अच्छी ख़बर डायन प्रथा के खिलाफ़ पद्मश्री बिरुबाला राभा के संघर्ष की कहानी

डायन प्रथा के खिलाफ़ पद्मश्री बिरुबाला राभा के संघर्ष की कहानी

बिरुबाला राभा पहले से ही अपने गांव की स्थानीय महिला समिति की सक्रिय सदस्य थीं। समूह शराब और घरेलू हिंसा जैसी सामाजिक बुराइयों से लड़ रहा था।

“यह सम्मान मेरे लिए सबसे ख़ास है, सबसे अलग है। यह मुझे हमेशा प्रेरणा देता रहेगा कि मैं अपने कामों को लगातार जारी रखूं। मेरी हिम्मत, मेरी मज़बूती अब और बढ़ने वाली है।” भारत का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ मिलने पर बिरुबाला राभा ने एक इंटरव्यू में यही बातें कहीं। बिरूबाला राभा, वह महिला जिसने भारत के उत्तर पूर्वी राज्य में फैले पाखंड, अंधविश्वास और झूठे तंत्र-मंत्र की भ्रांतियों को तोड़ा। बिरुबाला 72 वर्षीय एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। असम में जादू-टोना और चुड़ैल/डायन बताकर स्त्रियों को प्रताड़ित करने के खिलाफ वह लगातार लड़ती रही हैं। वह मिशन बिरूबाला, नाम से एक संगठन चलाती हैं। इस संगठन का काम डायन प्रथा के खिलाफ लोगों में जागरूकता फैलाना है। उनके संगठन में अनेक सामाजिक कार्यकर्ता, भुक्तभोगी महिलाएं और आम गांववासी शामिल हैं। 

डायन प्रथा यानी किसी महिला को डायन बताकर उसे मारा-पीटा जाना, उसके साथ शारीरिक और मानसिक हिंसा करना या उसे गांव से बेदखल कर दिया जाना। डायन/ चुड़ैल या टोना-टोटका करने का आरोप लगाकर महिलाओं का शोषण करना और फिर उन्हें मार डालना। महिलाओं को डायन बताकर उनके साथ दुर्व्यवहार करने, उन्हें यातनाएं देने के पीछे कई कारण है। जैसे, अंधविश्वास, पीड़ित महिला की अचल संपत्ति, ईर्ष्या और पारिवारिक संघर्ष। ‘पद्मश्री’ तो बिरुबाला को साल 2021 में मिला पर उनके कार्यों की शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी। 15 साल की उम्र में ही उनकी शादी कर दी गई। उनकी शादी असम के गोलपारा जिले के ठाकुरबिला गांव में हुई। उनके पति एक किसान थे। परिवार को सहारा देने के लिए उन्होंने बुनकर का काम शुरू किया पर, शायद उनका लक्ष्य इससे बड़ा था। 

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साल 1985 के आसपास की बात है, उनके बड़े बेटे को टाइफाइड हो गया। सही इलाज नहीं मिलने के कारण उसे दौरे पड़ने लगे। बिरुबाला ने अपने पति से बेटे को अस्पताल ले जाने की बात कही। लेकिन, गांव में तांत्रिकों का ऐसा जंजाल फैला था कि उनके पति इस बात पर राजी नहीं हुए। तांत्रिक को बुलाया गया। तांत्रिक ने कहा कि उनके बेटे पर एक परी या डायन का साया है। उस परी ने उनके बेटे से सपने में शादी कर ली है और, तीन दिन के भीतर अगर तांत्रिक को एक मोटी रकम नहीं दी गई तो वह डायन उनके बच्चे को मार देगी। तीन दिन में उनके बच्चे की मौत हो जाएगी। बिरुबाला ने जब यह सुना तो घबरा उठी। वह भले कक्षा पांच तक पढ़ी थीं, लेकिन उन्हें पता था कि यह सब बातें बेबुनियाद होती हैं। वह अपने पति के सामने जिद्द कर बैठी और कहा कि बच्चे को डॉक्टर के पास ले कर जाएंगे, चाहे कुछ हो जाए।

जब कोई व्यक्ति समाज में परिवर्तन लाने की कोशिश करता है, तो उसे दबाने की कोशिशें भी होती हैं। मेघालय में बिरुबाला को लाठी-डंडों और धारदार हथियारों से मारने का प्रयास किया गया।

बिरुबाला की ज़िद के आगे उनके पति को झुकना पड़ा। जब उनके बेटे को अस्पताल ले जाया गया तब पता चला कि सही इलाज न मिलने के कारण बुखार उसके दिमाग में चढ़ गया था जिससे उसे दिमागी असंतुलन की बीमारी हो गई। इसी दिमागी असंतुलन की वजह से उसे दौरे पड़ते थे जिसे गांव वालों और उस महिला तांत्रिक ने डायन का साया बता दिया था। अस्पताल में बच्चे का इलाज चलना शुरू हुआ। वह ठीक होने लगा। तभी से, बिरुबाला ने ठान लिया कि वह नीम-हकीम और जादू-टोना करनेवालों के खिलाफ अभियान चलाएंगीं। उन्होंने अपने गांव के लोगों को समझाया कि डायन जैसा कुछ नहीं होता है और अगर डायन का अस्तित्व सच में है, तो वह इतनी कमज़ोर नहीं कि कोई उसे पत्थर मार सके। महिलाएं जिनको पत्थर मारा जा रहा है, जिनको पीटा जा रहा है, फिर वे डायन कैसे हो सकती हैं। धीरे-धीरे गांववाले उनसे सहमत होने लगे और उनका अभियान एक जिले से बढ़कर दूसरे जिले में पहुंच गया। फिर धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में भी। वह अब तक इस रूढ़िवादी परंपरा से 40 से ज्यादा महिलाओं को बचा चुकी हैं।  

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जब कोई व्यक्ति समाज में परिवर्तन लाने की कोशिश करता है, तो उसे दबाने की कोशिशें भी होती हैं। मेघालय में बिरुबाला को लाठी-डंडों और धारदार हथियारों से मारने का प्रयास किया गया। उनको धमकियां दी गईं। उन पर हमले हुए, लेकिन वह अपने कर्तव्य से बंधी थीं। उनका कर्तव्य था, समाज की कुरीति को खत्म करना।  वह कुरीति, जिसमें महिला का सम्मान नष्ट कर दिया जाता है। उसे समाज से बाहर कर दिया जाता है। ये उन्हीं के कामों का असर था कि असम सरकार ने “असम चुड़ैल शिकार (निषेध, संरक्षण और रोकथाम अधिनियम) 2015” पारित किया। यह अधिनियम असम राज्य में साल 2018 से लागू हो चुका है। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि साल 2001 से 2014 के बीच 17 राज्यों में विच हंटिंग को आधार बनाकर 2 हज़ार से अधिक हत्याएं हुई हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं ही शामिल थी।

बिरुबाला राभा पहले से ही अपने गांव की स्थानीय महिला समिति (महिला स्वयं सहायता समूह) की सक्रिय सदस्य थीं। समूह शराब और घरेलू हिंसा जैसी सामाजिक बुराइयों से लड़ रहा था। लिहाजा उन्हें अपने काम को विस्तार देने में, लोगों को जोड़ने में बहुत ज्यादा समस्याएं नहीं हुईं। वह खुशकिस्मत रहीं कि उन्हें पुलिस-प्रशासन का भी पूरा सहयोग मिला। वह कहती हैं, “कई बार लोग मुझसे डरते हैं। उन्हें पता है कि अगर वे कुछ गलत करेंगे, तो मैं पुलिस को फोन कर दूंगी। मेरे या मेरे संगठन के कहने पर पुलिस तुरंत आ जाएगी। पुलिस को भी पता है कि इस प्रथा का हटना कितना अधिक जरूरी है।”

बिरुबाला राभा को अनेक पुरस्कार मिले। साल 2018 में उन्हें ‘विमेंस वर्ल्ड समिट फाउंडेशन’ पुरस्कार मिला। साल 2005 में उन्हें नॉर्थ ईस्ट फाउंडेशन ने नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया। उनके घर की अलमारियां पुरस्कारों से भरी पड़ी है पर उनके लिए पद्मश्री पुरस्कार बहुत खास है। सबसे खास तो उनके लिए वह प्यार भी है, जो उन्हें इस प्रथा को समाप्त करने के लिए महिलाओं से मिलता है। बिरुबाला, 15 साल से अधिक समय से भी डायन प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैला रहीं हैं। वह आगे भी जागरूकता फैलाती रहेंगी।

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तस्वीर साभार: India.com

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