पितृसत्ता, ये शब्द सुनते ही हमारे में पहला शब्द आता है – पिता या पुरुष की सत्ता। जब भी हम पितृसत्ता की बात करते है तो इसका मतलब पुरुषों की ख़िलाफ़त से माना जाता है। शाब्दिक अर्थ में पितृसत्ता का मतलब ‘पितर यानी कि पूर्वज जो आमतौर पर पुरुष को ही माना जाता है, उनकी सत्ता से है।‘ लेकिन वैचारिक रूप से इसका मतलब सिर्फ़ पुरुष से नहीं है।सोशल मीडिया के युग में अक्सर हमें पितृसत्ता तो कभी नारीवाद के मुद्दे पर ढ़ेरों लंबे-चौड़े लेख जैसे पोस्ट पढ़ने को मिल जाते है। लोग अलग-अलग क्रियाकलापों से इस विचारधारा को जोड़कर प्रस्तुत करते है, नतीजतन हमारे मन में भी इन शब्दों को लेकर आधी-अधूरी समझ पैठ जमा लेती है। पर ज़रूरी है कि इस आधी-अधूरी पैठ को दूर करके मज़बूत समझ बनायी जाए।
सबसे पहले तो आपको बताऊँ, पितृसत्ता का ताल्लुक़ किसी लिंग या जेंडर से नहीं वैचारिकी यानी कि सोचने-समझने के नज़रिए से है। पितृसत्ता एक विचारधारा है, जो पुरुषों को महिलाओं से बेहतर मानती है और इसी वैचारिकी के आधार पर अपने पूरे समाज को संचालित करती है। भारत एक पितृसत्तामक समाज है, यानी कि वो समाज जहां पुरुषों को महिलाओं से बेहतर माना जाता है। पुरुषों को ही सभी ताक़त, संसाधन और निर्णय लेने का हक़दार माना जाता है। ये वैचारिकी बेहद बारीकी से हमारे रसोई घर से लेकर देश की नीति-निर्माण तक काम करती है। ये हमारे तीज-त्योहार, बोली-भाषा, पहनावे और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल है। सरल शब्दों में अगर मैं ये कहूँ कि पितृसत्ता की अपनी राज करने की नीति है तो ये कहीं से भी ग़लत नहीं होगा।
अब इसे सोची समझी चाल ही कहेंगें कि पितृसत्ता ख़ुद की शुरुआत और पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाने-निभाने के लिए महिलाओं को ही अपना पहला शिकार बनाती है और ये शिकार इतनी चालाकी से किया जाता है कि इसका शिकार ही इसका पोषक और संचालक बन जाता है। कैसे? आइए जाने –
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घर के काम में निपुणता मतलब ‘वाह वाह’
जब हमारे घर की महिलाएँ या लड़कियाँ घर के काम, जैसे- खाना बनाना, कपड़े धोना, घर सँभालना, वग़ैरह-वग़ैरह को बेहद अच्छे से सँभालती है तभी उसे घर, परिवार और रिश्तेदारों से वाहवाही मिलती है। भले ही महिलाएँ पढ़ाई-लिखाई या ख़ुद के व्यक्तिगत विकास स्तर पर लाख पीछे हों, घर के कामों में उनकी निपुणता परिवार के पहली वरीयता होती है और पूरा परिवार ‘घरेलू’ ‘सुशील’ और ‘समझदार’ जैसे तमग़ों के साथ महिलाओं को हाथों-हाथ लिए रहता है। वहीं अगर कोई लड़की पढ़ने में अच्छी हो या अच्छी नौकरी कर रही हो पर घर के काम में थोड़ी भी रुचि न रखें तो उसे हेय नज़र से देखा जाता है, जिसके चलते महिलाओं को अपने काम, शौक़ के साथ-साथ घर सँभालना सबसे ज़रूरी और जैसे ख़ुद ही वैधयता के लिए ज़रूरी लगता है। इस तरह समाज अपने घर आचार-व्यवहार में महिलाओं का स्थान घर में सीमित करने का अघोषित ऐलान करता है, जिसके लिए महिलाओं के माथे पर ज़िंदगीभर का घर का काम मढ़ दिया जाता है।
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बेटा पैदा करने के बाद ‘विशेषाधिकार’
पितृसत्ता पुरुषों को महता देती है क्योंकि वे उन्हें ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखती है। ऐसे में जब कोई महिला शादी के बाद बेटे को जन्म देती है तो उसकी अहमियत घर में बाक़ी महिलाओं की अपेक्षा बढ़ा दी जाती, खासकार उस महिला सदस्य से जिसने बेटे को जन्म नहीं दिया है। घर में बेटे पैदा करने वाली महिला को कई विशेषाधिकार दिए जाते है, वो कई लोक पर्व जैसे – उत्तर प्रदेश में जिउतिया तो बिहार में छठ पूजा जैसे पर्व मनाने के योग्य हो जाती है। ये सब पितृसत्ता के गहने जैसा होता है, जिसे पाने का सपना बचपन से ही महिलाओं के भीतर भी भर दिया जाता है, जिसे पूरा करके ही वे ख़ुद का जीवन सफ़ल मानने को मजबूर हो जाती है।
हमें ये भी याद रखना है कि जब हम पितृसत्ता के आगे घुटने टेकते है तो सिर्फ़ हम नहीं हमारी पूरी पीढ़ी उसके आगे अपना घुटना टेक देती है।
अच्छी औरत – बुरी औरत का स्वाँग और स्त्रीद्वेष
पितृसत्ता की सबसे बड़ी राजनीति ‘अच्छी औरत’ और ‘बुरी औरत’ के विचार में है, जिसमें वो महिलाओं की एकता को सीधेतौर पर प्रभावित करती है। इस विचार मूल ये है कि जो भी महिलाएँ बिना किसी सवाल-आवाज़ के सिर झुकाए पितृसत्ता के बताए धर्म-कर्म और वैचारिकी को स्वीकार कर इसकी पोषक-वाहक बनती है, वो अच्छी औरत होती है। यहाँ अच्छी औरत का मतलब भी समझना ज़रूरी है – अच्छी औरत यानी कि वैध औरत, स्वीकृत औरत और पितृसत्ता के दिए विशेषाधिकारों से लैस औरत। वहीं जो औरत पितृसत्ता के बात-विचार-व्यवहार पर सवाल करती है, उन्हें नकारती है, चुनौती देती है वो ‘बुरी औरत’ होती है। बुरी औरत को अवैध माना जाता है और उसे समाज स्वीकार नहीं करता। पितृसत्ता के माध्यम से महिलाएँ इन दो ख़ेमों में बंट जाती है और बीच की खाई में स्त्रीद्वेष अपनी पैठ जमा लेता है।
इस तरह पितृसत्ता का पहला शिकार महिलाएँ होती है। उन्हें कभी विशेषाधिकार के लालच से तो कभी सजा के डर से पितृसत्ता अपने ख़ेमे में करती है। जैसा कि मैंने शुरुआत में ही बताया, पितृसत्ता एक विचारधारा है, जो किसी की भी हो सकती है। प्रसिद्ध नारीवादी व लेखिका कमला भसीन जी के शब्दों में कहूँ तो ‘जिस कुँए से पुरुष पानी पीता है, उसी कुएँ से महिलाएँ भी पानी पीती है।‘ यानी कि जिस तरह पितृसत्तामक वैचारिकी वाला सामाजीकरण पुरुषों का होता है ठीक उसी तरह महिलाओं का भी होता है, ऐसे में ज़रूरी नहीं कि ‘सत्ता सिर्फ़ पुरुष के हाथ में होगी।‘ इसका मतलब ये है कि जो भी बेहतर तरीक़े से पितरसत्ता को पोसेगा, सत्ता उसके हाथ में होगी। फिर वो चाहे महिला हो, पुरुष हो या किसी अन्य जेंडर से जुड़ा हो।
ग़ौरतलब है कि बदलते समय के साथ पितृसत्ता का स्वरूप भी बदल रहा है और इस बदलते स्वरूप का वार भी अब महिलाओं पर घातक होता जा रहा है, क्योंकि महिलाएँ अब आगे बढ़ रही है और पितृसत्ता को चुनौती दे रही है। साथ ही, हमें ये भी याद रखना है कि जब हम पितृसत्ता के आगे घुटने टेकते है तो सिर्फ़ हम नहीं हमारी पूरी पीढ़ी उसके आगे अपना घुटना टेक देती है। इसलिए ज़रूरी है कि हम पितृसत्ता के वार को पहचाने और हम महिलाओं को इसका शिकार होने से बचाएँ। याद रखें, पितृसत्ता के वार से आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ख़ुद बचा सकती हैं, क्योंकि पितृसत्ता हर कदम पर अपने विशेषाधिकार का आपको लोभ दिखाएगी या अपनी ख़िलाफ़त की सजा से डराएगी, ऐसे में डरना या अड़ना, ये निर्णय आपका होगा।
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