नारीवाद पितृसत्ता का अंत हमारे घरों से ही होगा

पितृसत्ता का अंत हमारे घरों से ही होगा

वास्तव में इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था का असली शिकार हमारे बच्चे हो रहे हैं, आने वाली पीढ़ी हो रही है। एक स्वस्थ समाज का भी नुकसान हो रहा है।

विश्वभर में आज महिलाएं अपनी प्रतिभा के कारण विभिन्न पदों पर आसीन हैं। उन्हें इस मुकाम तक पहुंचने के लिए कई संघर्षों का सामना करना पड़ा है। ये संघर्ष केवल पदों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए नहीं बल्कि, अपने अस्तित्व को दोबारा स्थापित करने के लिए और खुद के लिए खुद निर्णय लेने के अधिकार के लिए हुआ है। इसके बावजूद महिलाएं आज भी समाज का वह अंग नहीं बन पाई हैं जिसकी उन्हें तलाश हैं। यह तो सबको पता है कि हम जिस समाज में रह रहे हैं वह पुरुषप्रधान समाज है। संभव है कि पुरुष को प्रधान मानने के कारण स्त्री को उससे कमतर माना जाता रहा है। भले ही महिलाएं चांद पर पहुंच चुकी हो या अकेली दुनिया घूमकर वर्ल्ड गिनीज बुक में रिकॉर्ड दर्ज करा चुकी हो बावजूद उसे पुरुषों से कमतर ही माना जाता है। स्त्री के रूप में जन्म लेना उसकी गलती मानी जाती है, चूंकि उसका संबंध शरीर से है, जिसके आधार पर उसका चरित्र निर्धारित किया जाता रहा है। किसी भी परिस्थिति में स्त्री को ही अपने चरित्र का प्रमाण देना पड़ता है, जैसे सीता को देनी पड़ी थी अग्नि परीक्षा। आज हम ऐसे समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं जहां एक मैसेज के आधार पर किसी भी महिला के चरित्र का निर्णय लिया जा सकता है। कुछ भी गड़बड़ी हो या फिर अप्रिय घटना, उसे उसके शरीर के अंगों से ही जोड़कर समझा जाता है। ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने स्वत: ही आ जाते हैं। 

लिव इन रिलेशनशिप में दो बालिग व्यक्ति आपसी सहमति से बिना शादी किए एक साथ रहते हैं। ये रिश्ते भी एक स्त्री के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण होते हैं। इसमें अगर प्रेमी अपने प्रेमिका को धोखा देता है, तो भी यह समाज स्त्री के चरित्र पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है। उसे ही दोषी ठहराता है, वह चरित्रहीन समझी जाती है। पुरुषों को ऐसी चरित्रहीन स्त्रियों से सावधान रहने की नसीहत दी जाती है। दोनों ही स्थिति में स्त्री को ही दोषी माना जाता है। इस प्रकार समाज स्त्रियों और संस्कृति का संरक्षक बना फिरता है। क्या देह के इतर एक स्त्री को परखने के लिए और कोई पैमाना नहीं हो सकता? ऐसे विषयों पर जजमेंटल होने के बदले समाज को और संवेदनशील होना चाहिए। मन आहत होता है जब ऐसे विषयों पर तथाकथित पढ़ा-लिखा समाज असंवदेनशील रवैया अपनाता है। 

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अक्सर यह कहकर ठहाका लगाया जाता है कि एक पुरुष के जीवन में स्त्री (पत्नी, गर्लफ्रेंड) के आने से जिंदगी बहुत प्रभावित हो जाती है। जैसे, “घर में तो बीवी की ही चलती है”, “बीवी के आगे बोलने की हिम्मत कौन कर सकता है”, “बीवी तो दूसरे की अच्छी लगती है।” पुरुष विश्वास के साथ अपने कथन को मजाक का रूप देते हुए अपनी ही पत्नी को ऐसे ही कई वाक्यों द्वारा रोज अपमानित करता है। कुछ अपवादों को छोड़कर! वहीं पत्नी का ऐसा कोई भी इतिहास रहा होगा तो उसे पूर्व में ही समझा दिया जाता है कि हमारा परिवार इतना भी मॉडर्न नहीं हुआ है, इसे सह नहीं पाएगा। कितना विरोधाभास है न? एक तरफ स्त्रियों को ऐसी महिला-विरोधी बातों को हंसते-हंसते पचाना सिखाया जाता है तो दूसरी तरफ पुरुष खुद बड़े शान से इसे स्वीकारता है। स्त्रियां अगर यही करें तो चरित्रहीन, कुलटा। वहीं पुरुष करें तो उन्हें रोमांचक आदि की संज्ञा दी जाती है। यहां पर मैं जोर देकर कहना चाहती हूं कि ऐसी सोच और मानसिकता की शुरुआत हमारे घरों से ही होती है। बेटियों के संदर्भ में कहा जाता है कि बेटियां समझदार होती हैं, सुख-दुख आदि भावनाओं और परिस्थितियों को बेटों की अपेक्षा बेहतर समझती हैं। परेशान नहीं करती, जिद नहीं करती लेकिन बेटों के लिए कहा जाता है कि बेटे इसके ठीक विपरीत होते हैं। उनमें भावुकता न के बराबर होती है। उन्हें समझौता/एडजस्ट करना नहीं आता आदि।

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सिमोन द बउआर ने अपनी पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में एक बात कही थी, “स्त्रियां पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती हैं।” ठीक वैसे ही पितृसत्तात्मक मानसिकता अपने आप पैदा नहीं होती बल्कि बचपन से ही भर दी जाती है घरवालों द्वारा और बाद में समाज द्वारा। दोनों बच्चे जब एक ही घर से हैं तो दोनों के व्यवहार में, सोच में इतना अंतर क्यों? इसका एक मात्र कारण है वह मानसिकता, जो पुरुष को प्रधान और स्त्री को उससे कमतर मानती है। यह मानसिकता वही है जो बेटा और बेटी में भेदभाव करती है। यह मानसिकता वही है जो बेटियों को मां के गर्भ में ही मार डालती है। यह मानसिकता वही है जो बच्चियों को स्कूल जाने से रोकती है। यह मानसिकता वही है जो बेटों को बलात्कारी बनाती है और बेटियों को दहेज़ के नाम पर मार डालती है।

वास्तव में इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था का असली शिकार हमारे बच्चे हो रहे हैं, आने वाली पीढ़ी हो रही है। एक स्वस्थ समाज का भी नुकसान हो रहा है। जैसा कि गांधीजी ने भी कहा था यदि देश/समाज का संपूर्ण विकास करना हो तो सबसे पहले महिलाओं को मजबूत करना होगा। महिलाओं को जागरूक करने के लिए कई अभियान चलाए गए, पुस्तकें लिखी गई, संगोष्ठी, सम्मलेन आदि का आयोजन भी किया गया। महिलाएं आज अपनी पुरखिनों के बलिदान को समझ चुकी हैं और अपने अधिकारों के बारे में भी जान चुकी हैं। इसलिए अब आवश्यक यह है कि इस पितृसत्तात्मक सोच का अंत हमारे घरों से हो। हमारे बेटे, भाई, पिता, पति आदि के द्वारा हो, हमारे पुरुष साथियों के द्वारा हो। जैसा कि कमला भसीन कहती हैं, “यदि घरों में बराबरी का माहोल रहेगा तो आपके बेटे दानव नहीं मानव बनेंगे और आपकी बेटियां दासियां नहीं बराबर की इंसान बनेंगी।”

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यह लेख सुनीता गुरुङ्ग ने लिखा है जो साँची विश्वविद्यालय में पीएचडी की छात्रा हैं

तस्वीर साभार : Pinterest

Comments:

  1. Rajnish b Singh says:

    Right hame girls and women ko apne barabar hi samjhana chahiye hamari mataye bahne kishi se kam nhi h

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