नारीवाद नए साल में नारीवादी रसोई का निर्माण | नारीवादी चश्मा

नए साल में नारीवादी रसोई का निर्माण | नारीवादी चश्मा

रसोई का हमारे समाज में महिला स्थिति से बेहद गहरा संबंध है। ये वही रसोई है, जो घर में बड़ी होती छोटी बच्ची की पहली प्रयोगशाला बना दी जाती है।

साल 2021 का ये मेरा पहला लेख है। अब तक के लेखों में समावेशी नारीवाद से जुड़े कई मुद्दों पर अपनी बातें आपसे साझा कर चुकी हूँ। कई समस्यायें तो कई समाधान भी सुझाए। इसी तर्ज़ पर, आज भी आपके साथ एक ज़रूरी विषय पर लेख साझा कर रही हूँ। जिस वक्त आप मेरा यह लेख पढ़ रहे हैं, उस वक्त से पहले कई वक्त-दौर आपकी ज़िंदगी से गुजर चुके है। कभी आप समाज के बनाए पितृसत्तात्मक ढाँचे में चले तो कभी उसे चुनौती दी। लाज़िम है कई बार आपने इसे बदलने की भी कोशिश ज़रूर की होगी, कभी ये कामयाब रही होगी तो कभी असफल। पर आपको मालूम है कई बार बेहद छोटी-छोटी बातें, विचार या पहल हमारे जीवन और आसपास के माहौल में बड़ा बदलाव लाते है। आइए बात करते है ऐसी ही एक छोटी-सी पहल की, जो आपके जीवन को नारीवाद और आपके आसपास के माहौल को लैंगिक समानता और संवेदनशीलता से जोड़ सकती है।

‘रसोई’ इस शब्द, इस जगह को हमेशा महिला के संदर्भ में भी देखा जाता है। रसोई यानी कि वो जगह जहां हम अपना खाना बनाते है। वो खाना जो हमारे स्वाभाविक गुण और ज़रूरत ‘भूख’ को पूरा करती है। क्या आप जानते है रसोई का हमारे समाज में महिला स्थिति से बेहद गहरा संबंध है। ये वही रसोई है, जो घर में बड़ी होती छोटी बच्ची की पहली प्रयोगशाला बना दी जाती है, जिसमें उसे ख़ुद की इच्छाओं और पसंद की आहुति देकर दूसरों का स्वाद बनाए रखने वाली पाक कला सिखाई जाती है। ये वही रसोई है, जिससे हर महिला का अस्तित्व आंका जाता है। ये वही रसोई है, जिसका हर एक काम लड़की का ज़िम्मा समझा जाता है। ये वही रसोई है, जहां महिला के काम को ‘बेकाम’ बता दिया जाता है। लेकिन जैसे ही ये रसोई किसी होटल, ढाबे, ढेले या खोमचे की होती है, उस रसोई का जेंडर अपने आप बदल जाता है और यहाँ का काम ‘रोज़गार’ समझा जाता है। क्योंकि इस रसोई की जगह घर की दहलीज़ से बाहर होती है और इसमें काम करने के पैसे मिलते है।

तो इतनी ज़रूरी है ये रसोई। चूँकि रसोई का ताल्लुक़ इंसान की बुनियादी ज़रूरत से है तो इसका अस्तित्व तब तक रहेगा जब तक इंसानी सभ्यता रहेगी यानी इंसान का जीवन रहेगा। ऐसे में वो रसोई जो परिवार को सुबह-शाम खाने-नाश्ते वाली पितृसत्तात्मक प्लेट लगाती है, अगर उसकी राजनीति में थोड़ा बदलाव किया जाए तो ये परिवार में लैंगिक समानता और संवेदनशीलता का संचार भी कर सकती है। कैसे? आइए जानते है –

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प्यार का इज़हार रसोई में हाथ बँटाकर

प्यार में बेहद ताक़त होती है। फिर वो प्यार अपने साथी से हो, बेटे से हो, पिता से हो या किसी भी अन्य परिवार के सदस्य से हो। अगर हम अपने घर के पुरुषों को रसोई के काम में मदद करने के लिए प्रेरित करें तो ये हमारे घर में लैंगिक समानता और संवेदनशीलता को बढ़ावा देगा। हम घर में प्यार के इजहार के लिए रसोई को चुन सकते है जहां किसी के लिए प्यार जताने के लिए पुरुष साथी अपनी महिला साथी की मनपसंद चीज़ बनाए। ये घर में महिलाओं की पसंद को भी क़ायम रखेगा, जिसे अक्सर पितृसत्ता के चलते नज़रंदाज़ कर दिया जाता है।

रसोई का हमारे समाज में महिला स्थिति से बेहद गहरा संबंध है। ये वही रसोई है, जो घर में बड़ी होती छोटी बच्ची की पहली प्रयोगशाला बना दी जाती है।

रसोई का काम ‘मतलब’ ज़रूरी काम

घर में बच्चों के मन में हमेशा ये बात बैठाए कि रसोई का काम कोई छोटा काम नहीं है। साथ ही, ये सिर्फ़ लड़कियों या महिलाओं का काम नहीं है। जिस तरह भूख का किसी लिंग या जेंडर से वास्ता नहीं है ठीक उसी तरह रसोई का भी किसी लिंग या जेंडर से वास्ता नहीं है। इसलिए अगर उन्हें भूख लगती है तो इसके लिए वे ख़ुद भी खाना बनाना सीखें और अगर कोई उनके लिए खाना बनाता है तो उसके कृतार्थ रहें। साथ ही, ये भी समझाएँ कि बाक़ी ज़रूरी कामों की तरह ही ज़रूरी काम है। चूँकि बच्चे ही हमारा भविष्य है इसलिए उन्हें पिंक-ब्लू और घर का काम व पैसे कमाने, जैसे भेदभाव वाले विचारों से बचाना बेहद ज़रूरी है।

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याद रखें, औरत अपनी बच्चेदानी से रसोई नहीं सँभालती

अक्सर कहा जाता है कि रसोई का काम औरतों का होता है। रसोई का काम वो माँ के गर्भ से ही सीख के आती है। रसोई का काम तो महिलाओं को आना ही चाहिए। वग़ैरह-वग़ैरह। ये बातें हम महिलाओं को बचपन से ही इतनी बार सुनाया जाता है कि कई बार हम इसे लेकर जीने लगती है, अगर आपके मन में भी कभी ये विचार आए तो एक बात याद रखें – जिसे मैं प्रसिद्ध नारीवादी व लेखिका कमला भसीन जी के शब्दों में कहूँ तो ‘प्रकृति ने आदमी और औरत को एक जैसा बनाया है, बस उनमें कुछ बुनियादी फ़र्क़ किया है, जो महिला-पुरुष को एक-दूसरे से अलग करते है, वो ये कि महिला बच्चे पैदा कर सकती है और उन्हें दूध पिला सकती है, जिसके लिए उनके पास बच्चेदानी और स्तन है। वहीं पुरुष बच्चे पैदा करने के लिए बीज का निर्माण कर सकते जिसके लिए उनके पास लिंग है। पर जब हम रसोई जैसे किसी भी काम की बात करते है तो हमें ये याद रखना है कि महिलाएँ अपने स्तन या बच्चेदानी से खाना नहीं बनाती। ठीक वैसे ही पुरुष किसी होटल में अपने लिंग से रोटी नहीं बनाते। कहने का मतलब ये है कि औरत का जन्म रसोई के नहीं हुआ है, ये बात ख़ुद भी समझें और दूसरों को भी समझाए।

रसोई से जुड़ी ये कुछ ऐसी बुनियादी पहल है, जो आपने पितृसत्तात्मक रसोई को नारीवादी रसोई में बदलने में मदद करेगी। वो नारीवादी रसोई जहां खाना बनाना ‘नीचा’ नहीं बल्कि ‘ज़रूरी और सम्मानजनक’ काम समझा जाए। वो नारीवादी रसोई जहां का काम किसी जेंडर या लिंग से नहीं बल्कि ज़रूरत, पसंद, सहमति और शौक़ से जुड़ा हो। इस नए साल ‘नारीवादी रसोई का निर्माण’ अपना रेज़लूशन बनाइए और लैंगिक समानता और संवेदनशीलता को ख़ुद के और अपने परिवार के जीवन से जोड़िए। आने वाले समय में आपकी ये छोटी-सी पहल बड़े बदलावों का मूलाधार साबित होगी।  

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तस्वीर साभार : HW News

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