समाजख़बर साड़ी चैलेंज : बुनियादी मुद्दे से भटका कर पितृसत्ता को पोस रहा है

साड़ी चैलेंज : बुनियादी मुद्दे से भटका कर पितृसत्ता को पोस रहा है

आज भी ग़रीबी और संकीर्ण मानसिकता की मार झेल रही मध्यम व निम्न वर्ग की महिलाएँ साड़ी के भूगोल में अपने अस्तित्व की पहचान और इतिहास खो रही हैं।

आजकल सोशल मीडिया में साड़ी चैलेंज का चलन बढ़ा है। किसान आंदोलन, बेरोज़गारी और ग़रीबी, मंदी जैसे सभी बुनियादी सवालों से दूर महिलाएँ एक से बढ़कर एक साड़ी में अपनी फ़ोटो सोशल मीडिया पर शेयर कर रही हैं। साड़ी की चर्चा एक़बार फिर ज़ोरों पर है। सोशल नेट्वर्किंग को मज़बूत करने के नामपर सोशल मीडिया पर महिलाएँ एक-दूसरे को साड़ी चैलेंज दे रही है। कई सारे लोग इसे सकारात्मक पहल भी बता रहे हैं, इस हवाले के साथ कि ये भारतीय संस्कृति को संजोने और बढ़ावा देने की दिशा में कदम है। साथ ही, साड़ी की वरायटी और इसमें ख़ूबसूरत दिखने के लिए अच्छे-अच्छे कैप्शन भी लगाए जा रहे हैं। तो आइए आज बात करते है इसी ‘साड़ी’ की। इसके प्रभाव की और इसके पीछे की पितृसत्तामक राजनीति की भी।

साड़ी। ये सुनते ही हमेशा हमारे मन में एक औरत की ही छवि आती है। ठीक उसी तरह रसोई और घर सँभालना जैसे शब्द सुनते ही हमारे मन में औरत की छवि आती है। इसके लिए हमलोगों को ज़्यादा सोचना भी नहीं पड़ता, क्योंकि ये चीज़ें हमारे समाज की हवा, मिट्टी, बात, व्यवहार और संस्कार में रची बसी हुई है। ये हमें कोई बताए या नहीं, हम इन पहनावे, व्यवहार और विचार को जीते चले जाते है। आज मैं बात करने जा रही हूँ, साड़ी की। जी वही साड़ी जिसमें कहने को ‘हर औरत बेहद सुंदर लगती है।‘

हमलोगों के गाँव में आज भी खेतों का अधिकतर काम महिलाएँ करती है। वो घास करने जाती है। बीज बोती है। कटाई करती है। लेकिन जब फसल काटकर घर लाने की बात आती है तो इसके लिए उन्हें पुरुषों का मुँह निहारना पड़ता है। क्योंकि फसल काटकर घर लाने के लिए साइकिलनुमा गाड़ी की ज़रूरत होती है, जिसमें फसल लादकर लायी जाती है। चूँकि गाँव की महिलाएँ साड़ी पहनती है इसलिए वे इसे चलाने में असमर्थ होती है। वे ऐसे हर काम के लिए पुरुषों का मुँह निहारती है जिसमें दूर चलना होता है, क्योंकि साड़ी पहनकर दूर चलना उनके लिए मुश्किल होता है। वहीं दूसरी तरफ़ गाँव में आज भी स्कूल कॉलेज काफ़ी दूरी पर है, जहां पढ़ने के लिए लड़कियों को साइकिल का इस्तेमाल करना पड़ता है। पढ़ाई पूरी करने के बाद या उसके दौरान जब उनकी शादी होती है तो ये साड़ी ही उनकी गतिविधि पर सबसे पहले रोक लगाती है। अगर लड़की पढ़ाई या नौकरी कर रही होती है तो उसपर अप्रत्यक्ष रूप से लगाम लगाने के लिए ‘साड़ी पहनने के लिए दबाव बनाया जाता है।‘ साधारण सी बात है, अगर लड़की साड़ी पहनेगी तो वो साइकिल नहीं चला पाएगी और इस तरह गरीब परिवार से आने वाली लड़की एक पल में अपने सारे अवसरों से हाथ धो देती है।

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इसके साथ ही, आज हमलोग चाहे जितना भी पर्दा प्रथा के ख़त्म होने की बात कहें, आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बहुओं का घूँघट लेना ज़रूरी होता है। यही उनके संस्कार, सभ्यता और व्यवहारिकता का मानक होता है। अगर कोई बहु घूँघट नहीं लेती है तो सवाल सीधे उसके चरित्र पर होता है। और घूँघट का सीधा नाता साड़ी से है। घूँघट सिर्फ़ उनके चेहरे को ही नहीं बल्कि उनकी आवाज़, बोलने की ताक़त और अपने विचार रखने के अधिकार को भी बेहद सीमित कर देता है। इतना ही नहीं, आज भी चूल्हे पर या गैस पर खाना बनाती महिलाओं के अक्सर जलने की घटनाएँ सामने आती है, जिसका कारण होता है उनका पहनावा, यानी कि साड़ी। किसी भी भीड़भाड़ वाली जगह या फिर किसी भी समस्या में महिलाएँ इसी साड़ी की वजह से भाग नहीं पाती।  

आज भी ग़रीबी और संकीर्ण मानसिकता की मार झेल रही मध्यम व निम्न वर्ग की महिलाएँ साड़ी के भूगोल में अपने अस्तित्व की पहचान और इतिहास खो रही हैं।

साड़ी से जुड़ी ये कुछ ऐसी बातें जिसे हम सभी जानते है, समझते है और अनुभव भी करते है। लेकिन इसके बावजूद साड़ी की वाहवाही करते नहीं थकते। मेरा मानना है कि साड़ी सीधेतौर पर महिलाओं की गतिशीलता और उनके अवसरों को कम कर देती है, ख़ासकर तब जब इसे दबाव में पहनने को मजबूर किया जाता है। ऊपर मैंने जिन भी बातों का ज़िक्र किया वो सब ज़मीनी हक़ीक़त है, उस ज़मीन की जहां ग़रीबी है और महिलाओं को चाहते न चाहते साड़ी पहनने को मजबूर किया जाता है।  

कोई भी पहनावा किसी भी संस्कृति का परिचायक होता है। ठीक उसी तरह भारत में महिलाओं के लिए साड़ी का पहनावा भी पितृसत्तामक सोच को बतलाता है। वो सोच जो महिलाओं को आगे बढ़ना स्वीकार नहीं करती है। वो ये नहीं स्वीकारती कि महिलाएँ भी पुरुषों की तरह लंबे कदम भरकर उनके बराबर की चाल चलें। साइकिल चलाकर काम करने जाएँ। बिना किसी घूँघट के खुली आँखों से अपने सपने देखे और खुले सिर में उन सपनों को पूरा करने की योजना बनाए। साड़ी में जेब भी नहीं होती, पर ये महिलाओं को ख़ुद में उलजाए रहती है, जिससे वे पैसों के बारे में सोच भी नहीं पाती।

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हमें नहीं भूलना चाहिए कि इंसान की पहचान उसके पहनावे नहीं बल्कि उसके विचारों से होती है। ठीक उसी तरह जो महिला साड़ी नहीं पहनती है, घूँघट नहीं लेती उसे चरित्रहीन कहना कहीं से भी सही नहीं है। इसलिए सालभर में किसी ख़ास मौक़े पर अपनी मर्ज़ी से चंद घंटों के लिए साड़ी पहनकर इसे सभ्यता और संस्कृति का हवाला देकर ख़ूबसूरती का मानक बताना क़तई सही नहीं और अगर आप ऐसा करते है तो इससे पहले आपको एक़बार ये ज़रूर सोचना चाहिए कि आज भी ग़रीबी और संकीर्ण मानसिकता की मार झेल रही मध्यम व निम्न वर्ग की महिलाएँ साड़ी के भूगोल में अपने अस्तित्व की पहचान और इतिहास खो रही हैं। सिर्फ़ एक साड़ी के नामपर उनकी गतिशीलता को रोक दिया जाता है। आज भी चाहे कितनी भी तेज गर्मी हो, या कड़कड़ाती ठंड या फिर तेज बारिश उन्हें हर मौसम में पतले झन्ने जैसे कपड़े वाली साड़ी पहनने को मजबूर किया जाता है।

हो सकता है साड़ी चैलेंज के तहत साड़ी में फ़ोटो शेयर करने वाली महिलाओं के लिए ये शक्ति और आत्मविश्वास की बात हो। पर सभ्यता और परंपरा के नामपर ज़बरदस्ती साड़ी पहनने को मजबूर महिलाएँ इसकी दासता झेलने को मजबूर है। ये सब विशेषाधिकार और दमन के बीच की हल्की-सी फाँक है। सरल शब्दों में कहूँ तो सिक्के के दो पहलू जैसा। जो एक साड़ी आपकी पसंद, सुविधा और समायनुसार पहनी जाती है वो आपके लिए सहज होती है। पर यहाँ ये भी याद रखने की ज़रूरत है कि हमारे आज़ाद देश में आज भी कितनी महिलाएँ अपनी सहजता और पसंद के पहनावे को पहनने के लिए आज़ाद है। कभी उन्हें लोक-लाज-संस्कृति तो कभी घर की आर्थिक तंगी के चलते दो कपड़ों में सालों गुज़ारने पड़ते है। इसलिए आज के इस आधुनिक दौर में हमें अपने विशेषाधिकार का प्रदर्शन इस तरह नहीं करना चाहिए कि वो अन्य वर्गों के लिए दोहरे दमन की वजह बने। क्योंकि एक वास्तविकता ये भी है कि मीडिया संस्कृति को बढ़ावा देने और पोसने का बड़ा साधन है। आपकी एक पोस्ट या टीवी का एक प्रचार पूरे घर-परिवार-समाज को आपने पहनावे-बोली-भाषा के चलन से जोड़ने को मजबूर कर देता है। इसलिए इन दिखावटी चैलेंज के विचार को समझिए और ख़ुद को पितृसत्ता की राजनीति से बचाते हुए बुनियादी सवालों से जुड़िए।

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तस्वीर साभार : stock  

Comments:

  1. Dr.Raj Kumar says:

    Bahut hi badiya jankari

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