समाजकानून और नीति कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का विरोध बेबुनियाद या राजनीति से प्रेरित नहीं है

कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का विरोध बेबुनियाद या राजनीति से प्रेरित नहीं है

आंकड़ें के हिसाब से भारत के कुल किसानों में लगभग 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं जिनकी आय सीमित होती है क्योंकि वे अभी भी पारंपरिक तरीकों से खेती करते हैं। ऐसे में उन्हें डर है कि बड़ी फर्म उनपर दबाव डालकर अपने हिसाब से कीमतें निर्धारित कर सकती हैं।

भारत सरकार ने इस साल सितंबर में ‘भारतीय कृषि सुधार 2020’ के तहत तीन कृषि बिल पारित किए हैं। इन तीन कृषि कानूनों को लेकर किसानों में काफ़ी रोष है, ख़ासकर हरियाणा और पंजाब के किसान इस कानून के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध का नेतृत्व कर रहे हैं। एक ओर जहां केंद्र की बीजेपी सरकार के कई बड़े नेता और खुद प्रधानमंत्री इस बिल को ऐतिहासिक बता रहे हैं। वहीं, जीएसटी, नोटबंदी, श्रम कानून आदि के समय सरकार के किए गए वायदों को जुमले में बदलता जनता ने देखा है। ऐसे में किसी भी नए परिवर्तन को लेकर किसान पहले से ही डरे हुए हैं। साथ ही, ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े रोज़गार देने वाले कृषि सेक्टर में इस स्तर के संरचनात्मक बदलाव से पहले सरकार या उनके प्रतिनिधियों ने ‘स्टेकहोल्डर्स’ यानी हितधारकों से कोई संवाद या चर्चा नहीं की। न ही किसी सरकारी कमिटी ने इस पर बहस और विचार-विमर्श किया है। ऐसे में देशभर में निजीकरण की बहती बयार को देखते हुए किसानों का शक और गहरा हुआ है। किसान किसी चर्चा के बग़ैर पारित किए गए इन बड़े बदलावों को लेकर सहज नहीं हैं। इसलिए वे विरोध जताने अब सड़कों पर उतर चुके हैं।

कृषि सुधार, 2020 के तहत तीन प्रमुख कानून बनाए गए हैं जिनको लेकर विवाद पैदा हुआ है। इसमें पहला FPTC ( फार्मर्स प्रोड्यूज ट्रेड एंड कॉमर्स) यानी किसान उत्पाद व्यापार व वाणिज्य अधिनियम, दूसरा कीमत आश्वासन संबंधी किसान (सशक्तिकरण व सुरक्षा) अनुबंध व कृषि सेवा बिल (फार्म सेक्युरिटी बिल) और तीसरा, आवश्यक वस्तुओं संबंधित (संशोधन) अधिनियम शामिल हैं। इन सुधारों के माध्यम से सरकार कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग यानी अनुबंधित कृषि, कृषि-उद्योग और अधिक खुले कृषि क्षेत्र का लक्ष्य रख रही है तथा FPTC के माध्यम से मंडियों (APMC) के बाहर भी कृषि उत्पाद के ख़रीद और बिक्री का अवसर दे रही है। इन सब में किसान बुनियादी रूप से न्यूनतम समर्थक मूल्य के हटाए जाने और बड़ी कॉरपोरेट ताकतों की भागीदारी को लेकर चिंतित हैं। 

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आंकड़ें के हिसाब से भारत के कुल किसानों में लगभग 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं जिनकी आय सीमित होती है क्योंकि वे अभी भी पारंपरिक तरीकों से खेती करते हैं। ऐसे में उन्हें डर है कि बड़ी फर्म उनपर दबाव डालकर अपने हिसाब से कीमतें निर्धारित कर सकती हैं। साथ ही, मंडी के बाहर लेन-देन में आई समस्या या झगड़े के निदान के तरीक़े को लेकर भी वे सहमत नहीं हैं। किसानों का मानना है कि कोर्ट और मजिस्ट्रेट स्वतंत्र रूप से काम नहीं करते, प्रशासन में भ्रष्टाचार इतना है कि नौकरशाह किसानों की कभी नहीं सुनेंगे और इस तरह मौजूदा सुधारों में उनका ही शोषण होगा। मौजूदा हालातों को देखा जाए तो किसानों का यह डर बेबुनियाद नहीं है। 

आंकड़ें के हिसाब से भारत के कुल किसानों में लगभग 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं जिनकी आय सीमित होती है क्योंकि वे अभी भी पारंपरिक तरीकों से खेती करते हैं। ऐसे में उन्हें डर है कि बड़ी फर्म उनपर दबाव डालकर अपने हिसाब से कीमतें निर्धारित कर सकती हैं।

हम देख पाते हैं कि हमारे देश में लंबे समय से कृषि क्षेत्र बुनियादी स्तर पर ही समस्याएं झेल रहा है। भारत की बहुत बड़ी आबादी खेती में शामिल है, फिर भी कृषि सेक्टर आज भी पारंपरिक ढर्रे पर चल रहा है। खाद, उन्नत किस्म के बीज, भूमि की जांच, वैज्ञानिक तरीकों से खेती, नलकूप इत्यादि सुधार सभी किसानों नहीं पहुंचे हैं। एक बहुत बड़ी किसान आबादी अभी भी सिंचाई के लिए बारिश पर आश्रित है। इन सब से जूझते हुए समय-समय पर अपनी मांगों को लेकर किसानों ने आंदोलन भी किया है। देश के अलग-अलग भागों में बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े भी मौजूद हैं। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया रिपोर्ट्स के मुताबिक 2019 में लगभग 10,281 किसानों ने आत्महत्या की थी। बीते 10 सालों के आंकड़े देखे जाएं तो सरकारी नीतियों के हस्तक्षेप के बावजूद इनमें कोई बड़ा अंतर नहीं दिखता। इससे पता चलता है कि कहीं न कहीं सरकारी नीतियां असली समस्या का समाधान कर पाने में सफल नहीं हैं।

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इस संबंध में ‘पीपअल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया’ के पत्रकार पी.साईनाथ का कहना है,”किसानों की समस्या पर लगभग 3 हफ्ते का विशेष सत्र आयोजित किया जाना चाहिए। पिछले 20 सालों से कृषि समस्या (अग्रेरियन क्राइसिस) निरंतर बनी हुई है, भारत का कृषि क्षेत्र आज भी बहुत हद तक बरसात पर निर्भर है, किसान पूंजी के अनियोजित प्रवाह के कारण कर्ज में फंसे हुए हैं, जिसके कारण वे कृषि में कोई वैज्ञानिक बदलाव नहीं कर पा रहे हैं और समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।’ साईनाथ भारतीय कृषि क्षेत्रक में साल 1991 के बाद से चली आ रही समस्या की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि, ‘सरकारें अगर सच में समाधान करना चाहती हैं तो उन्हें महिला किसान, दलित और आदिवासी किसानों की समस्या को चिह्नित करना पड़ेगा। अगर इन सभी मुद्दों को अहमियत नहीं दी जाएगी तो किसी भी नीति और विकास से कोई उल्लेखनीय बदलाव आना संभव नहीं होगा।’

आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो 2014 से 2018 तक देशभर में किसानों ने कई विरोध-प्रदर्शन किए हैं। साल 2018 के बाद से किसान आंदोलनों की दरों में बढोत्तरी हुई है जिससे साफ पता चलता है कि किसान परेशान हैं और लगातार अपनी समस्याओं व सरकारी नीतियों की खामियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े हो रहे हैं, हालांकि बीते 20 सालों में राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के मुद्दों को पहचाना नहीं जा सका है और इसलिए ही संरचनात्मक सुधार की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया। वे कहते हैं,’ इस देश में जीएसटी जैसे ग़ैर ज़रूरी बिल के लिए आधीरात को संसद का जॉइंट सेशन बुलाया जा सकता है लेकिन किसानों की समस्या के लिए न कोई सत्र आयोजित होता है, न ही उसे संसदीय परिचर्चा का मुद्दा बनाया जाता है, जबकि किसानों की समस्या पर चर्चा व संवाद इस समय की लोकतांत्रिक मांग है।’ 

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असल में, किसान मामलों के विशेषज्ञों के अनुसार किसानों की समस्या का समाधान तब होगा,जब उनके मौजूदा हालात और यहां तक पहुंचने के कारणों का अध्ययन किया जाएगा। साथ ही कोई भी बदलाव तब सफ़ल होगा, जब बुनियादी स्तर से सशक्त कोशिशें की जाएंगी। इस संबंध में पी.साईनाथ ‘स्वामीनाथन कमीशन रिपोर्ट’ का हवाला देते हुए कहते हैं कि देशभर के किसान आंदोलनों में अक्सर इस रिपोर्ट के सुझावों को लागू किए जाने की मांग होती रही है लेकिन आज 14-15 साल के बाद भी न उसके सुझावों पर संसद में चर्चा हुई है, न ही अधिकतर लोग उसके बारे में जानते हैं। 

आइए, जानते हैं क्या है यह रिपोर्ट

2004 की यूपीए सरकार ने कृषि क्षेत्र में मौजूद समस्या का अध्ययन करने के लिए एक राष्ट्रीय कमेटी गठित की, जिसकी अध्यक्षता एमएस स्वामीनाथन कर रहे थे। यह कमेटी ‘नेशनल कमीशन फ़ॉर फार्मर्स’ थी जिसका गठन 10 नवंबर 2004 में किया गया था। इस कमेटी ने अपनी पहली चार रिपोर्टें दिसंबर 2004, अगस्त 2005, दिसंबर 2005 और अप्रैल 2006 तक जमा कर दी थी। इस कमीशन ने शोध और सुझावों के माध्यम से किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में बढ़ोत्तरी, उनकी बदहाली के कारक और किस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर नीति गढ़कर समग्रता से इन समस्याओं से निपटा जाना चाहिए, यह सब सुझाया। इसके सुझावों में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि सभी को सामाजिक सुरक्षा उपादानों और संसाधनों के उपभोग का समान अवसर मिले। इस कमेटी की रिपोर्ट में भू-सुधार, सिंचाई, पूंजी और बीमा, खाद्य सुरक्षा, रोजगार, कृषि की उत्पादकता और किसानों की प्रतिद्वंद्विता जैसे ज़रूरी मुद्दों पर शोध कर समावेशी और प्रगतिशील नीतियां गढ़ने का सुझाव दिया गया था। इसकी पांचवी और अंतिम रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को जमा की गई जिसमें 11वीं पंचवर्षीय योजना में परिकल्पित अवधारणा ‘तेज़ व अधिक समावेशी प्रगति’ का लक्ष्य समाहित था।

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समिति ने किसान और कृषि क्षेत्र की समस्याओं का अध्ययन कर पाया कि उनकी बदहाली और पिछड़ेपन का कारण भूमि सुधारों का अधूरा एजेंडा, सिंचाई के जल की मात्रा व गुणवत्ता, तकनीक की कमी आदि समस्याए हैं। ये सभी कारक मिलकर वह परिस्थिति रचते हैं, जिनसे हारकर किसान आत्महत्या से मौत का रास्ता चुुने को विवश होता है। कहा गया कि किसानों को बुनियादी संसाधनों के उपभोग का आश्वासन और अवसर दिया जाए, जिसमें भूमि, जैव-संसाधन, पूंजी और बीमा, तकनीक सम्मिलित हो और साथ ही नवीन खेती के तरीकों से भी उन्हें अवगत कराया जाए।

नेशनल कमीशन फ़ॉर फ़ार्मर्स ने विस्तृत रूप से खेती के सभी महत्वपूर्ण उपादानों का अध्ययन कर उसमें सुधार करने का सुझाव दिया था। इसमें किसानों तक पूंजी के प्रवाह में बढ़ोत्तरी करने का लक्ष्य था, साथ ही, अलग-अलग जलवायु की मिट्टी के हिसाब से उनमें खेती करने के तरीके के बारे में किसानों को विशेष कार्यक्रम आयोजित कर जागरूक करना, अंतरराष्ट्रीय कीमतों के गिरने पर होने वाले आयात से घरेलू किसानों की सुरक्षा और देश में सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक मध्यम अवधि नीति (मीडियम टर्म स्ट्रेटेजी) भी सुझाई गई थी। यह नीति किसानों की आय बढ़ाने और देश में कृषि तंत्र की स्थिरता का लक्ष्य लेकर चल रही थी। हालांकि इस कमेटी के सुझावों को लागू नहीं किया गया, न ही सरकारों ने इसके शोधों को ध्यान में रखते हुए समस्याओं को चिह्नित कर उनका समाधान करने का प्रयास किया गया, फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में चलती आ रही समस्या और गहरी ही हुई। किसान घाटा सहते रहे, कर्ज में डूबकर कइयों ने आत्महत्या का रास्ता चुना। इन सब के बावजूद आज लगभग 14 साल बाद भी इस रिपोर्ट पर न संसद में कोई चर्चा हुई, न ही मीडिया इसपर बात कर रहा है। इस बारे में पी.साईनाथ कहते हैं “आज किसानों की समस्याओं पर सत्र लोकतंत्र की मांग है। एक ऐसा सत्र आयोजित किया जाए जिसमें कृषि समस्या के पीड़ित संसद के सेंट्रल हॉल की ज़मीन पर खड़े होकर राष्ट्र को बताएं कि यह समस्या उनके लिए क्या है और इसने उन्हें कैसे प्रभावित किया है।”

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