‘बचपन’ यह शब्द सुनते ही मानो मन-मस्तिक में एक खुशी की लहर दौड़ जाती है। हम अपने आपको एक बेफिक्र, नादान और बेपरवाह बच्चे के रूप में देखने लगते हैं। जीवन की सारी अवस्थाओं में बचपन की अवस्था सबसे खा़स होती है। इस अवस्था के दौरान हमें कई अनुभव प्राप्त होते हैं। लेकिन हमारा मन कुछ ऐसा है कि अच्छे अनुभव तो संभाल कर रख लेता है गहराइयों में, लेकिन बुरे अनुभव को हमेशा चेतना-मन में तैरने देता है। जीवन में आने वाले खराब, डरावने अनुभव से निकल पाना इतना आसान नहीं होता, लेकिन जो लोग ऐसा कर पाते हैं उनका जीवन बहुत अधिक सहज हो जाता है। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो दुखद अनुभव को बहुत जल्द दिमाग से हटा देते हैं। बचपन जैसी अवस्था से अगर बुरे अनुभव मिले तो उन्हें भुलाना और भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बचपन सीखने का समय होता है। हम जो सीखते हैं वह हमें जीवनभर याद रहता है। चाहे अच्छा सीखे या बुरा। अगर अनुभव बुरे हो तो हमारा बुरा सीखने और बनने की आशंका भी ज्यादा बढ़ जाती है।
आज मैं अपने एक ऐसे ही बुरे अनुभव के बारे में बात करना चाहूंगी। उस समय मैं छठी क्लास में थी। मैं हमेशा से एक अच्छी छात्रा रही हूं, मतलब वैसी जिससे शिक्षक और परिवार वाले दोनों संतुष्ट रहते थे। लेकिन उन दिनों मैं स्कूल ना जाने के हमेशा बहाने ढूंढती थी। इसलिए नहीं क्योंकि मुझे पढ़ाई से भागना अच्छा लगता था बल्कि इसलिए क्योंकि एक शिक्षक का भय मेरे अंदर घर कर गया था। उन दिनों वह शिक्षक हमें चार अलग-अलग विषय पढ़ाते थे और वही हमारे क्लास टीचर भी थे। परेशानी की बात यह थी कि वह बेहद हिंसक प्रवृत्ति के थे। छोटी सी छोटी गलती पर भी वह हमें छड़ी से मारना ही सही समझते थे। गलती ऐसी की अगर 50 नंबर के टेस्ट में 40 से एक नंबर भी कम आए तो हमारी पिटाई होती थी। गलती से भी अगर होमवर्क की कॉपी घर छूट जाए तो पिटाई। पूरी क्लास के दौरान अगर किसी बच्चे ने थोड़ी सी भी बात की तो भी सजा मिलती थी। वह चाहते थे कि सारे बच्चे उनके चारों विषय में अव्वल प्रदर्शन करें। जो असंभव था, क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि हर बच्चा सभी विषयों में एक समान प्रदर्शन करें। सभी बच्चों की प्रतिभा अलग-अलग होती है।
हम बस यही मनाते थे कि किसी तरह से हमें उनके विषयों में 50 में से 41 नंबर आ जाए कभी भी 39 ना आए। वे सिर्फ हमें सही राह पर लाने के लिए नहीं मारते थे, बल्कि उनके हाव-भाव से यह साफ लगता था कि उन्हें हमें मारने में बेहद आनंद आता था।
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एक अभिभावक और शिक्षक होने के रूप में उन्हें बच्चों की प्रतिभा को बढ़ावा देना चाहिए। इस प्रकार से हम पर अलग-अलग विषयों में आने वाले नंबर का दबाव डालने से हमारी मानसिक स्थिति भी प्रभावित होती थी। हम बस यही मनाते थे कि किसी तरह से हमें उनके विषयों में 50 में से 41 नंबर आ जाए कभी भी 39 ना आए। वे सिर्फ हमें सही राह पर लाने के लिए नहीं मारते थे, बल्कि उनके हाव-भाव से यह साफ लगता था कि उन्हें हमें मारने में बेहद आनंद आता था। वह अपने-आप को बच्चों से शक्तिशाली दिखाने के लिए भी हिंसा का सहारा लेते थे। कई बार तो उनके घर के गुस्से की वजह से भी कई बच्चों को मार पड़ती थी। उस समय तो मैं खुलकर यह सारी बातें अपने परिवार से नहीं बता पाई क्योंकि मेरे परिवार ने मुझे हमेशा यही सिखाया था कि शिक्षक जो करते है सही करते हैं। शिक्षक और अभिभावक हमेशा बच्चों की भलाई के बारे में सोचते हैं। और हमेशा उनका ख्याल रखते है। इसलिए शायद मैं यह बात अपने परिवार से बताने में डर रही थी कि उन्हें यही लगेगा कि मैं अपनी गलती छिपा रही हूं।
पर अब जब मैं पत्रकारिता कर रही हूं और क्या सही है क्या गलत है समझने के काबिल हो चुकी हूं तो यह बात समझ में आती है की उस वक्त हमारे साथ कितना गलत हो रहा था। उससे भी ज्यादा अफसोस इस बात का है की अब हम भले ही उनसे दूर हो चुके हैं पर फिर भी वह कहीं ना कहीं किसी न किसी बच्चे के साथ इसी तरह का बर्ताव आज भी करते होंगे। उससे भी ज्यादा दुख इस बात का होता है कि अपने बच्चों से वह कैसे पेश आते होंगे? क्योंकि इंसान की प्रवृत्ति हमेशा समान ही रहती है। हिंसा का प्रदर्शन करना कभी भी किसी भी बच्चे के लिए सही नहीं हो सकता। हमें लगता है कि हमारा मारना-पीटना बस उसी समय तक सीमित है। पर ऐसा कतई नहीं है बल्कि ऐसा करने से हम अपने बच्चे के अंदर भी एक हिंसक प्रवृत्ति के छवि को जन्म देते हैं। कई बार अभिभावक या शिक्षक अपना गुस्सा दिखाने के लिए या अपने बच्चे की फिक्र के आड़ में उन्हें मारते-पीटते हैं। पर यह सरासर गलत है। क्योंकि बच्चे प्यार व स्नेह का रूप होते हैं। हम उन्हें जितना प्रेम से समझाएंगे वे उतना जल्दी उस बात को समझेंगे।
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तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
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