जानकी अम्माल महिलाओं को प्रेरित करने वाली, भारत की पहली महिला वनस्पति वैज्ञानिक थी जिन्होंने साइटोजेनेटिक्स और फाइटोजीआग्रफी के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में पहला और एक जाना-माना चेहरा थी। साल 1951 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें भारत में बोटैनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के नवीनीकरण के लिए बुलाया था। उस समय वह लंदन में अनुसंधान कर रही थी। तब उन्होंने तीन अपने दशक लंबे करियर को पीछे छोड़ते हुए सरकारी सेवाओं में अपना भरपूर योगदान किया।
जानकी अम्माल का शुरुआती जीवन
डॉ. जानकी अम्माल का जन्म 4 नवंबर 1897 में, केरल के तेल्लीचेरी (अब थालास्सेरी) में हुआ था। एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी जानकी अम्माल के पिता तत्कालीन मद्रास सूबे में उपन्यायाधीश के पद पर कार्यरत थे और उनकी मां का नाम देवी कृष्णन था। थालास्सेरी में समुद्र के पास ‘एडैथिल हाउस’ में अम्माल अपने माता, पिता, छह भाई और पांच बहनों के साथ रहती थी। जहां महिलाओं को अपने छोटे-छोटे अधिकारों के लिए जूझना पड़ता था वहां जानकी के समुदाय में उन्हें और उनके समुदाय की अन्य महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जाता था जो उस वक्त के लिए कि एक दुर्लभ बात थी।
तेल्लीचेरी में शुरुआती शिक्षा लेने के बाद उच्च शिक्षा के लिए अम्माल मद्रास चली गई। मद्रास में, उन्होंने क्वीन मैरी कॉलेज से स्नातक की शिक्षा पूरी की और साल 1921 में प्रेसीडेंसी कॉलेज, चेन्नई से ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने महिला क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाया। इस अवधि के दौरान उन्हें मिशिगन विश्वविद्यालय, अमेरिका से मास्टर्स करने के लिए प्रतिष्ठित बारबर स्कॉलरशिप भी मिली। साल 1925 में डिग्री प्राप्त करने के बाद, वह भारत लौट आई और डब्ल्यूसीसी में पढ़ाना जारी रखा। साल 1931 में विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के लिए वह ओरिएंटल बारबर फ़ेलोशिप पर मिशिगन वापस चली गई। जानकी अम्माल मिशिगन विश्वविद्यालय द्वारा D.Sc (पीएचडी के समान डिग्री) से सम्मानित होने वाली उस वक्त की चंद एशियाई महिलाओं में से एक थी। आने वाले सालों में उनके करियर को आकार मिला और वह वनस्पति विज्ञान की प्रोफेसर के रूप में भारत लौटी।
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उनका करियर
भारत लौटने के बाद, उन्होंने साल 1932 से 1934 तक कुछ समय के लिए त्रिवेंद्रम के महाराजा कॉलेज ऑफ साइंस में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में काम किया। इसके बाद साल 1934 से 1939 तक उन्होंने कोयम्बटूर में गन्ना प्रजनन संस्थान में एक आनुवांशिकी विज्ञानी के रूप में काम किया जिसमें गन्ना और संबंधित घास प्रजातियों पर उनका शोध अपने संबंधित क्षेत्रों में एक बेहद महत्वपूर्ण शोध के रूप में सामने आया। डॉ. जानकी अम्माल ने उच्च उपज वाले गन्ने की कई हाइब्रिड किस्मों की पहचान की। उनके शोध में क्रॉस-ब्रीडिंग के लिए पौधे की किस्मों का विश्लेषण करना भी शामिल था। यह उनके शानदार करियर की शुरुआत थी। हालांकि, इस दौरान उन्होंने कई बाधाओं का सामना भी करना पड़ा।
जानकी अम्माल को अपने सहकर्मियों से भेदभाव और एक सिंगल महिला होने के कारण उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। हालांकि, वह कभी भी पीछे नहीं हटी और अपने समय के सबसे प्रमुख वैज्ञानिकों में से एक के रूप में उभरने के लिए इन चुनौतियों का सामना किया।
अम्माल ने अपना शोध जारी रखने के लिए लंदन का रुख किया और द्वितीय विश्व युद्ध की अराजकता के बीच साल 1940-1945 के दौरान लंदन के जॉन इंस हॉर्टिकल्चर इंस्टिट्यूशन में एक असिस्टेंट साइटोलॉजिस्ट के रूप में काम किया। इसके बाद उन्होंने साल 1945-1951 के दौरान विस्ले में शाही बागवानी समाज में साइटोलॉजिस्ट के रूप में काम किया, जहां उन्होंने सीडी डार्लिंगटन के साथ एक पुस्तक ‘क्रोमोजोम एटलस ऑफ कल्टिवेंट प्लांट्स’ भी लिखी। अपने पूरे करियर के दौरान डॉ. जानकी अम्माल ने अपने शोध को अपने मिशन के रूप में रखते हुए कई साहसी निर्णय लिए थे और इन्हें पूरा करने के लिए वह जल्द ही चुनौतीपूर्ण माहौल में ढल गई थी। समाज और जाति व्यवस्था जो पाबंदियां एक महिला पर लगाता है, वे बाधाएं जानकी को उनके चुने हुए रास्ते से रोकने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं थी।
डॉ. जानकी अम्माल को सरकारी सेवा में शामिल होने के लिए एक विशेष अधिकारी के रूप में भारत के बॉटनिकल सर्वे के पुनर्गठन के लिए आमंत्रित किया गया था। स्वतंत्र भारत में विज्ञान के उत्थान में मदद करने के लिए, वह विभिन्न भूमिकाओं में सरकारी सेवा में कार्यरत रही। उन्होंने इलाहाबाद में केंद्रीय वनस्पति प्रयोगशाला का नेतृत्व किया। उन्होंने जम्मू और कश्मीर में क्षेत्रीय अनुसंधान प्रयोगशाला में विशेष कर्तव्य पर एक अधिकारी के रूप में काम किया और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र से भी वह कुछ समय के लिए जुड़ी रही।
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पुरस्कार और सम्मान
अम्माल को साल 1935 में भारतीय विज्ञान अकादमी और साल 1957 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का फेलो चुना गया था। मिशिगन विश्वविद्यालय ने 1956 में उन्हें एलएलडी की मानद उपाधि प्रदान की। भारत सरकार ने साल 1957 में उन्हें पद्म श्री से भी सम्मानित किया था। साल 2000 में भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने उनके नाम पर वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार संस्थापित किया।
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प्रेरणा के रूप में जानकी अम्माल
जानकी अम्माल का जीवन और उनका काम एक प्रेरणा है। विशेष रूप से विज्ञान के क्षेत्र में उन महिलाओं के लिए जिन्हें अपने करियर में विभिन्न चरणों में संघर्ष करना पड़ता है। जानकी अम्माल का जन्म भारत में एक ऐसे समय में हुआ था जब अंग्रेजों हम पर शासन करते थे और जब जातिगत भेदभाव बड़े पैमाने पर था। वह थिया समुदाय की थी,उस समय एक पिछड़ा समुदाय माना जाता था। जानकी अम्माल को अपने सहकर्मियों से भेदभाव और एक सिंगल महिला होने के कारण उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। हालांकि, वह कभी भी पीछे नहीं हटी और अपने समय के सबसे प्रमुख वैज्ञानिकों में से एक के रूप में उभरने के लिए इन चुनौतियों का सामना किया। वह एक सक्रिय पर्यावरणविद् भी थी, 1970 के दशक में केरल के साइलेंट वैली में एक हाइडल-पावर बांध बनाने के खिलाफ भी लड़ी थी। वह एथ्नोबॉटनी में बहुत रुचि रखती थी और देश भर में नमूने एकत्र करती थी।
एक शीर्ष वैज्ञानिक होने के बावजूद, अम्माल ने बहुत ही सरल और सादे तरीके से अपना जीवन जीया। साथ ही साथ वह गांधीवादी विचारों में यकीन करती थी। उन्हें रंगों से प्यार था और वह पीले रंग की साड़ियों की शौकीन थी। वह हमेशा अपने जीवन के नजरिए को लेकर बहुत शांत और सुलझी हुई थी। उन्होंने एक बार कहा था, “मेरा काम ही है जो जीवित रहेगा”।
एक बार अपने भाई को उन्होंने लिखा था, “मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मुझे महात्मा गांधी का व्याख्यान सुनने का सौभाग्य मिला। आपको उन्हें को देखना चाहिए था, इतना सादा और इतना भारतीय। कोई भी उनकी सादगी से प्रभावित हो सकता है।” मैग्नीशियम के गुणसूत्रों पर काम करते हुए, उन्होंने लंदन के केव उद्यान में कुछ पौधे लगाए और उनमें अभी भी वसंत में हर साल फूल खिलते हैं। वास्तव में, उनके नाम पर एक मैगनोलिया किस्म भी है- मैगनोलिया कोबस जानकी अम्माल। जानकी अम्माल ने सादा जीवन व्यतीत किया और विज्ञान के प्रति समर्पित रही। उन्होंने उस समय एक ऐसे जीवन का नेतृत्व किया, जिसका केवल महिलाएं ही सपना देख सकती थी। उनके लिए यह सफर आसान नहीं था, लेकिन उन्होंने अपने सपनों का पालन करने का साहस रखा और एक ऐसा जीवन जीया जो हम में से कई लोगों के लिए प्रेरणा के रूप में हमारे सामने है।
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