बीते दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई यौन हिंसा की घटनाओं ने एक बार फिर से इस सवाल को हमारे सामने ला खड़ा किया है कि लैंगिक/यौन हिंसा से जुड़ी खबरों को लिखते वक्त किन ज़रूरी बातों का ध्यान रखना चाहिए। आज हम अपने लेख में ऐसी ही कुछ बातों का ज़िक्र कर रहे हैं, जो निम्नलिखित हैं:
लैंगिक हिंसा से जुड़ी ख़बरों को सनसनीखेज़ न बनाएं
लैगिंक/यौन हिंसा पर खबर या रिपोर्ट लिखते वक्त हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि खबर/रिपोर्ट की भाषा संवेदनशील हो। अक्सर लैंगिक हिंसा/यौन हिंसा से जुड़ी खबरों को सनसनीखेज़ बनाने के उद्देश्य से खबरों, रिपोर्ट्स में ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जो बेहद असंवेदनशील होती हैं। इन दिनों खासकर टीवी मीडिया की भाषा और कंटेंट असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा को पार कर चुके हैं। भाषा ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे सर्वाइवर पर ही सवाल उठे। उदाहरण के तौर पर घटना के वक्त सर्वाइवर ने क्या कपड़े पहने थे, वह कितने बजे घर लौट रही थी आदि। ये कारण कहीं से भी यौन हिंसा की वजह नहीं होते। लैगिंक हिंसा की खबरों को संवेदनशीलता के साथ बिना किसी पूर्वाग्रह के तथ्यों के साथ ख़बर/रिपोर्ट लिखी जानी चाहिए।
खबरों की हेडलाइन भी बेहद संवेदनशील होनी चाहिए। कई बार यौन हिंसा की खबरों की हेडलाइन में हम देखते हैं कि सर्वाइवर को किस तरह से बेरहमी से मारा गया, या बलात्कार कितना हिंसक था जैसी बातों को भी शामिल किया जाता है। ऐसे हेडलाइन सिर्फ खबरों को सनसनीखेज़ बनाते हैं जिससे सर्वाइवर को और अधिक आघात पहुंचने की संभावना होती है। इसलिए खबरों की हेडलाइन में वही जानकारियां दें जो ज़रूरी हो। उकसाने वाले, सनसनीखेज़ शब्दों का इस्तेमाल कर खबर को बेवजह सनसनीखेज़ बनाने की कोशिश न करें।
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ऐसी भाषा का इस्तेमाल न करें जो सर्वाइवर को ही दोषी ठहराए
कई बार लैंगिक हिंसा से जुड़ी खबरों की भाषा ऐसी होती है जिससे यौन हिंसा के सर्वाइवर/पीड़ित पर ही सवाल उठाते नज़र आते हैं। उदाहरण के तौर पर हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में एक दलित युवती के सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना पर टीवी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा यह साबित करने में लगा हुआ है कि बलात्कार हुआ ही नहीं। लैंगिक हिंसा को रिपोर्ट करते वक्त हमें ऐसे पूर्वाग्रहों से बचना चाहिए। साथ ही ऐसे कंटेट और भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए जिससे सर्वाइवर/पीड़ित द्वारा लगाए गए आरोपों पर ही सवाल उठने लगे। एक रिपोर्ट और ख़बर का काम घटना का विवरण देना है। घटना की जांच करना पुलिस और जांच एजेंसियों का काम है। हां, बतौर पत्रकार अगर जांच के तरीकों में या पुलिस की कार्रवाई में कोई गड़बड़ी दिखे तो हमें सवाल ज़रूर उठाना चाहिए। लेकिन सर्वाइवर/पीड़ित पर, उसके द्वारा लगाए गए आरोपों पर सवाल नहीं उठाने चाहिए। अक्सर ऐसा होता है कि जब कोई सर्वाइवर अपने साथ हुई यौन हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है तो उस पर भरोसा नहीं किया जाता।
#MeToo आंदोलन के दौरान भी अक्सर मामलों में यह देखने को मिला था जहां सर्वाइवर से ही सवाल किए गए थे कि आखिर इतने सालों बाद वे क्यों बोल रही हैं। आपको हम बता दें कि यह एक बहुत बड़ी वजह है जिसके कारण महिलाएं अपने साथ हुई यौन हिंसा के ख़िलाफ़ रिपोर्ट करने या आवाज़ उठाने में हिचकिचाती हैं क्योंकि उनके मन में यह डर होता कि लोग उनकी बात पर भरोसा नहीं करेंगे। इसलिए खबर लिखते वक्त हमें सर्वाइवर के आरोपों पर सवाल उठाकर उन्हें और उत्पीड़ित नहीं करना चाहिए। यहां हमें #BelieveTheSurvivor की थ्योरी पर काम करना चाहिए न कि विक्टिम ब्लेमिंग।
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सर्वाइवर से जुड़ी ऐसी जानकारी न दें जिससे उनकी पहचान उजागर हो
लैंगिक हिंसा, यौन हिंसा से जुड़ी खबरों/रिपोर्ट्स में हमें ऐसी कोई भी जानकारी नहीं देनी चाहिए जिससे सर्वाइवर या उसके परिवार की पहचान उजागर हो। इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 228A के अनुसार रेप या अन्य यौन हिंसा के सर्वाइवर की पहचान उजागर करना एक दंडनीय अपराध है। सर्वाइवर और उसके परिवार की पहचान उजागर करने से उनकी परेशानियां भी बढ़ सकती हैं। इसलिए लैंगिक/यौन हिंसा की खबरों में हमें सर्वावर या उनके परिवार का नाम, पता,तस्वीरें आदि उजागर नहीं करना चाहिए।
ख़बरों में ऐसी तस्वीरों का इस्तेमाल न करें जिसमें सर्वाइवर को कमज़ोर दर्शाया गया हो
अक्सर मीडिया लैंगिक और यौन हिंसा की खबरों में ऐसी तस्वीरों का इस्तेमाल करता है जिसमें सर्वाइवर एक ‘कमज़ोर’ पक्ष की तरह दिखाई देती है और आरोपी/दोषी एक मज़बूत। लैंगिक/यौन हिंसा की खबरों में ऐसी तस्वीरों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। ये तस्वीरें सर्वाइवर को एक असहाय की तरह दिखाती हैं और दोषी/आरोपी को एक मज़बूत पक्ष के रूप में।
ऐसी तस्वीरों की जगह उन तस्वीरों का इस्तेमाल करें जिसमें विरोध की झलक हो। बलात्कार, यौन हिंसा के ख़िलाफ होने वाले विरोध-प्रदर्शनों की तस्वीरों का इस्तेमाल करना सबसे सटीक माना जाता है।
अगर आप सर्वाइवर का इंटरव्यू कर रहे हैं तो उस दौरान अत्यधिक संवेदनशीलता का परिचय दें
सर्वाइवर या उनके परिवार के किसी सदस्य का इंटरव्यू लेटे वक्त अत्यधिक संवेदनशीलता का परिचय दें। बार-बार उस घटना को दोहराना, एक ही सवालों के जवाब अलग-अलग मीडिया संस्थानों को देना किसी भी सर्वाइवर के लिए बेहद कष्टकारी होता है। सर्वाइवर से ऐसे सवाल न पूछे जिसमें कोई पूर्वाग्रह शामिल हो। क्या हुआ, कब हुआ, कैसे हुआ ऐसे सवालों को बार-बार दोहरा कर सर्वाइवर और उनके परिवार को असहज न करें।
लैंगिक हिंसा से जुड़ी खबरों में ‘ट्रिगर वॉर्निंग’ यानी चेतावनी ज़रूर दें
हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां लैंगिक/यौन हिंसा के सर्वाइवर्स बड़ी संख्या में मौजूद हैं। लैंगिक-यौन हिंसा से जुड़ी खबरें कई लोगों के लिए बेहद आघात पहुंचाने वाली हो सकती हैं। इसलिए इन खबरों की शुरुआत में ही ट्रिगर वार्निंग अथवा चेतावनी का ज़िक्र ज़रूर करना चाहिए। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हो सकता है इन खबरों को पढ़कर सामने वाले शख्स को अपने साथ हुई घटना याद आ जाए। इसलिए ऐसी खबरों की शुरुआत में ट्रिगर वॉर्निंग/ चेतावनी का होना आवश्यक है।
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यौन हिंसा की खबरों में इंटरसेक्शनैलिटी का महत्व
हाथरस में हुई घटना के बाद बार-बार यह सवाल उठाया गया कि क्या सर्वाइवर की जाति का ज़िक्र होना ज़रूरी है। यहां आती है बात इंटरसेक्शनैलिटी की। आंकड़ों की बात करें या हमारे समाज की सच्चाई की, दोनों ही यह बताते हैं कि हमारे समाज में दलित, बहुजन, आदिवासी, ट्रांस, अल्पसंख्यक, विकलांग, वर्ग आदि आधार पर हिंसा की घटनाएं होती हैं। इन समुदायों से तालुक्क रखने वाले लोग अन्य समुदायों के मुकाबले हिंसा का सामना कहीं ज़्यादा करते हैं। वेबसाइट द इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक दलित महिलाओं के ख़िलाफ होने वाले बलात्कार के मामलों में 37% की बढ़त हुई है। नैशनल क्राइं रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि हर दिन 6 दलित महिलाओं का बलात्कार होता है। इसलिए लैंगिक हिंसा और यौन हिंसा की खबरें लिखते वक्त इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि उच्च वर्ग, उच्च जाति, पितृसत्ता जैसे कारण इन घटनाओं को अंजाम देने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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तस्वीर : सुश्रीता भट्टाचार्जी