इतिहास चाकली एलम्मा : तेलंगाना की एक क्रांतिकारी बहुजन महिला|#IndianWomenInHistory

चाकली एलम्मा : तेलंगाना की एक क्रांतिकारी बहुजन महिला|#IndianWomenInHistory

चाकली एलम्मा वह 1947 में तेलंगाना विद्रोह के सबसे महान और प्रेरक नेताओं में से एक रही हैं। वह आंध्र महासभा की भी सदस्य थीं।

किसी भी व्यक्ति का अपने हक के लिए लड़ना कोई मामूली बात नहीं है। कई लोग समाज तो कभी परिवार के कारण अपनी स्थिति से समझौता कर लेते हैं लेकिन चाकली एलम्मा 1940 के दशक में ऐसी मिसाल बनकर उभरीं जो आज और हमेशा ही हमें लड़ने की हिम्मत देती हैं, उस समाज से जो आपको आपके अधिकार देने से डरता है। चाकली एलम्मा ने उत्पीड़ित लोगों विशेष तौर पर खेतिहर मज़दूर, महिलाओं और अन्य लोगों को संगठित कर सामंती ताकतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। चाकली एलम्मा एक बहुजन महिला थीं जो रजक जाति से आती थीं। एलम्मा का जन्म 10 सितंबर 1919 में वरंगल ज़िले के कृष्णापुरम गांव में हुआ। असल में एलम्मा का असली उपनाम चितयला था लेकिन जाति और एक महिला होने के कारण उन्हें जिस भेदभाव स्थिति का सामना करना पड़ा, जिस भेदभाव के ख़िलाफ़ उन्होंने आवाज़ उठाई, उसके खिलाफ किए गए उनके संघर्ष के बाद से उन्हें चाकली एलम्मा कहा जाने लगा। चाकली एलम्मा ने जीवनभर एक स्वतंत्र महिला के रूप में काम किया।

यह बात उस समय की है जब तेलंगाना के संसाधनों पर निजामों और ज़मीदारों का एकाधिकार था। उस समय दलितों के साथ किया जाने वाले शोषण महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसी भयानक घटनाएं आम थीं। निचले तबके से आनेवाले लोगों की ज़मीनें हथिया ली जाती थीं। ऐसे में एलम्मा ने जमींदार कोंडल राव से 40 एकड़ जमीन किराए पर लेकर उस पर खेती करना शुरू किया। यह बात उच्च जाति के सामंती जमीदारों और निजाम सरकार के लिए एक बहुत बड़ा झटका साबित हुई। उन्हें यह बहुत बड़ा अपमान लगा कि एक बहुजन महिला के पास ज़मीन थी जिसके कारण उन्होंने हर वह तरीका अपनाया जिससे एलम्मा खेती करना बंद कर दे और यह जमीन छोड़ दे। एलम्मा को कई तरह से डराने-धमकाने की कोशिश की लेकिन एलम्मा पीछे नहीं हटीं और उन्होंने अपनी खेती जारी रखी। सरकार की तरफ से ज़मीन का रिकॉर्ड रखनेवाले एक पटवारी ने काफी कोशिश की कि एलम्मा अपनी ज़मीन और अपना काम छोड़ दें और अपने परिवार के साथ आकर उनकी ज़मीन पर काम करें जो एक तरह की दासता ही थी। एलम्मा ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।

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चाकली एलम्मा राजनीतिक रूप से भी सक्रिय थीं। वह आंध्र महासभा की भी सदस्य थीं। पटवारी की बात न मानने के बाद एलम्मा जानती थीं कि इसके परिणाम का सामना उन्हें करना पड़ेगा। उनकी ज़मीन हथियाने की कई कोशिशें की गईं, उन पर शारीरिक हमले किए गए, उनकी फसलों को नष्ट किया गया। इस पर एलम्मा ने कहा कि यह उनकी ज़मीन है, उनकी फसल है। यह डोरा कौन होता है उनकी फसल और ज़मीन लेनेवाला, ऐसा उनकी मौत के बाद ही मुमकिन हो पाएगा। एक महिला का ऐसा कहना हिम्मत की बात थी। ज़मीदारों को यह बात भला कैसे पचती। यह जानकर कि चाकली एलम्मा कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हो गई हैं। हैदराबाद के एक क्षेत्र के निज़ाम रामचंद्र रेड्डी जिसकी ज़िम्मेदारी डोरा एक तरह का टैक्स इकट्ठा करने की थी, उसने एलम्मा और उनके परिवार के ख़िलाफ झूठा केस दर्ज करवा दिया और उनके बेटे और पति को गिरफ्तार कर लिया गया।

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हैरानी की बात यह है कि यह सब कुछ राज्य के समर्थन से हुआ। किसी बहुजन महिला के ऊपर आने से इस हद तक एतराज होना कि उसके परिवार को भी खत्म कर दिया जाए उसे पूरी तरह तोड़ दिया जाए,  राज्य की घिनौनी जातिवादी मानसिकता को दर्शाता है। एलम्मा बहुत कम आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाओं में से एक थी और सरकार यही नहीं चाहती थी की एक बहुजन महिला खुद से जमीन लेकर उस पर खेती करें। एलम्मा के साथ किए व्यवहार से उनके संघर्ष का पता चलता है। एलम्मा आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थी लेकिन यह शोषण यहीं खत्म नहीं हुआ। जमींदार देशमुख उन्हें आर्थिक रूप से कमज़ोर करना चाहता था इसीलिए उसने अपना दमन बंद नहीं किया। यहां तक कि पटवारी के नौकरों ने उनके पति पर शारीरिक हमला किया और उनकी बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। हैरानी की बात यह है कि यह सब कुछ राज्य के समर्थन से हुआ। एलम्मा आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थी। उन्होंने उसी पटवारी के घर को तोड़कर, वहां मकई की खेती की। यह एलम्मा का जवाब था जिसने उस समय शोषित लोगों के मन में संघर्ष की भावना पैदा की ताकि वह अपने साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ लड़ सके। इसके बाद से एलम्मा एक मजबूत साथ के रूप में लोगों के साथ बनी रही। 

एलम्मा की लड़ाई उनके अपने अस्तित्व की थी जिसे पाने में आज की महिला को भी संघर्ष करना पड़ता है। एलम्मा हमें प्रेरित करती हैं कि विपदा कितनी बड़ी क्यों ना हो, स्थिति चाहे जो भी हो महिलाओं को अपने अस्तित्व के लिए अपनी पहचान के लिए काम करते रहना चाहिए और जरूरत हो तो लड़ना भी चाहिए। वह 1947 में तेलंगाना विद्रोह के सबसे महान और सबसे प्रेरक नेताओं में से एक रही हैं। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ मिलकर तत्कालीन निज़ाम सरकार के अत्याचारों को खत्म करने के लिए हथियार उठाए। चाकली एलम्मा के विद्रोह ने कई महिलाओं को निज़ाम की सेना और जमींदारों से अपनी भूमि की रक्षा के लिए मजबूत खड़े होने के लिए प्रेरित किया, जबकि अभी भी यौन उत्पीड़न और उनके पतियों की हत्या की धमकी का सामना करना पड़ रहा था। अगली पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त करते हुए और क्रांतिकारी समुदायों का निर्माण करते हुए चाकली एलम्मा का 10 सितंबर, 1985 को निधन हो गया

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तस्वीर: फेमिनिज़म इन इंडिया

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