इंटरसेक्शनलजाति जाति हमारे परिवार को ही नहीं पूरी पीढ़ी को बर्बाद करती है

जाति हमारे परिवार को ही नहीं पूरी पीढ़ी को बर्बाद करती है

जाति का ज़हर सिर्फ़ हमारे परिवार को ही नहीं बल्कि हमारी नस्लों, आने वाली पीढ़ी को बर्बाद कर देता है। ज़रूरी है कि हम जाति के इस से दूर हों।

‘अरे दीदी! हमने त जतिए में मरत हई। ई एकता और शक्ति ऐसे में का आयी?’

कमलावती (बदला हुआ नाम) ने लड़कियों के दो गुटों के झगड़े को सँभालते हुए कहा। अक्सर कहा जाता है कि अब जात-पात ख़त्म हो चुका है। गाँव में भी लोग कहते है कि अब तो सब कमाने बाहर जा रहा है इसलिए अब कोई ज़ात-पात नहीं है। पर वास्तविकता ये है कि भले ही लोग पैसे कमाने की लालच से शहरों की तरफ़ जा रहे है और हो सकता है वो लोग अपने काम की जगह में किसी भी जात भी न पूछते हो, लेकिन अपने घर वापस आकर वो उसी जाति के रंग के साथ हो जाते है जिसकी घुट्टी उनको बचपन से ही दी जाती है।

एक गाँव में मैंने हाल ही में जातिगत भेदभाव का भयानक रूप देखा। जब स्कूल-कॉलेज में जाने वाली लड़कियाँ एक-दूसरे में जाति को लेकर टिप्पणी करने लगी। हमारे समाज में भले ही अब आधुनिकता का चोंगा ओढ़ा जा चुका है, लेकिन अभी भी जातिगत भेदभाव और हिंसा क़ायम है। हमारे घरों में बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि उसके घर मत जाओ वो दूसरे जाति का है, उसके साथ मत खेलो, उससे बाते मत करो, उसका छुआ हुआ कुछ भी मत लो। हमलोगों के घरों में भी तथाकथित निचली जाति के लोगों के लिए अलग बर्तन रखे जाते है। ये सब हमलोगों को बचपन से ही ऐसे सिखाया जाता है कि हमें इसकी आदत पड़ जाती है और एक समय के बाद हमें इसमें कुछ भी ग़लत नहीं दिखता है। ये सब होता है पितृसत्ता की विचारधारा से। आज भले ही हमारे संविधान ने जाति के आधार पर किसी भी तरीक़े के भेदभाव को अस्वीकार किया है। लेकिन ये हमारे समाज में आज भी जस का तस बना हुआ है।

जाति के इस फेर का पहला शिकार बनती है ‘महिलाएँ।‘ जैसा कि हम जानते पितृसत्ता अपनी सत्ता को क़ायम रखने के लिए महिलाओं को चुनती है। कभी सास तो कभी ननद जैसे अलग-अलग रिश्ते के बीच ये सत्ता की लड़ाई को इस तरीक़े से तूल देती है कि महिलाएँ आपस में ही एक-दूसरे की दुश्मन बनने लगती है। ठीक इसी तरह जाति की जटिलता भी महिलाओं में देखने को मिलती है।

पाँच बच्चों की माँ कमला (बदला हुआ नाम) बताती है कि उसके गाँव में पहले महिला समूह चलाया गया। इस समूह से जुड़कर महिलाएँ पैसों की बचत करती और अपने बैंक जैसा काम करती। इतना ही नहीं, अपने ब्याज के पैसों से महिलाओं ने सिलाई मशीन भी ख़रीद जिससे वे रोज़गार कर सकें। लेकिन संस्था की तरफ़ से शुरू की गयी ये पहल ज़्यादा दिन तक नहीं टिक पायी और जातिगत भेदभाव के चलते समूह इस कदर टूटा कि अब महिलाएँ एक-दूसरे का मुँह भी देखना पसंद नहीं करती। कमला बताती है कि समूह से जुड़ने के बाद वो ख़ुद में आत्मविश्वास महसूस करती थी। कई बार समूह की महिलाओं ने उसे पति की मार से बचाकर पुलिस-थाने तक उसका साथ दिया। लेकिन अब सब ख़त्म हो गया।

और पढ़ें : कोविड-19 में छुआछूत और भेदभाव की दोहरी मार झेल रही हैं दलित महिलाएँ

ऐसा सिर्फ़ कमला के साथ नहीं हुआ। कई ऐसे गाँव हैं जहां आज भी जाति के चलते महिलाओं को अपने अवसरों से हाथ धोना पड़ता है। जब हम जाति के प्रभाव को देखते है तो महिलाओं पर इसकी दोहरी मार ही पाते है। महिला होना हमलोगों के समाज में किसी चुनौती से कम नहीं है और उसपर भी जब महिला पर किसी ख़ास जाति का ठप्पा लगता है तो उसका बोझ भी महिलाओं को ही ढोना पड़ता है। गाँव में अक्सर तथाकथित ऊँची जाति की महिलाएँ तमाम आर्थिक तंगी और ग़रीबी के बावजूद भी कोई काम नहीं कर पाती, क्योंकि इसके लिए उनके जाति में अनुमति नहीं होती। वहीं तथाकथित निचली जाति की अगर कोई महिला पढ़ने लग जाए तो वो ऊँची जाति वालों को खटकने लगती है।

जातिगत भेदभाव सिर्फ़ छुआछूत तक सीमित नहीं है। बल्कि ये महिला हिंसा को भी बढ़ावा देता है। मुसहर जाति की रोली (बदला हुआ नाम) बताती है कि जब वो खेत में मज़दूरी करने जाती है तो कोई भी पुरुष उसपर कोई भी भद्दी टिप्पणी कर देता है और कई बार उसके साथ यौन उत्पीड़न करने की कोशिश करता है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वो तथाकथित निचली जाति से आती है। वहीं शारदा (बदला हुआ नाम) बताता है कि स्कूल जाने पर बच्चे उसे अपने पास बैठने नहीं देते, क्योंकि वो मुसहर जाति से ताल्लुक़ रखता है। स्कूल में उसे अलग बैठाकर खाना दिया जाता है। इन भेदभाव के चलते शारदा ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया और अब वो ईंट भट्टे पर काम करता है।

ऐसा है जातिगत भेदभाव का असर जो सिर्फ़ महिलाओं को नहीं बल्कि बच्चों पर भी बुरा असर डालता है। जाति का ज़हर सिर्फ़ हमारे परिवार को ही नहीं बल्कि हमारी नस्लों, आने वाली पीढ़ी को बर्बाद कर देता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम जाति के इस मायाजाल को समझें और इससे दूर हों। क्योंकि ये इतना बुरा है कि गाँव की महिलाओं को कभी भी एक नहीं होने देता है। उन्हें किसी भी अवसर में भाग भी नहीं लेने देता है। इससे महिलाएँ सदियों पीछे जा रही है।

और पढ़ें : जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले पांच सामाजिक आंदोलन


तस्वीर साभार : India today

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content