इंटरसेक्शनलयौनिकता भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिला की माहवारी| नारीवादी चश्मा

भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिला की माहवारी| नारीवादी चश्मा

वो देश जहां महिला के ‘माँ’ के स्वरूप की पूजा होती है वही समाज ‘माहवारी’ के विषय पर मुँह क्यूँ चुराने लगता है।

भारत में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था है। वो व्यवस्था जो पुरुष को महिला से श्रेष्ठ मानती है और महिला के अस्तित्व को सिर्फ़ समाज चलाने के लिए बच्चे पैदा करने और परिवार बसाने-चलाने तक सीमित मानती है। ये पितृसत्ता ही है जिसने महिला के शरीर को हमेशा एक रहस्य की तरह प्रस्तुत किया और इस रहस्य के नामपर तमाम भ्रांतियों को बढ़ावा दिया है। महिलाओं की माहवारी भी इससे अछूती नहीं रही। भारतीय समाज में हम माहवारी से संबंधित कई अलग-अलग प्रथाओं-परंपराओं में लिपटी लैंगिक भेदभाव की परतों को देख सकते है। कभी उन्हें अचार छूने से मना किया जाता है तो कभी घर के बाहर रहने को मजबूर किया जाता है। कुल मिलाकर ये कहा जाता है कि माहवारी के दौरान महिलाएँ अपवित्र हो जाती है और माहवारी के दौरान उनकी योनि से निकलने वाला खून गंदा होता है। इस एक विचार को इसतरह प्रचारित-प्रसारित किया गया है कि इसके तार्किक पक्ष पर बात तो क्या इसके बारे में सोचना भी समाज में ज़रूरी नहीं समझा जाता है।

वास्तविकता यह है कि माहवारी के दौरान महिला की योनि से निकलने वाला खून गंदा नहीं होता है। बल्कि हर महीने महिला के शरीर में बनने वाला अंडा पीरियड के रूप में योनि से बाहर निकलता है| पीरियड के दौरान गाढ़े खून जैसे निकलने वाले में खून की मात्रा बेहद कम होती है, बल्कि इसमें अन्य तत्वों की मात्रा ज्यादा होती है| ये वही तत्व हैं जो महिला के गर्भ में पलने वाले भ्रूण के निर्माण और विकास में अहम भूमिका निभाते है| साफ़ है कि पीरियड के दौरान निकलने वाला पदार्थ गंदा या अशुद्ध नहीं होता है| बल्कि ये महिला के शरीर में बनने वाला ऊर्वरक बीज होता है, जो ढ़ेरों उपयोगी रसायनों से मिलकर बना होता है| माहवारी वैसे तो एक शारीरिक प्रक्रिया होती है पर इसके शुरू होने पर किसी भी युवा महिला के जीवन में बहुत से बदलाव आते हैं| अब इस तथ्य को पहचाना जाने लगा है कि माहवारी से जुड़ी सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां इस शारीरिक व मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ मिलकर सांस्कृतिक आधार पर निर्धारित मानकों और प्रथाओं को जन्म देती हैं|

‘माहवारी’ महिला स्वास्थ्य और समाज में उनकी भूमिका व स्थिति का अहम हिस्सा है। क्योंकि ये सिर्फ़ महिला के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उसके अस्तित्व को भी प्रभावित करता है।

माहवारी शुरू होने को आमतौर पर प्रजननशीलता और संतानोत्पत्ति से जोड़कर देखा जाता है, जिसके चलते इसे शर्म का विषय मानकर इसपर और इससे जुड़े विषयों के बारे में किशोर लड़कियों से चर्चा नहीं की जाती है| ऐसे में शारीरिक व मानसिक बदलावों के बारे में युवाओं को स्वीकार्य तरीकों के माध्यम से जानकारी दिए जाने की ज़रूरत है जिससे उनके अभिभावक, स्कूल और समुदाय स्वीकार कर सकें| इसके लिए सरकार, गैर-सरकारी संगठनों, अनुसंधानकर्ताओं, अध्यापकों और स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को प्रेरित कर किशोरावस्था के दौरान युवाओं कि उनकी शारीरिक और मानसिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सशक्त किया जाना चाहिए| इस तरह दी गयी जानकारी और ज्ञान के शुरू होने से ही महिलाओं और समाज की स्थिति में सुधार की कल्पना की जा सकती है और उनके आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होगी जिससे कि जेंडर के आधार पर असमानता में कमी आएगी|

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अपने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति जगजाहिर है, फिर बात चाहे आर्थिक पहलू की हो या सामाजिक पहलू की, क्योंकि अपने पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के लिए ढ़ेरों चीज़ें बकायदा परिभाषित और उनके दायरे निर्धारित किये गये| अब शायद आप ये कहें कि ये तो पहले की बात है अब तो महिलाएं हर क्षेत्र में आगे है| ज़रूर मैं आपकी बात सहमत हूँ, लेकिन इस बात पर भी जरा गौर फरमाइयेगा, महिलाएं आपके क्षेत्र में तो आगे है लेकिन अपने सवालों पर आज भी बेहद पीछे है| यहाँ इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि यहाँ बात महिलाओं की हो रही है, चंद सफल महिलाओं की नहीं| अगर हम बात करें ‘महिला स्वास्थ्य’ की तो आज भी हमारी किताब से लेकर हमारी सोच-जुबां इस विषय पर सिर्फ गर्भवती महिला तक सीमित है| इससे इतर अगर बात होती भी है तो महिलाओं से जुड़ी बिमारियों के बारे में| लेकिन ‘पीरियड’ जैसे मुद्दे आज भी हमारी किताब और जुबां से नदारद है|

‘माहवारी’ महिला स्वास्थ्य और समाज में उनकी भूमिका व स्थिति का अहम हिस्सा है। क्योंकि ये सिर्फ़ महिला के स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि उसके अस्तित्व को भी प्रभावित करता है। भारत जैसे पितृसत्तात्मक में जहां महिला के जीवन में ‘माँ’ की भूमिका को अदा करना अहम माना जाता है और ये वही भूमिका है जो महिलाओं के विशेषाधिकार और दमन के वर्तमान को तय करती है। यानी कि जो महिला ‘माँ’ बनने के योग्य है उन्हें समाज में प्रतिष्ठित स्थान और जो माँ नहीं बन सकती उन्हें ‘डायन प्रथा’ जैसा हिंसात्मक दमन और हिंसा देना ‘बच्चे पैदा करने’ से जुड़ा हुआ है। ऐसे में माहवारी एक ज़रूरी विषय बनता है, ख़ासकर तब जब हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं।

आधुनिकता और महिला सशक्तिकरण के नामपर बाज़ार ने महिलाओं की सुविधाओं के लिए कई उत्पाद बनाए हैं। उनका व्यापार भी खूब मुनाफ़ा भी कमा रहा है, लेकिन भारतीय संस्कृति अभी भी इनपर चुप्पी साधे हुए है। इसलिए ज़रूरी है कि स्कूल-कॉलेज से लेकर बड़े मंचों में होने वाले स्त्री विमर्श में माहवारी के विषय को शामिल कर इसपर चर्चा की जाए। चर्चा की जाए कि वो देश जहां महिला के ‘माँ’ के स्वरूप की पूजा होती है वही समाज ‘माहवारी’ के विषय पर मुँह क्यूँ चुराने लगता है। क्योंकि महिला के खून को ‘अपवित्र’ बताकर भेदभाव और हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा। ये पितृसत्ता का ही खेल है जिसने हर दिशा से महिला शरीर से जुड़े पहलुओं को नदारद कर अपने बताए प्रगति के मानक तय किए। इसलिए ज़रूरी है कि स्त्री विमर्शों के साथ महिला शरीर के जुड़े पहलुओं पर स्वस्थ चर्चा की जाए। वरना ये पितृसत्तात्मक समाज का ही स्त्री विमर्श बनकर रह जाएगा, जहां मूल जड़ की बजाय सिर्फ़ परतों पर विचार और काम होगा, जिसका प्रभाव अभी तो क्या कभी नहीं मिलेगा।

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तस्वीर साभार : bbc

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