हाल ही में, जेसिंडा केट लॉरेल अर्डरन दूसरी बार न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री बनी। आज जब कोरोना महामारी से पूरी दुनिया जूझ रही है, ऐसे में चंद ऐसे देश भी रहे हैं जहां सत्ता की कुशल नीतियों से इस महामारी के प्रभावों को सीमित किया गया। उन देशों में एक नाम न्यूजीलैंड भी है, जहां की प्रधानमंत्री अपनी कुशल नीति और व्यवस्था से मीडिया की सुर्ख़ियों में रही। इतना ही नहीं, जेसिंडा को उनकी वैचारिकी, लैंगिक समानता और संवेदनशीलता की दिशा में उनके प्रभावी कदम के लिए जाना जाता है। अगर ये कहूँ कि मौजूदा समय में जेसिंडा कुशल महिला नेतृत्व की उम्दा मिसाल है तो ये कहीं से भी ग़लत नहीं होगा।
ये बात तो हुई न्यूजीलैंड की। अब आते अपने देश यानी कि भारत में और यहां महिला नेतृत्व के मायने में। हमारे पितृसत्तामक भारतीय समाज में ‘महिला नेतृत्व’ को हमेशा से दूर की चीज़ में देखा, दिखाया और समझा जाता है, जो भाषणों में तो खूब पसंद किया जाता है, लेकिन अपने घर-समाज और जीवन से जोड़ने में हमेशा मुँह चुराया जाता है। इस संदर्भ में इंटरनेट की बढ़ती स्पीड और बदलती कम्पनियों के नाम से बदलाव को आंकते हुए अक्सर मंचों से कहा जाता है ‘अब देश में महिलाएँ हर क्षेत्र में आगे आ रही है। उनकी स्थिति में बदलाव आ चुका है। हर जगह महिला नेतृत्व देखने को मिल रहा है।‘
पर अब सवाल ये है कि हम जिस भी क्षेत्र में महिला नेतृत्व का हवाला दे रहे है, क्या वाक़ई में उन क्षेत्रों में महिला नेतृत्व में बढ़ोतरी हुई है ? हो सकता है आपको भी ये बात सही लगे। तो चलिए पहले इसी भ्रम को दूर करते है, अपने आप से सवाल करिए कि आपके घर-परिवार और पास के क्षेत्रों में कितनी महिलाएँ नेतृत्व में आ चुकी है ? आपके घर की कितनी महिलायें पायलट बनी या नेतृत्व व निर्णय-निर्माण में आगे आयी ? देश में पहली बार सेना की मंत्री महिला बनी, इसके बाद कितनी महिलाएँ सेना में आ पायी ?
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हम अक्सर महिला चेहरे और महिला नेतृत्व के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते है और महिला चेहरे को ही महिला नेतृत्व समझने की भूल करते है। इसे एक जीवंत उदाहरण से समझाती हूँ – एक गाँव में अमुक नाम की स्वयं सेवी संस्था बीते पच्चीस सालों से महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के क्षेत्र में काम रही है। इस संस्था के मुखिया एक पुरुष है और सभी छोटे-बड़े निर्णय वही लेते है। संस्था का चेहरा भी वही है। संस्था में अधिकतम महिला स्टाफ़ है, जो पचासों गाँव में महिला संगठन बनाने का काम करती है। ये महिलाएँ हर हिंसा के ख़िलाफ़ रैलियाँ निकालती है। लेकिन संस्था में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न क़ानून के तहत किसी भी तरह की समिति गठित नहीं की गयी है। कहने को तो संस्था का काम महिला केंद्रित है, लेकिन नेतृत्व और निर्णय निर्माण में महिला की भागीदारी शून्य है।
हम अक्सर महिला चेहरे और महिला नेतृत्व के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते है और महिला चेहरे को ही महिला नेतृत्व समझने की भूल करते है।
ये किसी एक संस्था की नहीं बल्कि अधिकतर संस्थाओं की कहानी है, जहां महिला के नामपर प्रोजेक्ट है, महिला स्टाफ़ है लेकिन नेतृत्व और निर्णय निर्माण में उनकी भूमिका नदारद है। ठीक वैसा ही जैसा अपने घरों में भी होता है, जहां महिलाएँ अलग-अलग भूमिका में होती है लेकिन नेतृत्व और निर्णय निर्माण में उनके दायरे पितरसत्ता ने परिभाषित किया हुआ है। इतना ही नहीं, आज भी महिला ग्राम प्रधान के सारे निर्णय उनके पति लेते है और महिला प्रधान का नाम सिर्फ़ पेपर में नाम तक ही सीमित होता है। यानी कि देश के शीर्ष में ही नहीं समाज की शाखाओं में भी महिला नेतृत्व के नामपर सिर्फ़ महिला चेहरे और उनके नाम को भुनाया जाता है।
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वो दौर जब हम दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने-बढ़ने की बात कर रहे हैं ऐसे में लगातार बढ़ती महिला हिंसा की अपनी ज़मीनी हक़ीक़त को देखने के बाद अपने देश में जेसिंडा जैसे महिला नेतृत्व की कल्पना भी बहुत दूर की चीज़ समझ आती है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में महिला नेतृत्व और निर्णय निर्माण में बेहतर नहीं कर रही है, इसी कोरोना महामारी में केरल की स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा के कुशल नेतृत्व और नीति निर्माण की तारीफ़ हुई, लेकिन हमारी मीडिया की कलम और कैमरे इस दिशा में नहीं पहुँच पाए और आए दिन देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा का प्रमुख कारण महिला नेतृत्व का अभाव है।
भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में महिला नेतृत्व और निर्णय निर्माण की स्थापना कर पाना मुश्किल है, जिसके लिए हमें ज़मीनी स्तर पर प्रयास करना होगा, क्योंकि जब तक हमारी सोच में महिला नेतृत्व को स्वीकृति नहीं मिलेगी, नीतियों में उनकी भागीदारी की सिर्फ़ काग़ज़ तक सीमित रहेगी। इसलिए अब महिला चेहरे व नाम की बजाय महिला निर्णय-निर्माण वाले नेतृत्व को बढ़ावा देने और इसे सरोकार से जोड़ने की ज़रूरत है।
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तस्वीर साभार : zephyrnet