सभ्यता, इस शब्द का प्रयोग समाज में सकारात्मक विकास के लिए किया गया तो सभ्य समाज की क्या परिभाषा होगी? वही जहां भले शिष्ट लोग रहते हैं। सभ्य कहे जाने वाले इस समाज में घर की चारदीवार के भीतर रोज़ कहीं न कहीं बच्चों, लड़कियों, महिलाओं के साथ यौन शोषण होता है। मैं आंकड़े नहीं मानती क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो हर घर में तो पूछने जाएगी नहीं कि क्या आपके बच्चों के साथ यौन शोषण हुआ है? वह उन्हीं आकड़ों को बताएंगे जिनके ख़िलाफ़ केस रजिस्टर होते हैं। फिर भी एक नज़र NCRB के आंकड़ों पर डाले तो उसके मुताबिक साल 2017 में 32,608 बच्चे, साल 2018 में 39,827 बच्चों ने यौन शोषण का सामना किया। भारत में हर दिन 109 बच्चे यौन शोषण का सामना करते हैं। इस संख्या पर इसलिए मैं भरोसा नहीं करती क्योंकि आप किसी भी लड़की से पूछेंगे कि क्या बचपन में उसका यौन शोषण हुआ है? तो उसका जवाब हां ही होगा। ये वे मामले हैं जिनमें कुछ बच्चों को तो यह पता भी नहीं चलता कि उनके साथ कुछ गलत हुआ, कुछ डर की वजह से नहीं बताते, और कुछ जो बताते तो हैं पर उनके मां-बाप इसके खिलाफ शिकायत करने पर शर्म महसूस करते हैं। इस देश में लगभग हर दूसरी लड़की यौन शोषण का सामना करती है।
इन्ही आंकड़ों के बीच हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला अजीब पशोपेश में डाल देता है। बात है 19 जनवरी की जब नागपुर पीठ से एक फैसला आया कि “लड़की के स्तन को छूना/दबाना भर यौन उत्पीड़न नहीं है। अगर कपड़े के ऊपर से छुआ गया है और ‘स्किन टू स्किन टच’ नहीं हुआ है, तो यह पॉक्सो कानून के तहत दंडनीय अपराध नहीं है।” ऐसा देश जिसे आगामी 15 अगस्त को आज़ाद हुए 74 साल हो जाएंगे, उसे यौन शोषण के लिए कानून लाने में 65 साल लग गए। उस देश की कानून व्यवस्था अभी तक फिजिकल टच को परिभाषित नहीं कर पाई है।
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14 दिसम्बर 2016 को एक 12 वर्षीय लड़की को उसके पड़ोस में रहने वाला 39 वर्षीय व्यक्ति एक अमरूद देने के बहाने से अपने घर बुलाता है और वहां उसके स्तनों को छूने और दबाने का प्रयास करता है। साथ ही बच्ची का सलवार जबरदस्ती उतारने का प्रयास करता है । इस पर बच्ची के चिल्लाने और रोने की आवाज़ सुन कर उसकी मां वहां आ जाती है। बच्ची मां को पूरा वाकया बताती है। महिला उस व्यक्ति की रिपोर्ट पुलिस में करती है। उसके बाद उस व्यक्ति को निचली अदालत में आरोपी घोषित करते हुए भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 342 (किसी व्यक्ति को ग़लत तरीके से प्रतिबंधित करने पर सज़ा ) 354 (महिला की मर्यादा को भंग करने के लिए उस पर हमला या जोर जबरदस्ती करने पर सज़ा ) और 363 के तहत एक साल की जेल की सजा सुनाती है और साथ ही POCSO (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस, 2012) के सेक्शन 8 के तहत तीन साल की सजा सुनाती है ।
निचली अदालत के फैसले के बाद उस आदमी ने फैसले के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ में अपील दर्ज की, जिसका फैसला इसी साल जनवरी 19 को आया। नागपुर पीठ की जज पुष्पा गनेडीवाला ने निचली अदालत के फैसले को बदलते हुए POCSO ACT के सेक्शन 8 के तहत दी गई तीन साल की सजा यह कहते हुए माफ कर दी और कहा, “स्तन को कपड़ो के ऊपर से छूना /दबाना पॉक्सो कानून के तहत यौन उत्पीड़न नहीं है।” उन्होंने आगे कहा कि “स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट करना ही फिज़िकल टच की श्रेणी में माना जायेगा और तब उसे पॉक्सो कानून के तहत सजा दी जाएगी।” नागपुर बेंच की जज ने POCSO Act के तहत सजा को सिरे से खारिज करते हुए आईपीसी की धाराओं के तहत एक साल की सजा दी। फैसला ऐसा था जिस पर विरोध होना संभव था सो हुआ भी और सुप्रीम कोर्ट ने रोक भी लगाई।
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ये फैसला सुनने के बाद मेरी आंखों के सामने से मेरा समय गुज़र गया जो मुझे आज भी बहुत अंदर झकझोरता है। मैं तब कक्षा पांचवी या छठी में रही हुई होंऊंगी, मेरे ट्यूशन टीचर जो हमें घर पर पढ़ाने आते थे, जब भी कुछ समझाते तो अपनी टांग पर बैठा कर मेरे स्तनों को मेरे कपड़ों के ऊपर से दबाते। यह अक्सर रोज़ ही होता। उस समय ट्यूशन टीचर, स्कूल का ही कोई ढंग का मास्टर हुआ करता था। उस समय सेक्स एजुकेशन देना इतनी बड़ी सजा थी कि बच्चो के सामने सेक्स शब्द बोल भर देना गुनाह होता। और न ही उस समय गुड टच और बैड टच के बारे में बताया जाता था। लेकिन इन सब बातों के इतर लड़कियों को चाहे कितनी भी जानकारी का अभाव हो लेकिन वे अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार और यौन शोषण को पहचान लेती है। मेरे साथ भी उस समय यही हुआ मुझे पता था जो मेरे साथ हो रहा है वह अच्छा नहीं है लेकिन बता पाने की हिम्मत न कर सकी, बस मां से उनसे न पढ़ने की कई सारी अलग दलीले दे डाली और कई सालों बाद मैंने अपनी मां को यह बात बताई। यह किस्सा मेरी ज़िन्दगी के भयावह सपने जैसा है जिसे मैंने बहुत कम लोगो को बताया। मेरा उस समय न बोल पाना मुझे आज तक झकझोरता है।
इस साल देश को आज़ाद हुए 74 साल हो जाएंगे, उसे यौन शोषण का कानून लाने में 65 साल लग गए, वह अब तक फिज़िकल टच को परिभाषित नहीं कर पाया।
जब बाहर से घर लौटते वक्त कोई आदमी अपने गुप्तांग को हिला रहा हो और अश्लील इशारे कर रहा हो उस समय छोटी बच्चियों पर क्या बीत रहा होता है? ट्रेन,बस की भीड़ में पीछे से छूना, स्तनों को दबाना उस लड़की को भय से जीते जी मार देने के बराबर है। डर में ज़िन्दगी जीना, रास्ते बदल लेना, घर में अपने आपको बंद कर लेना मरने जैसा प्रतीत होता है, और जब इस तरह के फैसले मैं कोर्ट से सुनती हूं तो रूह में अजीब सी सिहरन बीते समय को याद करके गुज़रती है। जहां न बता पाने पर इतनी तकलीफ है, उसी जगह उस बच्ची का हिम्मत करके अपनी मां से अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की घटना का शेयर करना और फिर उस मां की तकलीफ जिसने हिम्मत करके न्याय का दरवाज़ा खटखटाया मगर दुर्भाग्य कि इस तरह के खतरनाक फैसले की नज़ीर पेश हुई।
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इस मसले पर ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन एसोसिएशन की सचिव कविता कृष्णन ने इस फैसले को अपमानजनक बताते हुए उक्त फैसले को कानून के खिलाफ बताया और कहा कि पॉक्सो कानून के तहत यौन हमले को बहुत स्पष्ट तरीके से परिभाषित किया गया है, कपड़े या कपड़े के बिना संपर्क की बातें करने का कोई मतलब नहीं है। इस फैसले पर कई सवालों के जवाब अनछुए हैं, एक महिला जज होते हुए भी ऐसा फैसला देना यह दर्शाता है कि उनके भीतर संवेदना की कमी है। क्या अभी भी कानून में फिजिकल टच परिभाषित नहीं है? या कोर्ट अब भी जेंडर एवं शोषण को लेकर सवेंदनशील नहीं है। ऐसे फैसले आने वाले कई मामलों पर असर डाल सकते हैं। ऐसे फैसले अभिभावकों के लिए इन मामलों में आवाज़ न उठा पाने की वजह भी बन सकते हैं।
ऐसे मामले में अक्सर देखा गया है कि बच्चा या तो समझ नही पाता या बता नहीं पाता और इन दोनों मामलो के इतर बताने पर और न्याय की गुहार लगाने पर इस तरह के फैसले आएंगे तो आगे आने वाले समय में इस तरह के आरोपियों का मनोबल बढ़ेगा। क्या हमें इस तरह के कानून में लिखे बिंदुओं को परिभाषित करने की मांग नहीं करनी चाहिए थी? क्या हमें जरूरत नहीं महसूस हुई इन कानून में संशोधन की ? लेकिन एहसास तब होता है जब समाज में ऐसे फैसले दे दिए जाते है। ट्रेंड के ज़माने में बस 2-3 दिन हैशटैग चला कर सब ख़त्म हो जाता है। जब कभी महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर बड़े-बड़े मंच पर भाषण दिए जाते हैं तो अधिकतर लोग बस महिला शिक्षा, महिलाओं के अधिकार, उनकी बराबरी की बातें करते हैं बस। उनमें से एक-आध लोग ही ऐसे होते हैं जो यौन उत्पीड़न जैसे भयावह विषय पर खुलकर बात करते हैं और कानून में लिखे शब्दों को परिभाषित करने की मांग करते हैं। ऐसे में हमें चाहिए कि हम यौन उत्पीड़न या यौन हिंसा जैसे सभी मुद्दों पर खुल कर बात करें और एक दूसरे को जेंडर से जुड़ी चीजों के बारे में शिक्षित करें। यौन उत्पीड़न से जुड़े सभी कानूनों के बारे में सही जानकारी भी होना आज के समय की मांग है।
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उत्कृष्ट लेखन। आपके जज़्बे के मुरीद हैं हम क्योंकि बहुत ही साहस चाहिए होता है अपने साथ हुए किसी ऐसे वाकया को साझा करने के लिए।
उत्कृष्ट लेखन। आपके ज़ज्बे के मुरीद हैं हम क्योंकि बहुत साहस चाहिए होता है अपने साथ घटित किसी ऐसे वाकया को साझा करने के लिए।
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Well said