इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता और नारीवाद की समझ व सरोकार | नारीवादी चश्मा

पितृसत्ता और नारीवाद की समझ व सरोकार | नारीवादी चश्मा

नारीवाद को सबसे ज़्यादा बदनाम पूँजीवादी पितृसत्ता और इसकी पूँजीवादी मीडिया ने किया है। क्योंकि हम इनसे सवाल करते है।

फ़ेमिनिज़म इन इंडिया हिंदी ने इंस्टाग्राम पर एक नयी पहल की है। पहल नारीवाद, लैंगिक समानता और मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों पर समझ बढ़ाने और सरोकार से जोड़ने की दिशा में। इस पहल की शुरुआत हमलोगों ने की प्रसिद्ध नारीवादी कार्यकर्ता कमला भसीन जी के साथ। कल मैंने कमला भसीन जी के साथ इंस्टाग्राम पर लाइव बातचीत का कार्यक्रम किया, बहुत से लोग इस लाइव के दर्शक बने, लेकिन कुछ बाक़ी रह गये, तो उन्हीं साथियों के लिए साझा कर रही हूँ मेरी और कमला भसीन जी के साथ बातचीत का अंश

कमला भसीन, भारतीय नारीवाद का एक चर्चित नाम है। क़रीब पचास से अधिक सालों से लगातार कमला भसीन दक्षिण एशिया में लैंगिक समानता, ग़रीबी उन्मूलन, शांति और मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रही हैं। कमला जी अपनी प्रभावी लेखनी के लिए भी प्रसिद्ध है, उनकी कविताओं, लेखों और कहानियों में भी लैंगिक समानता और संवेदनशीलता का संजीदा स्वरूप देखने को मिलता है। कमला जी संगत नामक स्वयंसेवी संस्था की संस्थापिका है और पीस विमेन अक्रॉस द वर्ल्ड जैसे कई अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क से जुड़ी हुई है, इसके साथ ही, वह वन बिलियन राइज़िंग की दक्षिण एशिया की समन्विका भी है। आइए पढ़ते हैं इंस्टाग्राम में कमला भसीन जी के साथ बातचीत का हिस्सा –

सवाल : आपमें पितृसत्ता और नारीवाद को लेकर समझ कब बननी शुरू हुई? कोई ख़ास वाक़या जिसे आप साझा करना चाहे।

कमला जी : पितृसत्ता की दो समझ होती है, एक दिमाग़ी समझ और एक समझ वो जिसे हम महसूस करते है और जिसका पंद्रह-बीस साल तक हम नाम भी नहीं दे सकते। बस हम ये महसूस करते है कुछ ग़लत हो रहा है और ये भी पक्का नहीं होता कि क्या ग़लत हो रहा है। ये हमारे पैदा होने के जल्दी बाद ही समझ आ जाता है। बहुत छोटी उम्र से हमें समझ आने लगता है कि घर में लड़के और हम लड़कियों में फ़र्क़ है। इनमें से बहुत-सी चीज़ें मेरे घर में नहीं हुई, लेकिन मुझे मालूम है कि बहुत से घरों में होती है। बेटी को कम तवज्जो। कम खाना या सबसे अंत में खाना। या फिर अच्छी चीज़ का न मिलना। मक्खन कम भईया से। बादाम भईया को। भाई बीमार होता है कितनी जल्दी डॉक्टर को बुलाते है, लेकिन लड़की बीमार होती है तो वेट करते है। थोड़ा और बढ़ो तो भाई के लिए अंग्रेज़ी स्कूल और मेरे लिए सरकारी स्कूल। लेकिन शुरुआत में ये कुछ समझ नहीं आता।  

फिर मैंने अपनी ज़िंदगी में देखा कि मैं क़रीब चार-पाँच साल की थी, तब पहली बार परिवार में मेरे साथ किसी ने मेरे साथ यौनिक हिंसा-सी की। मैं हिंसा-सी इसलिए कह रही हूँ, क्योंकि चुपचाप बैठे-बैठे उन्होंने मेरी योनि में ऊँगली मेरी योनि में डाली। अब समझ नहीं आ रहा कि ये घरवाले है। रिश्तेदार है, मेरे साथ कुछ ग़लत तो नहीं कर सकते। वे मुझे चूम रहे थे, बेटी-बेटी कर रहे थे। अब ये ग़लत है नहीं है। ये मुझे किसी ने नहीं बताया। इसके बाद आठ साल तक, बारह और लोगों ने मेरे साथ ये किया। मैं ख़ुद को अपने परिवार के क़रीब समझती थी, लेकिन मैंने उन्हें भी नहीं बताया। ये अभी तक नहीं मालूम। पहली बार मैंने 45 साल की उम्र में इसपर बात की। तब जगोरी में मैंने ये बात कही, तब कई महिलाओं ने बताया कि उनके साथ भी ऐसा हो चुका है। ये नारीवादी आंदोलन का ही प्रभाव रहा जो आज स्कूलों में गुड टछ और बैड टच के बारे में बताते है।

मेरे तीन भाई की जन्मपत्री बनी लेकिन हम तीन बहनों की नहीं बनी। सत्रह साल तक मुझे पितृसत्ता शब्द नहीं मालूम था, लेकिन हक़ीक़त मालूम थी। मैं स्कूल के दिनों में अकेली लड़की थी जो बाहर खेलती थी और दूसरों के घर जा सकती थी। फिर धीरे-धीरे ये मालूम हुआ कि ये ग़लत है। लेकिन अब ये सब कहूँ तो किससे। इसलिए मेरा मानना है कि पितृसत्ता परिवारों में है, इसलिए इसके बारे में सोचना और इसके ख़िलाफ़ बोलना कठिन है। अगर आप दलित है तो किसी तथाकथित ऊँची जाति पर शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकते है। लेकिन अपनी माँ, पिता और भाई से कैसे कहूँ? जब मैंने राजस्थान के गाँव में काम करना शुरू किया तब मैंने पितृसत्ता पर बात करना, इसे समझना शुरू किया। तब पितृसत्ता की संरचना मुझे समझ आने लगी। 36 साल की थी मैं जब मैंने पहली बार ‘नारीवाद’ एक किताब में पढ़ा। यों तो ये शब्द काफ़ी बाद में आए लेकिन हक़ीक़त काफ़ी पहले आ गयी थी।

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सवाल : आप पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए प्रभावी ढंग से अलग-अलग प्रयास कर रही है जो मील के पत्थर साबित हो रहे है। आपको इस पहल की प्रेरणा कैसे मिली? आपने कब महसूस किया कि इस ज़रूरी काम को शुरू करना और अनवरत ज़ारी रखना है।  

कमला जी : मेरा मानना है की ये ज़िंदगी में एक बहाव होता है। इसलिए कोई तय समय बताना मुश्किल है। मैं जब सेवा मंदिर आयी और महिलाओं के साथ शुरू किया तो कारवाँ बनने लगा। मैंने लिखना शुरू किया। मैं बाहर से पढ़ी थी इसलिए समाज को बाहरी के रूप में देखना शुरू किया, इसलिए थोड़ा कम समय लगा। इसी दौरान मेरे लेखन का काम ज़ारी रहा है और यूएन ने मुझे काम के बुलाया, जहां मैंने दक्षिण एशिया में काम करने की बात रखी और उन्होंने मुझे दिल्ली भेजा। सत्तर के दशक में उनदिनों दिल्ली में नारीवादी संस्थाओं की शुरुआत हो रही थी। तब तक मैं दिल्ली में कुछ महिलाओं से जुड़ चुकी थी और साल 1974 में हमने जागोरी की शुरुआत की। फिर मैंने साल 1974 में अपना पहला नारीवादी गाना लिखा। इसके बाद हमलोगों ने महिला दिवस मनाना शुरू किया, इसकी तैयारी में हमलोगों ने आंदोलन के गीत बनाने शुरू किए।

नारीवाद को सबसे ज़्यादा बदनाम पूँजीवादी पितृसत्ता और इसकी पूँजीवादी मीडिया ने किया है।

मेरे काम में सबसे प्रमुख रहा ऐक्टिविस्ट की ट्रेनिंग। मैं उनलोगों के साथ काम करती थी, जो जेंडर, नारीवाद और मानवाधिकार पर काम करते थे। मैं उनकी ट्रेनिंग करती थी। ट्रेनिंग में हमलोगों ने नेटवर्किंग करना शुरू किया। इस तरह गाने, नारे, पोस्टर फिर बाद में नुक्कड़ नाटक जैसे अलग-अलग माध्यमों से हमलोगों ने अपने काम के माध्यमों को चुका।

सवाल : जब भी हम पितृसत्ता और नारीवाद जैसे शब्द बोलते है तो आम लोगों (ख़ासकर ग्रामीण और मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले) को ये दूर की चीज़ लगती है, तो ऐसे में हम किन माध्यमों से नारीवाद के मूल लैंगिक समानता को बढ़ावा दे सकते है?

कमला जी : मेरा मानना है कि हमें अपनी भाषा में सुधार करने की ज़रूरत है। क्योंकि जब हम लैंगिक समानता कहते है तो इसका मतलब जैविक से है। यानी इसका संबंध क़ुदरत है। वो क़ुदरत जो भेद बनाती है, भाव नहीं। भाव हमारा समाज बनाता है और हम नारीवादी इस भाव के ख़िलाफ़ है। इसलिए इस महीन से फ़र्क़ को साफ़ करना ज़रूरी है। यही वजह रही कि  नारीवादी आंदोलन के तहत ‘जेंडर’ शब्द लाया गया। हमने कहा जैविक और सामाजिक को अलग करिए। इसलिए जेंडर को हिंदी में लैंगिक नहीं बल्कि सामाजिक लिंग और सेक्स को प्राकृतिक लिंग कहना होगा। बाक़ी आमजन की समझ पर बात करूँ तो हमें ज़रूरत ही क्या है कि गाँव में जाकर जेंडर और फ़ेमिनिज़्म जैसे शब्द का इस्तेमाल करें। क्योंकि मीराबाई और सावित्रीबाई जैसे ऐसे तमाम शख़्सियत है जिन्होंने काम किया इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। इसलिए शब्दों की बात मत करिए, हक़ीक़त में जाइए।

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सवाल : आज महिलाएँ, लड़कियाँ और पुरुष ये तो कहते हैं कि उन्हें बराबरी में विश्वास है, लेकिन नारीवाद का नाम आते ही ये इसके टैग से घबराने लगते है। इसपर आपकी क्या राय है ?

कमला जी : जैसा मैंने बताया मैं जब गाँव में जाती हूँ तो ये नहीं कहती कि मैं नारीवादी हूँ। कई बार आप ये नहीं कहते कि आप नारीवादी है लेकिन लोग आपके काम से जान जाते हैं कि आप नारीवादी है। सवाल ये है कि आख़िर है क्या नारीवाद? ये वो नज़रिया है जो दुनिया को नारी की नज़र से देखता है। क्योंकि नारी दबी हुई है और नारीवाद पितृसत्ता के ख़िलाफ़ है जो औरत की आवाज़ है, तो इसे नारीवाद कहना ग़लत नहीं है।

अब ये समझना होगा कि सावित्रीबाई ने कभी कहा कि वो नारीवादी है? और क्या सिर्फ़ महिलाएँ ही नारीवादी होती है? भारत में पेरियार, ज्योतिबा फुले व गौतम बुद्ध और उनके शिष्य आनंद जैसे ऐसे तमाम पुरुष है जिन्होंने दुनिया को महिलाओं के नज़रिए से देखा, तो अब सवाल ये है कि क्या सावित्रीबाई फुले नारीवादी नहीं थी या पेरियार नारीवादी नहीं थे। इसलिए कई बार हम बस काम करते है और शब्द बाद में आता है और यहाँ भी ऐसा हुआ। नारीवाद सिर्फ़ समानता का आंदोलन है।

अब नारीवाद के टैग की बात करूँ तो जो लोग समानता पर विश्वास नहीं करते। अपनी गद्दी से उतरना नहीं चाहते, उन्होंने नारीवाद को बहुत बदनाम किया। और दूसरी दिक़्क़त ये भी रही कि लोगों ने इसकी बात नहीं की। अगर लोगों को नारीवाद पर कोई दिक्कत लगने लगी तो उन्हें संवाद करना चाहिए। नारीवाद को सबसे ज़्यादा बदनाम पूँजीवादी पितृसत्ता और इसकी पूँजीवादी मीडिया ने किया है। क्योंकि हम इनसे सवाल करते है इसलिए वे नारीवाद की नकारात्मक छवि बनाकर इसे बदनाम करते है।

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