचायतों में 33 प्रतिशत सीट्स महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गई। अपने घर में ‘डिसीज़न मेकर’ की जिस भूमिका से महिलाएं वंचित थी। वह कमी यहां पूरी होगी और इस तरह पंचायत में प्रधान के रूप में महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य भी पूरा किया जा सकेगा।
मगर यह देखने लायक बात है कि यह योजना अपने उद्देश्य में कितनी सफल है? कहीं अन्य सरकारी योजनाओं की तरह यह भी एक कागज़ी योजना तो नहीं है। आंकड़ों की मानें तो यूनिसेफ (UNICEF) की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तरप्रदेश की 10 में से 7 महिला प्रधान अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं। केवल 2 महिलाएं यह जानती हैं कि प्रधान के रूप से उनकी क्या भूमिकाएं और जिम्मेदारियां हैं। इस प्रकार अगर देखा जाए तो संविधान द्वारा दिए गए 33 प्रतिशत आरक्षण में महज़ 3 प्रतिशत महिलाएं असलियत में प्रतिनिधित्व करती हैं। दरअसल, हकीकत यह है कि महिलाओं को मिले इस आरक्षण के बाद भी गांवों के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने की कोई भी कोशिश नहीं की गई, इसका परिणाम यह हुआ कि चुनकर आई हुईं यह महिलाएं सिर्फ कागजों पर प्रधान बनकर रह गईं।
ग्रामीण इलाकों में प्रचलित ‘प्रधान-पति’ व्यवस्था को समझना हो तो ऐमज़ॉन प्राइम पर हाल ही में प्रसारित ‘पंचायत’ इसका एक सटीक उदाहरण है। इस सीरीज़ में गांव की आधिकारिक प्रधान मंजू देवी चुनाव तो लड़ती हैं लेकिन असल में केवल उनके नाम से चुनाव लड़ा जाता है, बाकी सब कुछ उनके पति बृजभूषण दुबे देखते हैं। मंजू देवी घर के भीतर चूल्हा-चौका संभालती हैं, प्रधानी के किसी भी काम से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। ठीक यही हालत ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के लिए पंचायत में आरक्षित सीटों पर होता है। घर की किसी महिला का नामांकन कर दिया जाता है और उसके बाद पूरी कार्यप्रणाली से उसे कोई मतलब नहीं होता। घर के पुरुष ‘प्रधान’ बन जाते हैं और असली प्रधान चूल्हे में उनके लिए भोजन बनाती रहती है, अपने क्षेत्र के किसी कामकाज में उसकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं रहती। अक्सर ये महिलाएं कम पढ़ी लिखी या अनपढ़ होती हैं, ऐसे में उन्हें न कार्यप्रणाली की जानकारी होती है न ही अपने अधिकारों और भूमिकाओं की, पुरुष सामाजिक पूंजी होने के कारण उनसे अधिक सक्षम महसूस करते हुए उन्हें आसानी से प्रतिस्थापित कर देता है।
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इस स्थिति को और अच्छे से समझने के लिए मेरे गांव का उदहारण लेते हैं। यूं तो मेरे गांव की प्रधान मुर्शीदा बेग़म हैं, लेकिन गांव में उनकी हैसियत एक आम घरेलू महिला जितनी ही है प्रधान जितनी नहीं। हालात ऐसे हैं कि उनका नाम जानने के लिए मुझ प्रधानी के चुनाव के समय का पर्चा देखना पड़ा। इस पर्चे में भी बड़े अक्षरों में उनके पति का नाम ही लिखा हुआ था, वहीं छोटे से ब्रैकेट में मुर्शीदा बेगम का नाम लिखा हुआ था। प्रचार के वक्त हर जगह उनके पति ही जाते थे, नारों में भी उन्हीं का नाम था। असलियत में मुर्शीदा बेगम के नाम के अलावा इस चुनाव में उनकी कोई मौजूदगी नहीं थी। चुनाव जीतने के बाद भी जीत के जश्न में वे बाहर नहीं दिख रही थी। उनके पति को ही लोग ‘प्रधान जी ‘ कहकर सबोधित कर रहे थे, यह कहना गलत नहीं होगा कि महिला आरक्षण के बावजूद मुर्शिदा बेगम एक ‘टोकनिस्टिक रिप्रेज़ेटेटिव’ ही थी।
आरक्षित सीट होने के नाते महिलाएं केवल एक निर्जीव वस्तु की तरह प्रतिनिधि के रूप में नामांकित कर दी जाती हैं जबकि वास्तविक अधिकार पुरुष का होता है। इसका परिणाम यह होता है कि चूंकि चुनाव के दौरान वोट महिला के पति या फिर ससुर के नाम पर पड़ते हैं
यह उदाहरण इस व्यवस्था का अपवाद नहीं है। यही हालात अधिकतर ग्राम-पंचायतों जिला पंचायतों और जनपद पंचायतों की है जहां यदि महिला आरक्षित सीट होती हैं तो लोग अपनी पत्नी या फिर बहू को चुनाव में खड़ा करते हैं और फिर अपने नाम के इर्द-गिर्द प्रचार करते हुए चुनाव जीतता है। मेरे क्षेत्र में जिला पंचायत के चुनाव में भी यही हुआ था। अरक्षित सीट होने के नाते महिलाएं केवल एक निर्जीव वस्तु की तरह प्रतिनिधि के रूप में नामांकित कर दी जाती हैं जबकि वास्तविक अधिकार पुरुष का होता है। इसका परिणाम यह होता है कि चूंकि चुनाव के दौरान वोट महिला के पति या फिर ससुर के नाम पर पड़ते हैं। इसलिए चुनाव के बाद महिला प्रधान केवल नाम की प्रधान रह जाती है और तमाम सरकारी कामों में पति अथवा ससुर सीधे तौर पर हस्तक्षेप करते हैं। चूंकि पूरा तंत्र ही पितृसत्तात्मक है इसलिए अधिकारी भी यह सब आराम से देखते हैं। इस प्रकार महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य दम तोड़ देता है।
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दरअसल समस्या यह है कि तमाम योजनाओं की तरह इस योजना को लाने और धरातल पर उतारने से पहले कोई भी ठोस ज़मीन तैयार नहीं की गई। सामाजिक परिवेश अभी भी पितृसत्ता के प्रभाव में है और इस परिवेश में पलने वाला पुरुष ‘इगोइस्ट’ है। यदि एक महिला प्रधान जैसे किसी ऊंचे पद पर बैठकर पुरुषों के लिए भी निर्णय लेगी तो पुरुषों का अहम् लहूलुहान हो जाएगा और इसलिए समाज में प्रधान पति अथवा प्रधान ससुर जैसी प्रथा हमारी व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पढ़ी -लिखी नहीं हैं तथा उनके पास आर्थिक स्वायत्तता भी नहीं हैं , जिसके कारण वे अपने अधिकारों के बारे में जानती नहीं हैं , न ही उसकी मांग रखती हैं, असल में भावनात्मक आवरण में उलझकर वे समाज में निहित शोषण को सामान्य मानती हैं। एक बहुस्तरीय सरकारी तन्त्र में पंचायती राज व्यवस्था लोगों के सबसे नज़दीक होती है, इसमें सुधार करते हुए यह सोचा गया था कि सभी व्यक्तियों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी करने का अवसर मिलेगा, इससे लोकतंत्र की वास्तविक छवि उभरकर सामने आएगी लेकिन भारत में अभी भी जातीय सर्वोच्चता और पित्रसत्ता की जड़ें गहराई तक जमी हैं, प्रधान-पति जैसी व्यवस्थाएं इन्हीं का परिणाम हैं।
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