इंटरसेक्शनलजेंडर कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव और यौन उत्पीड़न का सामना करती महिलाएं

कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव और यौन उत्पीड़न का सामना करती महिलाएं

कभी-कभी तो योग्य होने के बावजूद महिलाओ को उनके लिंग के आधार पर कई विशेष अवसरों से वंचित रखा जाता है। साथ ही उन्हें ऐसी टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं, "अरे तुम लड़कियों से ये काम नहीं हो पाएगा।"

आज समाज का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र होगा जहां महिलाओं ने अपना परचम न लहराया हो। हर क्षेत्र में उन्होंने अपना एक स्थान बना लिया है पर वह मुकाम हासिल करने में उनके सामने कई चुनौतियां आई। घर से लेकर कार्यस्थल तक लैंगिक भेदभाव, पितृसत्तात्मक समाज और उसकी रूढ़ीवादी विचारधारा आदि जैसी कई तरह की चुनौतियों का सामना महिलाएं हर दिन कर रही हैं। हालांकि उनका यह संघर्ष सिर्फ यही तक सीमित नहीं रहता, कार्यस्थल में अपनी जगह बना लेने के बाद भी वहां महिलाओं को कई तरह के लैंगिक भेदभाव, असमानता और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।

महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर विशेष रूप से उनके लिंग के आधार पर ही देखा जाता है। नौकरी के लिए इंटरव्यू में उनसे उनकी योग्यता से जुड़े सवालों से पहले ये सवाल पूछे जाते हैं, “क्या नाईट शिफ्ट में काम करने से उनके घरवालों या पति को कोई आपत्ति तो नहीं होगी? क्या परिवारवालों ने उन्हें काम करने की अनुमति दे दी है?” महिलाओं से इंटरव्यू के दौरान पूछे जाने वाले ऐसे महिला-विरोधी सवाल करना तो बहुत आम सी बात हो गई है। कोई भी औरत जब कोई नया काम करने के लिए आगे बढ़ती है सबसे पहले उससे ऐसे ही सवाल किए जाते हैं जो कि हम सब ने ही कभी ना कभी सुने ही होंगे।

वहीं कभी-कभी तो योग्य होने के बावजूद महिलाओ को उनके लिंग के आधार पर कई विशेष अवसरों से वंचित रखा जाता है। साथ ही उन्हें ऐसी टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं, “अरे तुम लड़कियों से ये काम नहीं हो पाएगा।” “समाज में यह रुढ़ीवादी सोच आज भी बनी हुई है कि औरतें पुरूषों के मुकाबले गैर-तकनीकी कामों में अधिक और तकनीकी कामों में कम योग्य होती हैं। इस सोच के चलते उन्हें खुद को साबित करने के लिए कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। कई बार उन पर पुरुषों की तुलना में काम का अधिक बोझ डाल दिया जाता है और उन पर अन्य पुरुष कर्मचारियों के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव बना रहता है जिसके कारण महिलाओं को काफी तनाव और मानसिक असंतोष से जूझना पड़ता है।

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कार्यस्थल पर महिलाओं की इसी मजबूरी का फायदा भी उठाया जाता है कि वे अपने साथ हो रही इन ज़्यादतियों न तो ज़्यादा विरोध करेंगी और ना घर पर बता सकती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ये बात हम सब जानते हैं कि अधिकतर महिलाओं को अपने घरवालों से बाहर काम करने जाने की अनुमति विशेष शर्तों पर ही दी जाती है और अगर वह घर पर अपनी परेशानियों का ज़िक्र करेंगी तो उन्हें काम छोड़कर घर पर रहने की ही हिदायत मिलेगी। अक्सर इसी बात का फायदा उठाकर उनके बॉस या सहकर्मी भी उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करने का प्रयास करते है।

कभी-कभी तो योग्य होने के बावजूद महिलाओं को उनके लिंग के आधार पर कई विशेष अवसरों से वंचित रखा जाता है। साथ ही उन्हें ऐसी टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं, “अरे तुम लड़कियों से ये काम नहीं हो पाएगा।”

कार्यस्थल पर होनेवाली ऐसी ही यौन उत्पीड़न की घटनाओं को रोकने के लिए साल 2013 में ‘महिलाओं का यौन उत्‍पीड़न (निवारण, निषेध एवं निदान) अधिनियम, 2013 लागू किया था जो कि सरकारी दफ़्तरों, निजी कार्यालयों, गैर सरकारी संगठनों और असंगठित क्षेत्रों पर लागू होता है। पर इसके बावजूद कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी जिसका एक बड़ा रूप हमने साल 2019 में शुरू हुए #मीटू आंदोलन में देखा, जिसमें महिलाओं ने खुलकर कार्यस्थल पर अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के बारे में बताया।

तो वहीं दूसरी ओर कार्यस्थल पर ना केवल लिंग के आधार बल्कि जाति और धर्म के आधार पर भी कई भेदभाव किए जाते हैं। कई जगह तो लोग अपनी-अपनी जाति के लोगों का अलग समूह बना लेते हैं। यहां मैं अपना खुद का एक अनुभव भी साझा करना चाहूंगी, कुछ वक़्त पहले मैं इलाहाबाद के थिएटर प्रोग्राम में काम से गई हुई थी और उस वक़्त वहां रामायण के किरदार की भूमिका निभाने के लिए कलाकारों की चयन प्रक्रिया चल रही थी जिसमें एक महिला कलाकार को बगैर उसकी अदाकारी को देखे बस उसे यह कहकर निकाल दिया गया कि वे किसी मुस्लिम व्यक्ति को नहीं लेना चाहते और इस घटना के वक़्त मैं अपनी एक मुस्लिम दोस्त के साथ ही वहां पहुंची हुईं थी जिसके बाद मुझे उससे आंखें मिलाने में भी शर्म आ रही थी। यह घटना इस बात का उदाहरण है कि कार्यस्थल में किस तरह से जाति, लिंग, धर्म आदि पर आधारित भेदभाव आज भी मौजूद हैं।

लोग अभी तक उस रुढ़ीवादी सोच से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। कार्यस्थल पर होने वाले ये भेदभाव व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इन भेदभावों को तो हमारे सविधान ने सालों पहले ही कानूनी तौर पर गलत ठहरा दिया था पर यह बात समाज आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहा, जिसके चलते लोगों को उनकी जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर हो रहे भेदभाव के कारण कई समस्याएं आज भी झेलनी पड़ रही हैं।

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तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए



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