साल 2017 में महिला संगठनों ने मैरिटल रेप को एक दंडनीय अपराध घोषित करने के लिए याचिका दाखिल की थी। इस याचिका के तहत इन संगठनों की मांग थी कि मैरिटल रेप को आईपीसी की धारा 375 के तहत एक दंडनीय अपराध घोषित किया जाए। दिल्ली हाईकोर्ट में इस याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कुछ तर्क दिए थे। केंद्र सरकार का कहना था कि अगर मैरिटल रेप को एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया तो इससे महिलाओं को एक हथियार मिल जाएगा अपने पति को शोषित करने का क्योंकि ऐसे मामलों में लंबे समय तक टिकने वाले सबूतों का मिलना मुश्किल होगा। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी दलील दी थी कि ऐसा करने से शादी की संस्था खतरे में पड़ जाएगी। यह पहली बार नहीं था जब केंद्र सरकार ने मैरिटल रेप के पक्ष में शादी की संस्था का हवाला दिया हो।
इससे पहले साल 2016 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनिका गांधी ने भी यह तर्क दिया था कि मैरिटल रेप की अवधारणा जो अतंरराष्ट्रीय स्तर पर वह भारत के संदर्भ में शिक्षा, गरीबी और अन्य कारकों को ध्यान में रखें तो यह अवधारणा यहां लागू नहीं हो सकती। साथ ही एक संसदीय पैनल की रिपोर्ट ने भी यही सुझाव दिया था कि अगर भारत में मैरिटल रेप को कानूनी रूप से एक अपराध घोषित कर दिया गया तो परिवार की संस्था भी बेहद तनावग्रस्त स्थिति में आ जाएगी। पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा ने भी यह कहा था था कि उन्हें नहीं लगता की भारत में मैरिटल रेप एक अपराध माना चाहिए क्योंकि यह परिवारों में अराजकता पैदा करेगा। साथ ही उन्होंने मेनका गांधी की तर्ज़ पर ही यह तर्क भी दिया था कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने का विचार पश्चिमी देशों से लिया गया है जो भारत पर लागू नहीं होता।
जब भी मैरिटल रेप की चर्चा हमारे देश की संसद, न्यायालयों में होती है जहां से मैरिटल रेप को एक दंडनीय अपराध घोषित करने की ओर पहला कदम बढ़ाया जा सकता है। वहीं से हमें हमेशा अपने नीति-निर्माताओं और न्यायधीशों से एक ही तर्क बार-बार सुनने को मिलता है- शादी/परिवार की संस्था खतरे में पड़ जाएगी। आईपीसी की धारा 375 में बलात्कार की परिभाषा है; किसी पुरुष द्वारा किसी महिला की इच्छा, सहमति के बिना शारीरिक संबंध बनाना, महिला की सहमति के साथ उसे मौत या चोट पहुंचाने का डर दिखाकर शारीरिक संबंध बनाना, महिला की सहमति से लेकिन यह सहमति उससे उसके पति होने का भ्रम दिखाकर लेना, महिला से उसकी सहमति के साथ लेकिन उस सहमति के वक्त महिला की मानसिक स्थिति ठीक न हो या उसे नशीला पदार्थ दिया जाना, महिला की उम्र अगर 16 साल से कम हो। साथ ही धारा 375 के साथ जुड़े (exception) अपवाद के तहत अगर पुरुष का अपनी पत्नी जो कि 15 वर्ष से छोटी न हो उसके साथ शारीरिक संबंध बनाना बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता। यह अपवाद अपने-आप में विवादस्पद नज़र आता है क्योंकि भारत में लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है जिसे अब बढ़ाकर 21 साल करने की बात हो रही है।
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पितृसत्तात्मक जड़ों पर आधारित रीति-रिवाज़ों पर कानून का ठप्पा लगाकर होने वाली शादी के तहत हमारे देश में मैरिटल रेप आज भी कानूनी रूप से वैध है। इस संस्था के तहत पति चूंकि वह मर्द, उसे पूरी छूट होती है अपनी पत्नी के साथ जबरन यौन संबंध बनाने की। आईपीसी की धारा 375 के साथ जुड़े अपवाद का निष्कर्ष तो कुछ यही निकलता दिखाई देता है। किसी के साथ जबरन यौन संबंध बनाना अपराध है, बलात्कार है लेकिन वही काम जब कोई पति के रूप में पत्नी के साथ करता है तो वह अपराध की श्रेणी से बाहर हो जाता है। कानून की तरफ़ से भारत के शादीशुदा मर्दों को एक सुरक्षा प्राप्त है अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का। देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि भारत का बलात्कार से संबंधित कानून अपने चरित्र में पितृसत्तात्मक है और कहीं न कहीं उसके साथ जुड़ा अपवाद इस सोच को ही वैध ठहराता है कि पति बलात्कार कर ही नहीं सकता और अगर करता भी है तो वह बलात्कार नहीं शादी की संस्था के तहत उसे दिया गया अधिकार है।
अगर एक ऐसी संस्था जिसकी नींव बलात्कार जैसे अपराध पर टिकी हो तो उस संस्था का खतरे में पड़ना ही बेहतर रास्ता है। मैरिटल रेप कोई घर की बात नहीं है बल्कि एक अपराध है। यह अपराध चाहे कोई भी करे इससे उसका चरित्र या उसकी परिभाषा बदल नहीं जाती।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (2005) में घरेलू हिंसा को कुछ इस तरह परिभाषित किया गया है- प्रतिवादी का वह व्यवहार या कृत्य घरेलू हिंसा के दायरे में आएगा जिससे महिला के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, किसी अंग को मानसिक और शारीरिक रूप से नुकसान होता है जिसमें शारीरिक शोषण, यौन शोषण, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक शोषण शामिल हो। इस एक्ट के तहत शादीशुदा महिला का शारीरिक शोषण घरेलू हिंसा के तहत आता है। यह एक्ट यह भी परिभाषित करता है कि “यौन शोषण” में यौन प्रकृति का कोई भी आचरण शामिल है जो महिला की गरिमा को अपमानित और उसका हनन करता है। हालांकि इस एक्ट के तहत उतने कठोर दंड का प्रावधान नहीं है। इसलिए मैरिटल रेप को विशेष रूप से एक दंडनीय अपराध घोषित करने की ज़रूरत है।
शादी की संस्था को बचाने का तर्क देकर मैरिटल रेप को वैध ठहराने वाली सरकार के अपने ही आंकड़े एक और तस्वीर पेश करते हैं। इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- 4 यह कहता है कि 31 फीसद विवाहित महिलाएं अपने पार्टनर द्वारा शारीरिक, मानसिक, भावनात्कम और यौन हिंसा का सामना करती हैं। यह सर्वे यह भी बताता है कि 15 से 49 साल की महिलाओं में से 83 फीसद ने माना कि उन्होंने अपने पति के द्वारा यौन हिंसा का सामना किया है। इनमें से सबसे ज़्यादा शारीरिक संबंध बनाने के दौरान शारीरिक बल के इस्तेमाल के मामले शामिल थे।
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ऐसा नहीं है कि भारत में मैरिटल रेप को अपराध सिद्ध करने की दिशा में काम नहीं हुआ। जस्टिस जे.एस वर्मा कमिटी की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि औरत और मर्द के बीच शादी और कोई अन्य निजी संबंध बलात्कार जैसी यौन हिंसा के खिलाफ एक वैध बचाव नहीं हो सकता। शिकायतकर्ता और आरोपी के बीच क्या रिश्ता है यह जांच के लिए प्रासंगिक नहीं है। कमिटी ने यह भी कहा था कि मैरिटल रेप को मिली छूट का आधार यह विचार ही है कि पत्नी पति की संपत्ति से अधिक कुछ नहीं है। केंद्र द्वारा नियुक्त किए पाम राजपूत कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में लाना चाहिए चाहे पत्नी की उम्र और दोषी और सर्वाइवर के बीच रिश्ता कुछ भी हो। सिर्फ इन कमिटियों ने ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह मांग की गई है कि भारत में मैरिटल रेप को कानूनी तौर पर अपराध माना जाना चाहिए। साल 2016 में यूएनडीपी की अध्यक्ष हेलेन क्लार्क ने कहा था कि जिन देशों ने मैरिटल रेप को अब तक अपराध घोषित नहीं किया है उन्हें जल्द से जल्द यह कदम उठाना चाहिए। महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध को खत्म करने के लिए बनाई गई संयुक्त राष्ट्र की कमिटी भी यह सिफारिश कर चुकी है कि भारत सरकार को मैरिटल रेप को एक अपराध घोषित कर देना चाहिए। यूएनडीपी के ही मुताबिक भारत में करबी 75 फीसद विवाहित महिलाएं मैरिटल रेप का सामना करती हैं। भारत आज भी उन 36 देशों में शामिल है जहां एक पति अपनी पत्नी का बलात्कार कर सकता है और उसे इस अपराध की कोई सज़ा भी नहीं मिलेगी।
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मैरिटल रेप के बचाव में दिए जाने वाले तर्क बेहद पितृसत्ता की जड़ों को खाद-पानी देते नज़र आते हैं। वैसे तो भारत में शादी की परंपरागत संस्था में औरत के कंसेंट यानी सहमति की चर्चा भी नहीं होती ये तर्क कानूनी रूप से एक महिलाओं के अधिकार का हनन तो करते ही हैं साथ ही साथ ये कंसेंट यानी सहमित के अस्तित्व को ही पूरी तरह खारिज कर देते हैं। अगर कोई महिला किसी की पत्नी है तो उसके साथ बलात्कार करना भी अपराध की ही श्रेणी में आता है। पुरुषों के ख़िलाफ़ इस कानून का इस्तेमाल गलत तरीके से किया जाएगा यह तर्क भी उस देश में दिया जाता है जहां हर दिन औसतन 87 बलात्कार के मामले दर्ज किए जाते हैं। क्या इस देश में सिर्फ उन्हीं कानूनों का दुरुपयोग होता है जो महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं जैसे कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा या दहेज हत्या से जुड़ा कानून ? क्या इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि देश के बाकी कानूनों का गलत इस्तेमाल नहीं किया जाता? लेकिन इस पितृसत्तात्मक समाज से निकलकर न्याय प्रणाली और संसद पहुंचे लोगों को यही लगता है कि इस कानून का इस्तेमाल पुरुषों के ख़िलाफ किया जाएगा। जबकि सच्चाई यह है कि पुरुष इस समाज में वह वर्ग है जिनके पास सबसे अधिक विशेषाधिकार हैं। और क्या सिर्फ इस वजह से कि कानून का दुरुपयोग होगा देश में नए कानून ही नहीं बनने चाहिए?
सरकार की तरफ से दिए जाने वाला इस तर्क से कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित कर देने से शादी और परिवार की संस्था खतरे में पड़ जाएगी, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मैरिटल रेप एक अपराध ही नहीं है। चाहे शादी के बंधन में बंधी महिला की मर्जी यौन संबंध बनाने में शामिल हो या न हो, चाहे घर के बंद दरवाज़ों के पीछे हर दिन उसका शारीरिक शोषण किया जाए लेकिन चूंकि शोषणकर्ता महिला का पति है इसलिए वह अपराधी नहीं है। शादी और परिवार की संस्था की दुहाई देने वाला तर्क भी वहीं से निकला है जहां परिवार के सदस्य जब यौन शोषण करते हैं तो बजाय उनके ख़िलाफ कार्रवाई करने के हमें चुप रहना सिखाया जाता है। अगर एक ऐसी संस्था जिसकी नींव बलात्कार जैसे अपराध पर टिकी हो तो उस संस्था का खतरे में पड़ना ही बेहतर रास्ता है। मैरिटल रेप कोई घर की बात नहीं है बल्कि एक अपराध है। यह अपराध चाहे कोई भी करे इससे उसका चरित्र या उसकी परिभाषा बदल नहीं जाती।
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तस्वीर: रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए