समाज स्कूलों से लेकर सोशल मीडिया तक होने वाली स्लट शेमिंग पितृसत्ता की ही उपज है

स्कूलों से लेकर सोशल मीडिया तक होने वाली स्लट शेमिंग पितृसत्ता की ही उपज है

स्लट शब्द को नारीवादी चश्मे से परिभाषित करने और उसे अपनी सुविधानुसार क्लेम करने से पितृसत्ता के हाथों में इस शब्द की आड़ लेकर महिलाओं को अपमानित महसूस करवाने की शक्ति जाती रहती है।

स्लट शेमिंग एक अंग्रेजी शब्द है। स्लट शेमिंग का बर्ताव ज्यादातर औरतों के प्रति इस्तेमाल किया जाता है। उन्हें कमतर महसूस करवाने के लिए सामने वाला इंसान औरतों के चरित्र को बुरा बताते हुए उसकी तुलना एक स्लट यानी सेक्सवर्कर से करता है। चूंकि तथाकथित सभ्य समाज सेक्सवर्क को ‘बुरी और बाज़ारू’ औरतों का काम समझता है। इसलिए उन्हें लगता है कि किसी औरत के चरित्र को वेश्या के चरित्र जैसा कहना उसका अपमान करना है। यह सोच मुख्य रूप से दो बिंदुओं पर टिकी है। पहला, औरतों की इज्ज़त उनकी योनि में होती है। इसलिए वैवाहिक संस्थान के अलावा बनाया गया कोई भी यौन संबंध, भले ही उसमें उस स्त्री की सहमति क्यों न हो उसे एक ‘अच्छी औरत’ के दायरे से बाहर खड़ा करता है। दूसरा बिंदु, औरतों का चरित्र कैसा है इस पर पुरुष अपना फैसला सुना सकता है। ऐसे पुरूष ऑनलाइन कोई ट्रोल से लेकर उनका कोई जान-पहचान वाला हो सकता है। यह पितृसत्तात्मक समाज औरत के चरित्र आंकलन के लिए किसी पुरुष के शब्दों को ज्यादा मान्यता देता है।

‘अच्छी औरत’ और ‘बुरी औरत’ की परिकल्पना समाज द्वारा बनाए नियमों के पालन करने और न करने के आधार पर टिका है। ये नियम औरतों की इच्छा और उनके व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए होते हैं। ख़ासकर उनकी यौनिकता को नियंत्रण में करने के लिए। अपनी यौन इच्छाओं को लेकर जागरूक और उन्हें खुलेआम ज़ाहिर करने वाली औरतें सभ्य नहीं मानी जातीं। एक हिंदी फ़िल्म है, ‘शुभ मंगल सावधान’। इस फ़िल्म में सीमा पाहवा अपनी बेटी से कह रही होती हैं, “औरत का शरीर एक गुफ़ा है जो सिर्फ़ अली बाबा के लिए ही खुलता है।”

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समाज द्वारा ‘अच्छी औरत’ बने रहने के नियमों से बगावत करने वाली लड़कियों को समाज कैसे बहिष्कृत करता है यह बात जान चुकी उम्रदराज औरतें ज्यादातर समय घर की बच्चियों को इन नियमों को मानने के लिए प्रशिक्षण देती मिलती हैं। वे उन्हें स्लट शेमिंग से बचाना तो चाहती हैं लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में ये भूल जाती हैं कि स्लट या ‘बुरी औरत’ की परिभाषा पितृसत्ता ने औरतों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए ही बनाया है। इसलिए उन्हें इस शब्द को अपमान की तरह नहीं लेना चाहिए। बल्कि इस बात से आहत होना चाहिए कि किसी पुरुष के कुछ कह देने भर से समाज उनके चरित्र का प्रमाण पत्र उनका पक्ष जाने बिना कैसे बना सकता है। परिणामस्वरूप औरतें अपनेआप को बुरा मानकर अक्सर बिना किसी ग़लती के आत्मग्लानि की अवस्था में चली जाती हैं।

स्लट शब्द को नारीवादी चश्मे से परिभाषित करने और उसे अपनी सुविधानुसार क्लेम करने से पितृसत्ता के हाथों में इस शब्द की आड़ लेकर महिलाओं को अपमानित महसूस करवाने की शक्ति जाती रहती है।

यह चलन बेहद पुराना है। प्राचीन रोमन सभ्यता में औरतों के कपड़ों के अनुसार उनकी ‘शुद्धता’ तय की जाती थी। विवाहित महिलाएं ‘स्टोला’ नाम का एक परिधान पहनती थीं जबकि वेश्याएं ‘टोगा’ पहनती थीं। महिलाओं को समाजिक तौर पर इन दो तबक़ों में बंटा गया था। नारीवादी आंदोलन के दूसरे चरण में जेंडर की भूमिका पर विस्तार से बात होने लगी, गर्भसमापन के नए तरीक़े आने लगे और महिलाओं की यौनिकता पर नए सिरे से चर्चा शुरू हुई थी। किसी महिला को स्लट टैग देने के बाद उसे ठीक करने यानी अच्छी औरत के दायरे में लाने के लिए उसके साथ हुए सभी अनुचित व्यवहार न्यायसंगत बताने की कोशिश की जाती है या फिर उसके साथ हुए किसी यौन उत्पीड़न या अन्य किसी अप्रिय घटना के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, अंग्रेजी में इसे विक्टिम ब्लेमिंग कहते हैं।

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आज 2021 में भी स्कूलों में बच्चियों के स्कर्ट की लंबाई, उनके नाखून रंगने, बाल बांधने के तरीक़े जैसे कई चीजों पर कड़े नियम बने हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित 2013 की एक ख़बर के मुताबिक रोहतक के एक निज़ी स्कूल ने लड़कियों के स्कर्ट पहनने पर रोक लगाई थी। उनका मानना था कि लड़कियों के स्कर्ट पहनने की वजह से उनके साथ यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं। स्कर्ट की जगह बच्चियों को सलवार कमीज पहनने के निर्देश दिए गए। छोटे गांव क़स्बों की बात तो क्या करें जब दिल्ली के रोहिणी स्थित डीपीएस ने एक ऐसा ही फ़रमान जारी किया। जिसके अनुसार वहां पढ़ने वाली बच्चियों को शर्ट के नीचे केवल स्किन के रंग वाली ब्रा पहनने का निर्देश दिया गया था। विद्यार्थियों की माने तो स्कूल प्रशासन ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह एक सह-शिक्षा संस्थान है। स्कूल प्रशासन ने पुरुष विद्यार्थियों के भटकाव को रोकने के लिए ऐसा कदम उठाया।

मैं व्यक्तिगत अनुभव बताऊं तो मेरी स्कूली शिक्षा के दौरान मेरे ईसाई मिशनरी स्कूल में लड़कियों के लिए नियमों की ऐसी ही बड़ी फेहरिस्त थी। छठ्ठी क्लास के बाद से स्कर्ट के नीचे लम्बे जांघों तक के मोज़े यानी कि स्टॉकिंग्स पहनना अनिवार्य था। जो लड़कियां ऐसा नहीं करती उन्हें शिक्षक डांटने के दौरान यह महसूस करवाते कि ऐसा वे लड़कों के लिए आकर्षण का विषय बनने के लिए कर रही हैं। इस व्यवहार को भी स्लट शेमिंग की तरह देखा जा सकता है। स्कूली शिक्षा के दौरान लड़कियों के साथ यह दोहरा बर्ताव करने के बजाय “बॉयज विल बी बॉयज’ यानी ‘लड़के तो लड़के ही हैं” कहकर पुरुषों की गलतियों को उनका स्वभाव बताना ग़लत है। किसी महिला के कपड़े, मेकअप, बोलने या चलने का अंदाज़, उसका कोई भी व्यवहार लड़कों के लिए आमंत्रण नहीं होता। अगर महिला किसी पुरुष के प्रति यौन आकर्षण महसूस करती है तो वह उसे सीधे तौर पर बता देगी या उसे बताना चाहिए। ऐसा करने से उनमें ‘कंसेंट’ यानी सहमति की समझ विकसित होगी और वे इसे अपने निज़ी जीवन के व्यवहार में लाने की कोशिश करेंगे। उन्हें किसी से कंसेंट यानी सहमति मांगने और देने दोनों प्रक्रियाओं को जानने में मदद मिलेगी। महिलाओं द्वारा अपनी यौन इच्छाओं को व्यक्त करने से जुड़ा स्लट शेमिंग किए जाने का भय, चिंता, ग्लानि बोध दूर होगा। विक्टिम ब्लेमिंग यानी पीड़ित के ऊपर सारा दोष मढ़ने की मानसिकता तब ख़त्म होगी जब पुरुषों के व्यवहार के लिए किसी महिला को नहीं बल्कि उस पुरूष को जवाबदेह ठहराया जाएगा।

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ऐसी महिलाएं बड़ी संख्या में हैं जिन्होंने अपने जीवन में कभी न कभी स्लट शेम झेला है। कभी किसी ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर किसी अनजान व्यक्ति द्वारा। ऐसे में वह व्यक्ति कीबोर्ड के पीछे से एक व्यापाक सामाजिक सोच को प्रदर्शित कर रहा होता है। यहां महिला इस व्यक्ति को निज़ी रूप से भले ही नहीं जानती हो लेकिन यह शब्द उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए ट्रिगरिंग हो सकता है। कई बार ‘स्लट शेमिंग’ से महिलाओं के और ज़्यादा निज़ी बुरे अनुभव जुड़े होते हैं। जैसे स्कूल-कॉलेज में शिक्षक, प्रशासन, सहपाठियों द्वारा स्लट शेम किए जाने का अनुभव, परिवार द्वारा ‘सल्ट शेम’ किया जाना या फिर किसी रोमांटिक रिश्ते या वैवाहिक रिश्ते में अपने साथी द्वारा स्लट शेम किया जाना। किसी रोमांटिक या वैवाहिक रिश्ते में स्लट शेम करने की मानसिकता पुरुष साथी द्वारा महिलाओं के नैतिक मार्गदर्शक बनने या महिला को अपने प्रति हीन महसूस करवाने से आती है। पुरुष साथी अपने आप को उदारवादी लेकिन शुद्धतावादी सिद्धान्तों का अनुयायी मानकर प्रेम में महिला साथी को सही राह दिखाने का पितृसत्तात्मक जिम्मा उठा लेता है। रोमांटिक रिलेशनशिप में साथी के इस व्यवहार के कारण महिला के ऊपर लम्बे समय तक रहने वाले मानसिक प्रभाव देखे जा सकते हैं। जैसे, सार्वजनिक या निज़ी स्पेस में आत्मविश्वास की कमी, अपने व्यवहार पर हमेशा मेल गेज यानी मर्दाना चश्मे से शक करना, आत्मग्लानि में अपना व्यक्तिगत खो देना। कई स्वतंत्र शिक्षित महिलाएं भी अपने निज़ी जीवन में इस व्यवहार का सामना करते हुए अनजाने में दो आयामी जीवन जीने लग जाती हैं। यह उनके मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।

इतिहास में कई शब्द हैं जिसे किसी व्यक्ति या समुदाय को अपमानित करने के लिए प्रयोग किया जाता था। लेकिन समय के साथ उस व्यक्ति या समुदाय ने उस शब्द को अपने लिए गर्व के साथ अपनाकर उस शब्द से जुड़े अपमान को तोड़ दिया। ऐसा ही एक शब्द है क्वीयर। इस अंग्रेज़ी शब्द का हिंदी मतलब है अजीब। आज एलजीबीटी समुदाय के लोग एलजीबीटी में ‘क्यू’ से ‘क्वीयर’ जोड़ने में सहज होने लगे हैं। ऐसा करने वालों के तर्क का आधार उन्हें कमतर साबित करने वाले शब्द को दूसरों से लेकर उसे अपने मुताबिक परिभाषित करना है। यह तर्क उस शब्द को अपमान की जगह गर्व से जोड़कर उसके इतिहास को नए तरह से लिखना है। हालांकि कुछ लोग ऐसे शब्दों के साथ जुड़े इतिहास में कई लोगों द्वारा महसूस किए गए ट्रामा के प्रति संवेदनशीलता रखते हुए व्यक्तिगत तौर पर इन तर्कों से सहमति नहीं रखते। कुछ ऐसा ही स्लट शब्द के साथ होने लगा है।

कई बार महिलाओं को आपस में एक दूसरे या स्वयं को स्लट बुलाकर इसे स्त्री चश्मे से परिभाषित कर इसका उपयोग करती दिखती हैं। तब इस शब्द के साथ चारित्रिक रूप से स्वयं को नीचा दिखाना नहीं बल्कि अपने बारे में दूसरों से राय लेने की जगह सारे रायों पर एकमात्र अपना मालिकाना हक़ जताना जुड़ा होता है। इसके अलावा यह व्यवहार स्लट यानी वेश्या या बुरी औरत के साथ जुड़े समाजिक नियमों को तोड़कर, समाज द्वारा बनाए इस फ़र्क की रेखा को मिटाने के बारे में है। स्लट शब्द को नारीवादी चश्मे से परिभाषित करने और उसे अपनी सुविधानुसार क्लेम करने से पितृसत्ता के हाथों में इस शब्द की आड़ लेकर महिलाओं को अपमानित महसूस करवाने की शक्ति जाती रहती है।

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तस्वीर: श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया

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