संस्कृतिसिनेमा मॉक्सी : औरतें, जो एकसाथ आकर दुनिया बदलने का ज़रिया बन सकती हैं

मॉक्सी : औरतें, जो एकसाथ आकर दुनिया बदलने का ज़रिया बन सकती हैं

16 साल की विवियन जब एक सवाल से गुज़रती है कि उसका व्यक्तित्व क्या है, वह किस चीज़ के बारे में शिद्दत से सोचती है, क्या है जिसे वह बदलना चाहती है। वह बार-बार इन सवालों में उलझकर अपनी मां से पूछती है कि किसी 16 साल के बच्चे की चिंता क्या होनी चाहिए, जिसका जवाब देते हुए उसकी मां कहती हैं, "16 की उम्र में मैं और मेरी सहेलियां पितृसत्त्ता को ध्वस्त करने के बारे में सोचती थीं।"

नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रीलीज़ हुई फ़िल्म ‘मॉक्सी’ जेनिफ़र मैथ्यू के उपन्यास पर आधारित है। यह उपन्यास एक व्यक्ति विशेष पर आधारित है लेकिन यह फिल्म किसी व्यक्ति विशेष को महत्व देने में भटकती नहीं है बल्कि सीधे तौर असली मुद्दे को दर्शकों पर पहुंचाने में सफ़ल होती है। इस फ़िल्म में समाज और इसके विभिन्न संस्थानों के भीतर मौजूद पितृसत्ता, भेदभाव, स्त्रीद्वेष को अलग-अलग पहचानों यानी ‘आइडेंटिटीज़’ के समानांतर रखकर दिखाने की कोशिश की गई है। मॉक्सी ‘पैरेंटिंग’ जैसे महत्वपूर्ण मसले पर भी अपना एक स्वतंत्र रुख रखती दिखती है। साथ ही, अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग पहचानों के साथ होते व्यवहार को भी सहजता से दिखाती है। मॉक्सी, चुप्पी के बरक्स प्रतिरोध और आंदोलन के महत्व और एक समुदाय के रूप में औरतों की शक्ति पर भी मज़बूती से बात करते हुए ‘औरत: एक कमज़ोर और आपसी रूप से विभक्त समुदाय हैं’ जैसी पितृसत्त्ता-निर्मित धारणा का खंडन करती है।

इस फ़िल्म में प्रमुख किरदार विवियन है, जो अपनी मां से प्रेरित होकर अपने स्कूल के पितृसत्त्तात्मक माहौल और स्त्रीद्वेष के ख़िलाफ़ उठ खड़ी होती है। विवियन ग्याहरवीं में पढ़ती है और स्कूल के पहले दिन ही उसे पता चलता है कि स्कूल में लड़के एक लिस्ट जारी करने वाले हैं जिसमें लड़कियों को उनके शरीर, रंग, व्यवहार और आकार के आधार पर रैंकिंग दी गई है। इसी दौरान, क्लास में एक नई ब्लैक लड़की लूसी आती है, जो परंपरावादी और भेदभावपूर्ण प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ ‘वोकल’ होती है। अंग्रेज़ी की क्लास के दौरान ‘द ग्रेट गैट्सबी’ पर बात करते हुए टीचर पूछता है कि किसी भी कलात्मक कार्य में, भले ही वह कब लिखा गया है, कैसे लिख गया है, यह जानना ज़रूरी है कि उसमें औरतें कैसे दर्शाई गई हैं। इसके जवाब में लूसी कहती है, “सबसे पहली बात तो यह कि हम अब भी इस उपन्यास को क्लास में क्यों पढ़ रहे हैं।” वह कहती है कि यह उपन्यास किसी अमीर श्वेत आदमी के द्वारा किसी दूसरे अमीर श्वेत आदमी के बारे में लिखा गया है, जो अपने एकतरफ़ा प्रेम संबंध को लेकर चिंतित है। अगर हमें अमेरिकी समाज की वास्तविक सच्चाई को जानना है तो हमें अप्रवासियों, वर्किंग क्लास, ब्लैक औरतों के बारे में या उसके बारे में पढ़ना चाहिए, जो अभाव में जी रहे हैं। दरअसल, यहां फ़िल्म कला और उसकी प्रासंगिकता के कारण पर बात करती है। कोई भी कला प्रासंगिक कब होगी, तब जब वह अपने समय और युग के साथ संवाद करे। नीरो की तरह रोम के जलने पर बंसी बजाने को चरितार्थ करती कलावस्तु कभी भी प्रासंगिक नहीं हो सकती।

16 साल की विवियन जब एक सवाल से गुज़रती है कि उसका व्यक्तित्व क्या है, वह किस चीज़ के बारे में शिद्दत से सोचती है, क्या है जिसे वह बदलना चाहती है। वह बार-बार इन सवालों में उलझकर अपनी मां से पूछती है कि किसी 16 साल के बच्चे की चिंता क्या होनी चाहिए, जिसका जवाब देते हुए उसकी मां कहती हैं, “16 की उम्र में मैं और मेरी सहेलियां पितृसत्त्ता को ध्वस्त करने के बारे में सोचती थीं।”

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हालांकि, लूसी को एक नस्लभेदी श्वेत लड़के द्वारा बीच में ही टोक दिया जाता है और लूसी के आपत्ति करने पर वह कहता है, “यू आर नॉट लिसनिंग।” यहां डायरेक्टर एमी पोएलर स्पष्ट रूप से ‘मैनस्प्लेनिंग’ को दर्शाने में सफ़ल होती हैं। पुरुष समुदाय हमेशा से अपनी पहचान और पद को लेकर सशंकित रहा है, यही कारण है कि जब भी स्त्री उसकी आलोचना करती है और अपने आप को अभिव्यक्त करती है, वह उसका ‘स्पेस’ छीन लेना चाहता है और उसकी दलीलों को तर्कहीन साबित करना चाहता है।क्लासरूम और स्कूल को प्रमुखता से केंद्र बनाकर चलती इस फ़िल्म में दूसरी ज़रूरी बात जो सामाजिक सच्चाई को दर्शक तक पहुंचाती है, वह है कि प्रगतिशील बातें, स्त्री संबंधी बहसें केवल साहित्य के जिम्मे छोड़ दी जाती हैं। गणित या विज्ञान की कक्षाओं में इस संबंध में कोई बातचीत नहीं होती। निश्चित तौर पर यही कारण होगा कि औरतों की सामाजिक स्थिति और धरातल पर मौजूद अन्य समस्याओं को लेकर विज्ञान के छात्र अक्सर कम संवेदनशील पाए जाते हैं। 

डायरेक्टर एमी अपनी फिल्म मॉक्सी में बच्चों के व्यवहार और उनकी प्रवृत्ति के संबंध में पेरेंट्स की भूमिका को भी सटीक तरीके से दर्शाने में सफ़ल रही हैं। 16 साल की विवियन जब एक सवाल से गुज़रती है कि उसका व्यक्तित्व क्या है, वह किस चीज़ के बारे में शिद्दत से सोचती है, क्या है जिसे वह बदलना चाहती है। वह बार-बार इन सवालों में उलझकर अपनी मां से पूछती है कि किसी 16 साल के बच्चे की चिंता क्या होनी चाहिए, जिसका जवाब देते हुए उसकी मां कहती हैं, “16 की उम्र में मैं और मेरी सहेलियां पितृसत्त्ता को ध्वस्त करने के बारे में सोचती थीं।” यहां से विवियन ‘पितृसत्त्ता’ को पहचानते हुए अपने आस-पास हो रही स्त्रीद्वेषी घटनाओं को लेकर साहस जुटाकर प्रतिक्रियात्मक होना शुरू करती है। साथ ही, विवियन की मां ‘सिंगल मदर’ होती हैं, वह अपनी बेटी से उसके पहले ‘किस’ के साथ ही अपने संबंधों औ उसकी क्लासेज़ में चल रहीं तमाम गतिविधियों पर खुले तौर पर बात करती हैं। यह घटना अगर भारत के संदर्भ में देखें तो ‘सेक्सुअलिटी’ को लेकर माता-पिता की ओर से इतना खुलापन और संवेदनशीलता शहरों में भी नहीं आ पाई है।

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यह फ़िल्म सामाजिक सच्चाई को सीधे तौर पर उतारती दिखती है। विवियन के स्कूल के पहले दिन ही लड़कियों की रैंकिंग की तैयारी शुरू हो जाती है। यह रैंकिंग लिस्ट लड़के अपने हिसाब से लड़कियों के शरीर, रंग, आकार और व्यवहार को देखते हुए निकालते हैं। इसमें विवियन, जो इंट्रोवर्ट है, शरारती लड़कों को देखकर मुड़ जाती थी और सिर झुका लिया करती थी, उसे ‘आज्ञाकारी’ कहा गया। सॉकर टीम की कैप्टन, जो ब्लैक अमरीकी है, उसे ‘बेस्ट ऐस’ का टाइटल दिया गया और लूसी जो ब्लैक नारीवादी अमरीकी महिला है, उसे भी कोई घटिया शब्द दे दिया गया। ये शब्दावली या टाइटल्स सामान्य नहीं हैं। इनके होने में लड़कियों की पहचान यानी आइडेंटिटीज़ भी शामिल हैं। सभी महिलाएं वल्नरेबल हो सकती हैं, लेकिन उनमें ब्लैक महिलाएं ज़्यादा वल्नरेबल है। उसी तरह, भारत में, सभी पहचानों वाली महिलाओं के साथ पुरुषों द्वारा भेदभाव किया जाता है, लेकिन उनमें भी दलित महिलाएं ज़्यादा वल्नरेबल हैं। इस प्रकार, ये रैंकिंग पहचानों की ऐतिहासिकता को भी अपने भीतर लिए होती हैं। उदाहरण के तौर पर, ब्लैक महिलाओं के शरीर भारी और उनके बाल अलग तरह के होते हैं। इसी के आधार पर, शुरुआत से ही उनके बाल और नितंब को लेकर अपमानजनक टिप्पणियां की जाती रही हैं। विवियन की दोस्त क्लाउडिया के माध्यम से डायरेक्टर एमी यह बताने में सफ़ल होती हैं कि अमेरिका में एशियाई पहचान के लोग भी वल्नरेबल होते हैं। इस तरह, गोरी चमड़ी होने के बावजूद भी कोई जापानी या चीनी श्वेत अमरीकी की तुलना में अधिक वल्नरेबल होगा। इन्हीं शब्दावलियों और स्कूल में महिला विरोधी माहौल के ख़िलाफ़ विवियन मॉक्सी नाम का ग्रूप बनाती है, जहां वह अपनी पहचान छिपाकर स्कूल में नारीवादी संदेशों से भरे पर्चे बांटती है जबकि असली मॉक्सी वही होती है।

आज दुनिया भर में पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच चुका है। अलग-अलग भौगोलिक खंडों में शक्तियों के बीच संघर्ष भी बढ़ रहा है। इस पोस्ट-मॉडर्न दौर में साम्राज्यवाद का सूरज ढल चुका है और सामंतवाद को पीछे छोड़कर हम एक नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में कदम रख चुके हैं। लेकिन, संस्कृति व परंपराओं को देखते हुए एक सवाल बार-बार सामने आ जाता है कि क्या वाकई में हम सामंतवाद को त्यागकर आगे बढ़ चले हैं। क्या सच में उदारवादी दौर द्वारा प्रायोजित लोकतंत्र सबके लिए समान अवसरों की उपलब्धता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है? इसका जवाब ढूढ़ने के लिए कहीं दूर नहीं जाना, बस अपने आस-पास की सच्चाई का गहन विश्लेषण करना होगा और तब हमें मालूम होगा कि अब भी औरतों और पुरुषों के खेल बजटों में बड़ा अंतर है। आज भी दुनिया भर के अलग-अलग क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से कम है। आज भी कोई ‘जॉर्ज फ्लॉयड’ नस्लीय भेदभाव के कारण कुचल दिया जाता है। आज भी ‘रोहित वेमुला’ओं’ की आत्महत्या से मौत होती है और आज भी ‘किचन’ ही औरतों की जगह है!

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इस प्रक्रिया को समझने पर जो बुनियादी चीज़ उभरकर आती है, वह है- शक्ति और पद (पॉवर एंड पोजीशन) यानी समूची व्यवस्था ‘डिवीजन ऑफ पॉवर’ से नियंत्रित होती है। इस विभाजनकारी नियंत्रण को लागू करती हैं, सामाजिक संस्थाएं। इसे ग्राम्शी के ‘कल्चरल हेजेमनी’ सिद्धान्त से समझा जा सकता है। आप देखिए कि आज के तथाकथित सिविल सोसायटी में कुछ लोग शक्तिशाली हैं और बाकी शक्तिहीन। यह विभेद संसाधनों के अनुचित बंटवारे के कारण पैदा होता है। जो शारीरिक रूप से शक्तिशाली रहे, जिन्होंने संसाधनों पर कब्ज़ा कर लिया, उनकी अपनी पहचान विशिष्ट हुई, बाकी सब हीन बन गए। इस श्रेणी में शोषण की पहली भोक्ता स्त्रियां रहीं और सोचने वाली बात यह है कि सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं में बदलाव आने के बावजूद भी स्त्रियों का यह सांस्कृतिक शोषण खत्म नहीं हुआ है। भौगोलिक सीमाओं को धता बताते हुए यह आज भी भारत से लेकर यूनान तक और अमरीका से चीन तक, सब जगह एक-सा है। ऐसा इसलिए हो पा रहा है क्योंकि सांस्कृतिक शोषण को सामाजिक संस्थानों का प्रश्रय मिलता है, जो सत्तासीन लोगों को मूल्यों, नियमों, विचारों, उम्मीदों, वैश्विक नज़रिए और समाज के व्यवहार को नियंत्रित करने का अवसर देते हैं। ऐसे में इससे निज़ात पाने का एकमात्र उपाय यही हो सकता है कि जिस तरह, वर्ग-विभाजन के ख़िलाफ़ मार्क्स ने आह्वान किया था, “दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ और गुलामी की इस जंज़ीर को तोड़ दो।” उसी तरह, औरतों को भी एक-दूसरे से यह अपील करनी होगी कि दुनिया की सभी औरतें एक हो जाएं।

खैर! मॉक्सी व्यवस्था और संस्थानों द्वारा शक्तिशाली को प्रश्रय दिए जाने और इससे भेदभाव और स्त्रीद्वेष को बढ़ावा देने की बात को भी मज़बूती से रखती है। यह भी पहचान से जुड़ा मसला है। स्कूल की प्रिंसिपल, जो कि श्वेत अमरीकी महिला है, वह एक श्वेत और प्रसिद्ध फुटबॉल कैप्टन के ख़िलाफ़ लूसी की शिकायत नज़रंदाज़ कर देती है। मॉक्सी में प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया गया है कि कैसे पितृसत्तात्मक और बलात्कारियों को उनकी आइडेंटिटी के कारण  ‘प्राइड’ यानी ‘गर्व’ और ‘पुरुषार्थ’ जैसे टाइटल्स दिए जाते हैं। वहीं शिकायतकर्ता और शोषण के ख़िलाफ़ बोलने वाली औरतें ‘बिचेज़ (BITCHES)’ कही जाती हैं। कुल मिलाकर, डायरेक्टर एमी पोएलर के बेहतरीन निर्देशन, ‘बिकिनी किल्स’ के थ्रिल और महिलाओं के संघर्ष को आवाज़ देने वाले संगीत और कलाकारों के सधे अभिनय के लिए मॉक्सी एकबार ज़रूर देखी जानी चाहिए।

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तस्वीर साभार : Netflix

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