नेटफ्लिक्स पर एक मिनी सीरीज़ है, अनबिलिवेबल। यह सीरीज़ मूल रूप से साल 2008 से 2012 के बीच अमेरिका के दो अलग शहरों में एक ही पैटर्न पर होने वाले यौन-अपराधों और पुलिसिया रवैये पर बात करती है। यह सीरीज़ मूल रूप से साल 2015 में लिखे गए एक आर्टिकल, ‘एन अनबिलिवेबल स्टोरी ऑफ़ रेप’ पर आधारित है। होता यूं है कि मरी नाम की एक महिला का बंदूक के निशाने पर बलात्कार होता है। अगली सुबह मरी पुलिस के पास जाती है, जहां उससे लगातार ‘बलात्कार कैसे हुआ’ जैसे सवाल पूछे जाते हैं और कोई सर्वाइवर के शरीर पर कोई निशान और सबूत नहीं मिलने पर पुलिस मरी पर भरोसा नहीं करती है। आखिरकार उसे यह कहने पर मज़बूर कर दिया जाता है कि उसके साथ बलात्कार जैसा कोई अपराध असलियत में हुआ ही नहीं था और वह ये सब ‘अटेंशन’ के लिए फ्रेम कर रही थी, और उस पर ग़लत रिपोर्ट करने के लिए ‘ग्रॉस मिसडीमीनर’ का आरोप लगा दिया जाता है।
अगर आप थोड़े से भी संवेदनशील हैं तो अनबिलिवेबल आपके भीतर उथल-पुथल मचा देगी। आपके सामने सैंकड़ों ऐसी घटनाएं दौड़ जाएंगी, जब यह कहा गया हो, “मुझे तो नहीं लगता कि बलात्कार हुआ होगा”, “अरे, वह तो इतना प्रगतिशील है, उसपर कैसे यौन हिंसा का आरोप लग सकता है, उसे फंसाया जा रहा होगा”, “ये लड़की बस अटेंशन चाहती है”, “इसका चाल-चलन देखा है, कितने लड़कों से बात करती है” इत्यादि इत्यादि। कुल मिलाकर बात यह है कि इस सीरीज़ की कहानी बिल्कुल भी अनोखी नहीं है। ऐसी घटनाएं लगातार हमारे सामने आती रहती हैं, जिनमें बड़ी आसानी से ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ करके पीड़िता को और अधिक वल्नरेबल बना दिया जाता है। इस सीरीज़ को हम तहलका के एडिटर इन चीफ़ तरुण तेजपाल यौन शोषण मामले के परिपेक्ष्य में देखकर आसानी से समझ सकते हैं। 21 मई 2021 को, पिछले आठ साल से चल रहे मामले में तरुण तेजपाल को बरी कर दिया गया। 537 पन्नों के निर्णय में, सेशन जज ने यह कहते हुए सभी आरोप खारिज़ कर दिए कि अभियोक्ता यानी शिकायतकर्ता का व्यवहार वैसा नहीं था, जैसा आमतौर पर एक पीड़िता का होना चाहिए।
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ट्रॉमा और पूर्वाग्रह : क्या है यह मेल
अगर केवल भारत के मामलों पर ग़ौर करें तो तरुण तेजपाल का मामला इकलौता नहीं है, जो समाज में मौजूद ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ की प्रवृत्ति को दर्शाता है। अमूमन बलात्कार, मोलेस्टेशन की अधिकांश घटनाओं में गाहे-बेहगाहे सर्वाइवर को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। उसे ही यह साबित करना होता है कि उसका बलात्कार या यौन शोषण हुआ है। समाज की यह धारणा #मीटू के दौरान भी खुलकर सामने आ गई थी, जब पीड़िताओं से ही सवाल पूछे जाने लगे कि “वे अबतक कहां थीं”, “अबतक क्यों नहीं बोला”, “फलां व्यक्ति ऐसा तो लगता ही नहीं”, “मैं महिलाओं का समर्थक हूं लेकिन कई बार फेवर नहीं मिलने पर भी कुछ औरतें यौन हिंसा का आरोप लगा देती हैं” इत्यादि।
यह धारणा असल में ट्रॉमा का स्टीरियोटाइप गढ़ने से बनी है, जिसके तहत यह तय किया जाता है कि
1) कौन पीड़ित/सर्वाइवर हो सकता है।
2) पीड़ित/सर्वाइवर किस तरह से व्यवहार करता है।
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जब भी कोई महिला, किसी ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति पर यौन हिंसा का आरोप लगाती है, उसे शक के घेरे में डाल दिया जाता है। मसलन, अगर कोई अभिनेत्री यौन हिंसा का आरोप लगाती है, तब उसके प्रोफेशन, पुरुषों के साथ उसके संबंध, किसी फिल्म में उसका बोल्ड व्यवहार जैसी चीजें देखते हुए उसका चरित्र तय किया जाता है। समाज अपने मानकों पर उसके चरित्र को तौलता है और इसके बाद कहा जाता है कि वह सर्वाइवर नहीं हो सकती, यह ज़रूर ही कोई ‘पब्लिसिटी स्टंट’ होगा। दूसरी बात, कोई भी सर्वाइवर कैसे व्यवहार करता है। इस मामले में भी समाज ने अपनी सुविधा के हिसाब से प्रतिक्रिया की एक समझ तैयार कर ली है, जिसमें सर्वाइवर की प्रतिक्रिया को फ़िट बैठना चाहिए, अन्यथा की स्थिति में उसका व्यवहार मान्य नहीं होगा और वह विक्टिम ब्लेमिंग का सामना करेगी।
अमूमन बलात्कार, मोलेस्टेशन की अधिकांश घटनाओं में गाहे-बेहगाहे सर्वाइवर को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। उसे ही यह साबित करना होता है कि उसका बलात्कार या यौन शोषण हुआ है।
यह व्यवहार किसी एक घटना के मामले में नहीं है। याद करिए, सुशांत मामले में रिया चक्रवर्ती को किस तरह ब्लेम किया गया था। यह उसी सोच के अन्य उदाहरण है, जिससे ‘विक्टिम ब्लेमिंग उपजती है। केवल तरुण तेजपाल मामले को देखें तो इसमें एक महिला जज पीड़िता को सवालिया घेरे में डालते हुए कहती है, “घटना के अगले दिन की तस्वीरों में पीड़िता ख़ुश दिख रही थी, घबरायी हुई या ट्रॉमा में नहीं लग रही थी। वह गोवा छोड़कर नहीं गई, अपनी मां से भी नहीं मिली। अभियोजन पक्ष द्वारा पेश सबूत पीड़िता की सच्चाई पर संदेह खड़ा करते हैं, जिसका लाभ तेजपाल को दिया जाता है।” यहां ध्यान दीजिए कि कोर्ट ख़ुद भी यह तय धारणा लेकर चल रहा है कि पीड़िता को कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी। यहां इंडिविजुअलिटी को सीधे नकार दिया जा रहा है।
जबकि होता ये है कि अगर दो व्यक्ति एक ही समय एक ही तरह के ट्रॉमेटिक घटनाक्रम से गुज़र रहे हैं, तब भी उनके अनुभव और उनकी प्रतिक्रिया अलग-अलग हो सकती है। इस संबंध में वेबसाइट द कॉन्वर्सेशन में छपे लेख में इंडियाना यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी की असोसिट प्रोफ़ेसर जिनी डी. डीक्लीमेंटी बताती हैं, ”किसी भी ट्रॉमा में सबकी प्रतिक्रियाएं एक समान नहीं होतीं, उससे निबटने के तरीके भी अलग होते हैं और लगने वाला समय भी। ट्रॉमा से जूझते हुए अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से व्यवहार कर सकते हैं। संभव हो, कोई एकदम ‘पॉज़िटिव’ दिखे, जबकि दूसरा थोड़ी सी आवाज़ पर भी पैनिक कर जाए।” इन मामलों में ज़िम्मेदार संस्थाओं द्वारा इस किस्म का व्यवहार हतोत्साहित करने वाला है। मन में सवाल आता है कि यदि किसी सेक्स वर्करके साथ बलात्कार या यौन हिंसा होती है तो क्या वह शिकायत भी कर पाएगी? क्या कोर्ट उसकी बात पर भरोसा करेगा? मौजूदा पूवाग्रह में लिपटी व्यवस्था को देखते हुए तो ऐसा बिल्कुल मुमकिन नहीं लगता है।
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कहां से आ रही है यह धारणा?
विक्टिम ब्लेमिंग, व्यवहार या प्रतिक्रिया का एक तय तरीका और चरित्र व्याख्या के पीछे केवल एक ही विचारधारा है- पितृसत्त्ता। पितृसत्त्ता यह एजेंसी अपने पास रखना चाहती है कि कौन सा व्यवहार ट्रिगरिंग होगा, कौन सी प्रतिक्रिया सही मानी जाएगी। ऐसा करके वह अपनी सत्ता बचाए रखना चाहती है। आप देखेंगे कि जब भी किसी महिला द्वारा यौन शोषण का आरोप लगाया जाता है, उसके समानांतर पुरुष की मानसिक स्थिति अथवा ‘नॉट ऑल मेन’ को लेकर कैंपेन शुरू हो जाता है। यह सब कुछ मुख्यधारा के संस्थानों पर वैचारिक कब्ज़ा जमाकर किया जाता है। तरुण तेजपाल के मामले में न्यायाधीश एक महिला हैं। एक महिला ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है? क्या वह समाज में महिलाओं की वलनरेबिलिटी से अवगत नहीं है? क्या वे एक यौन हिंसा सर्वाइवर की मानसिक अवस्थाओं को नहीं जानतीं? क्या जो सामान्य नहीं दिखता, वह घट नहीं सकता ? क्या वह नहीं जानतीं कि आज भी बलात्कार और यौन हिंसा के आधे से अधिक मामले दर्ज नहीं किए जाते? क्या इस समाज में एक महिला के लिए बलात्कार की घटना पर खुलकर सामने आना आसान है?
दरअसल, यह पितृसत्त्ता ही है जो हमेशा सर्वाइवर के पक्ष को कमतर और संदेहास्पद दर्शाते हुए पुरुष को उसका लाभ देती आई है और न जाने कबतक देती रहेगी, क्योंकि अभी भी हम इसकी नब्ज़ पकड़ नहीं पाए हैं लेकिन इसने हमारी ये कमज़ोरी बख़ूबी समझ लिया है। ‘अनबिलिवेबल’ जैसी सीरीज़ समाज में मौजूद इन कमियों को पर्दे पर लेकर पहुंच रही हैं। देश भर में लगातार होतीं बलात्कार की घटनाएं भी हमें सचेत कर रही हैं। इन सब के बावजूद क्लास में, कार्यस्थल पर या सहकर्मी द्वारा होने वाले शोषण पर स्पष्टता से कोई ठीक-ठाक समझ अभी भी नहीं बन पाई है।
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तस्वीर साभार : Variety