भारत पर 200 सालों तक ब्रिटिश हुकूमत ने राज किया। भारत के लोगों को अंग्रेजों से आजाद करने में भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानियों की भी उतनी ही भूमिका थी जितना कि यहां के पुरुषों का। चाहे वह रानी लक्ष्मीबाई हो, सरोजिनी नायडू हो, झलकारी बाई हो। सभी ने क्रूर अंग्रेजों के सामने ना झुककर अपनी बहादुरी का परिचय दिया। लेकिन फिर भी आज़ादी की लड़ाई में शामिल कुछ ऐसी महिलाएं जिन्होंने देश-आजादी की खातिर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, लेकिन इनकी शहादत गुमनाम रही। देश आज़ादी के बाद उनके योगदान और नाम को भुला दिया गया। उन्हीं में से एक हैं, तारा रानी श्रीवास्तव। वह कोई बहुत पढ़ी-लिखी, डिग्री-धारी और बहुत उच्च तबके की औरत नहीं थी बल्कि इसी पितृसत्ता समाज के एक हाशिये से संबंध रखने वाली आम महिला थी।
तारा रानी का जन्म बिहार की राजधानी पटना के नजदीक सारण जिले में हुआ था। उनकी शादी कम उम्र में ही फुलेंदू बाबू से हो गई थी। फुलेंदू बाबू स्वतंत्रता सेनानी थे। अपने पति की तरह ही तारा रानी के ह्रदय में भी अपार देश-प्रेम था। देश को आज़ादी दिलाने के लिए वह हर कदम पर उनके साथ रहती थी। जिस समय औरतों को चारदीवारी के भीतर रहकर अपने जीवन बिताने को सिखाया जाता था, वह गांव-गांव जाकर औरतों को आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने को प्रेरित करती थी।
जब अंग्रेजों की गुलामी और उनका अत्याचार भारत के लोगों द्वारा असहनीय हो चुका था। तब 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का आगाज़ किया। इस आंदोलन का एक ही उद्देश्य था ‘करो या मरो’। उस समय भारत के निवासी अपने देश को आज़ाद करने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर थे। महात्मा गांधी ने भी यह बात स्वीकारी थी कि इस आंदोलन के दौरान पुरुषों से कहीं ज्यादा महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उस समय तारा रानी के पति फूलेंदु बाबू भी सिवान थाने पर भारत का तिरंगा लहराने के लिए चल दिए ताकि अंग्रेजों की अवज्ञा कर सके और उन्हें भारत के एक होने का चेतावनी दे सके। उनके साथ पूरा जनसैलाब था। तारा रानी इन सभी का नेतृत्व कर रही थी। तारा रानी अपने पति के साथ सभी को लेकर आगे बढ़ रही थी। पुलिस ने भी इस विरोध को रोकने के लिए अपना जी-जान लगा दिया। जब पुलिस की धमकियों से भी जनसैलाब नहीं रुका तब पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया लेकिन उनके डंडे भी प्रदर्शनकारियों के हौसले को तोड़ने में नाकामयाब रहे। तब अंग्रेज पुलिस ने गोलियां चलाना प्रारंभ कर दिया।
हमारा यह पुरुष-प्रधान समाज कहता है कि एक औरत अपने पति के पीछे ही चलती है। वह तभी तक मजबूत रह सकती है जब तक उसका पति उसे हिम्मत देगा पर तारा रानी श्रीवास्तव ने इस कथन को पूरी तरह गलत साबित किया है।
इस बीच तारा रानी के पति फुलेन्दु बाबू भी पुलिस की गोली लगने की वजह से घायल हो गए। 12 अगस्त 1942 का वह दिन तारा रानी के लिए सबसे दर्दनाक दिन था। वह उनके पास गईं और उनके घाव पर अपने साड़ी से एक टूकड़ा फाड़कर पट्टी बांधी। एक नवविवाहित स्त्री अपने पति को यूं खून से लथपथ देखकर कितना तड़पी होगी यह सोचकर भी रूह कांप जाती है। फिर जो उन्होंने किया, वह कोई आम स्त्री नहीं कर सकती थी। वह वहीं से फिर वापस मुड़ी और पुलिस स्टेशन की तरफ चल पड़ीं। क्योंकि अगर वह रुक जाती तो सारी स्त्रियों का मनोबल टूट जाता और वह भी डर कर पीछे हट जाती। उन्हें खुद के दुख से ज्यादा भारत पर हो रहा अत्याचार दिख रहा था। तिरंगा लहराने का संकल्प था, उन्होंने तिरंगा लहराया। तिरंगा फहराकर जब वे अपने पति के पास वापस आईं, तब तक उनके पति की मौत हो चुकी थी। लेकिन फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उनके अंतिम संस्कार में भी वह खुद को मज़बूत बनाए खड़ी रहीं।
15 अगस्त,1942 को छपरा में उनके पति की देश के लिए कुर्बानी के सम्मान में प्रार्थना सभा रखी गई थी। उस सभा में भी उन्होंने अपने मजबूत हृदय का परिचय दिया। और लोगों को ढाढ़स बंधाया। हमारा यह पुरुष-प्रधान समाज कहता है कि एक औरत अपने पति के पीछे ही चलती है। वह तभी तक मजबूत रह सकती है जब तक उसका पति उसे हिम्मत देगा पर तारा रानी श्रीवास्तव ने इस कथन को पूरी तरह गलत साबित किया है। अपने पति को खोने के बाद भी तारा आजादी और विभाजन के दिन 15 अगस्त, 1947 तक महात्मा गांधी जी के आंदोलन का अहम् हिस्सा रही। अपने पति की शहादत को उन्होंने व्यर्थ नहीं होने दिया। अपने देश को स्वतंत्रता दिलाने के सपने को उन्होंने पूरा किया।
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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया
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