पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष से 21 वर्ष करने की बात रखी थी। हालांकि सरकार इस पर अभी तक विचार-विमर्श कर रही है कि क्या लड़कियों की शादी के लिए 21 वर्ष की न्यूनतम आयु वह परिणाम दे पाएंगी जिसकी उम्मीद की जा रही है। गौरतलब हो कि सरकार की ओर से यह प्रस्ताव तब रखा गया जब आम जनता कोरोना के मार से जूझ रही थी। एक ओर आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही थी तो दूसरी ओर बाल विवाह, घरेलू हिंसा या मानव तस्करी जैसे समस्याएं ज़ोर पकड़ चुकी थी। भारत में बाल विवाह निषेध अधिनियम के अंतर्गत लड़की की शादी के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़के का 21 साल होने की शर्त सालों से मौजूद है। इसके बावजूद भी यूनिसेफ के अनुसार दुनिया की हर तीन बाल-दुल्हन में से एक भारतीय है।
शादी, जिसे भारतीय समाज में किसी व्यक्ति के सफलता का सबसे बड़ा पहलू माना जाता है, वहां लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने को लेकर अलग-अलग राय है। कम उम्र में शादी से महिलाओं की आर्थिक, शारीरिक या मानसिक विकास में बाधा हो सकती है। लेकिन इसके दुष्परिणाम सिर्फ व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहती। देश की अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य-व्यवस्था, शिक्षा जैसे अहम मापदंड भी इससे प्रभावित होते हैं। गौर करने वाली बात है कि हमारे देश में बाल विवाह के पीछे पितृसत्तात्मक सोच से जन्मे कई कारण काम करते हैं। लड़कियों को आर्थिक बोझ मानना, लड़की की जल्दी शादी करने में पिता का गर्व होना, लड़कियों के किशोरावस्था में अपनी पसंद से जीवनसाथी का चुनने पर पिता या भाई का नियंत्रण करना। पूरे विश्व के आंकड़ों की बात करें तो, 21 प्रतिशत महिलाएं यानी हर साल 12 मिलियन लड़कियों की शादी अठारह साल की उम्र से पहले कर दी जाती है। जबकि पिछले दशक में भारत सहित कई एशियाई देश बाल विवाह के दर को कम करने में साकार रहे हैं। लेकिन यूनिसेफ ने साल 2030 तक 120 मिलियन अतिरिक्त लड़कियों का बाल विवाह यानी छोटी उम्र में शादी होने का अनुमान लगाया है।
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लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल करने की महत्वाकांक्षी परियोजना देश के लगभग 223 मिलियन बाल विवाह की शिकार हुई लड़कियों को कानून के घेरे में ला खड़ा करेगा। सभी सर्वेक्षण यह बताते हैं कि बाल विवाह का सामना करती अधिकतर लड़कियां अशिक्षित और ग्रामीण क्षेत्र से हैं। यूनिसेफ के अनुसार, बाल विवाह का प्रचलन 32 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों और 18 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में पाया गया। बाल विवाह की शिकार लड़कियों में शिक्षा की बात करें तो, 51 प्रतिशत को अशिक्षित पाया गया। 47 प्रतिशत प्राइमरी, 29 प्रतिशत सेकन्डेरी और महज 4 प्रतिशत ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी।
लैंगिक समानता के लिए सिर्फ लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने की सोच यह दर्शाती है कि आज भी लड़कियों का आत्मनिर्भर होने से ज्यादा उनकी शादी ही मायने रखती है।
भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बाल विवाह के मामले सबसे अधिक हैं। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) और नैशनल सैम्पल सर्वे (एनएसएस) की रिपोर्ट पर जाएं, तो इन राज्यों में पहले से ही महिलाओं के खिलाफ हिंसा और महिला साक्षरता दर की स्थिति बेहद चिंताजनक है। साफ है कि सामाजिक परिवेश और आर्थिक तंगी के कारण बाल विवाह कई बार कम दहेज में लड़की की शादी निपटाने का रामबाण इलाज समझा जाता है। यूनिसेफ के अनुसार, भारत में 46 प्रतिशत बाल विवाह बेहद गरीब परिवारों में किए जाते हैं।
मुमकिन है कि शादी की उम्र बढ़ाने से कुछ लड़कियों का बाल विवाह न हो। लेकिन ऐसे देश में जहां लड़कियों को आर्थिक बोझ और लड़कों को परिवार आगे बढ़ाने का उत्तरदायी माना जाता है। वहां इन अतिरिक्त सालों में उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवनसाथी चुनने की आज़ादी पर कहां तक सुनिश्चित होगी, ये संदेहजनक है। ग्रामीण क्षेत्रों में, लड़कियों का छोटी उम्र में ‘गौना’ आज भी प्रचलित है। गौना युवावस्था में लड़कियों के हाथ से न निकलने का तोड़ होता है। इस पितृसत्तात्मक नियम से बाल विवाह अधिनियम का उल्लंघन तो होता ही है। इससे लड़की की शिक्षा और मूलभूत अधिकार पर भी रोक लग जाती है। लैंगिक समानता के लिए सिर्फ लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने की सोच यह दर्शाती है कि आज भी लड़कियों का आत्मनिर्भर होने से ज्यादा उनकी शादी ही मायने रखती है। दुनिया के अधिकतम देशों में शादी की न्यूनतम आयु अठारह वर्ष है। जबकि विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जिसने पूरी तरह से लैंगिक समानता हासिल कर ली हो। साथ ही, इस नए अधिनियम से हाशिए पर जी रहे समुदायों की लड़कियों को आर्थिक तंगी और रूढ़िवादी सोच के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवाधिकारों से और दूर होना पड़ेगा।
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स्वास्थ्य सेवाओं में सरकार की निवेश की बात करें तो, ‘द हिन्दू’ में छपी एक रिपोर्ट में नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल के अनुसार साल 2018-19 में भारत ने अपने जीडीपी का बहुत कम प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया है। पिछले कई वर्षों से ‘जेन्डर बजट’ में भी कोई खास वृद्धि नहीं की गई है। ग्लोबल जेन्डर गैप इंडेक्स 2020 के अनुसार भारत 112वें पायदान पर था। पूरे विश्व में स्वास्थ्य सेवाएं ही एकमात्र ऐसी मानदंड है जहां लैंगिक असमानता में भारी कमी हुई है। लेकिन विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत आज भी इस मामले में पिछड़ा हुआ है। कम उम्र में शादी के दुष्परिणामों की जानकारी अप्राप्य नहीं है। बाल विवाह के कारण उच्च मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर या महिला स्वास्थ्य को सुधारने की चेष्टा बिना महिलाओं के शिक्षा, आर्थिक स्वाधीनता और पारिवारिक साझेदारी के संभव नहीं है। न्यूनतम आयु को बढ़ाना लड़कियों की जीवन पर और अधिक पंजा कसना होगा। सरकार की शादी की उम्र बढ़ाने की परिकल्पना उसके दूरदर्शिता की कमी को उजागर करती है।
भारत में बाल विवाह को संबोधित करने के प्रयास सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं और अलग-अलग परिवेश के अनुरूप होने चाहिए। आज का समय शिक्षा, कल्याण और महिलाओं के लिए अवसरों में निवेश की मांग करता है। लैंगिक समानता में त्वरित लाभ करने की आशा और अव्यावहारिक उपायों के माध्यम से छलांग लगाने की कोशिश नुकसानदेह हो सकती है। साथ ही यह महिलाओं के विकास के लिए आवश्यक मानदंड जैसे शिक्षा, रोजगार, राजनीतिक सहभागिता और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं जैसे बुनियादी मुद्दों को अनदेखा करती है।
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तस्वीर साभार: ipleaders