इतिहास महात्मा अय्यंकली : सामाजिक न्याय और सम्मान की लड़ाई के नायक

महात्मा अय्यंकली : सामाजिक न्याय और सम्मान की लड़ाई के नायक

एक दिन अय्यंकली धोती पहनकर अंगवस्त्र लपेटा, पगड़ी पहनी और बैल गाड़ी पर बैठकर आसपास के छोटे बाज़ार में घूमे।

अय्यंकली दक्षिण भारत में सामाजिक न्याय की क्रांति को ज़मीन पर लानेवाले नायक रहे हैं। उनका जन्म 28 अगस्त 1863 को केरल में हुआ था। बचपन में हुई एक घटना ने अय्यंकली को काफ़ी पहले से ही त्रावणकोर समाज के जातिगत भेदभाव का एहसास करा दिया था। अपनी उम्र के लोगों के साथ एक बार फुटबॉल खेलते हुए वह एक नायर परिवार के छत पर गिर गए। उस घर के लोगों ने अपने बच्चों को आगे से कभी भी अय्यंकली के साथ खेलने से मना कर दिया। अय्यंकली ने कभी उसके साथ न खेलने का प्रण लिया था। बचपन की यह घटना उनकी मनोदशा को प्रवाभित करती रही। उन्होंने लंबे समय तक समाज के इस शोषणकारी ढांचे को देखा और उसे सवालों के घेरे में रखा। उस समय तथाकथित ऊंची जाति के लोग दलितों को तन ढके कपड़े पहनकर मुख्य सड़क पर चलने, गांव में घूमने इत्यादि से रोकते थे। अय्यंकली ने इस अमानवीय प्रथा को चुनौती दी। उन्होंने दलित जातियों के बीच अपनी पहचान को लेकर आत्मविश्वास रखने और शोषणकारी नियमों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को प्रेरित करने के लिए सीधी कार्रवाई की थी।

एक दिन उन्होंने धोती पहनकर अंगवस्त्र लपेटा, पगड़ी पहनी और बैलगाड़ी पर बैठकर आसपास के छोटे बाज़ार में घूमे। दलित समाज के लिए यह नई और क्रांतिकारी बात थी। डिकू समाज अय्यंकली के इस कदम से खुश नहीं था। उन्होंने इस यात्रा के दौरान उनका रास्ता रोका, इसपर अय्यंकली ने चाकू निकाला और उन्हें चेतावनी दी कि उनका रास्ता रोकने वाला उन्हें कमजोर न समझें। यह घटना किसी शोषित समाज द्वारा अपनी पहचान और सम्मान की उचित भागीदारी मांगने और न मिलने पर उसके लिए संघर्ष करने की घटना थी। कई फ़िल्में जैसे ‘कर्णन’, ‘काला, ‘असुरन’ ने जातिगत हिंसा और शोषण झेल रहे किरदारों को सफलतापूर्वक पर्दे पर दिखाया है। अय्यंकली किसी फ़िल्मी दुनिया का हिस्सा नहीं बल्कि असल जीवन के सशक्त क़िरदार हैं जिनके फैसले और काम किसी नायक से कम नहीं हैं। अय्यंकली को बचपन में होने वाले कई एहसासों के ज़रिये इस सच्चाई से और राब्ता हो चुका था कि दलित बच्चों के लिए शिक्षा की राहें कठिन हैं। बेहतर कहें तो शोषक समाज द्वारा बंद करके रखी गई हैं। इसलिए बचपन में वह स्कूल नहीं जा सके। उन्होंने फैसला किया कि दलित समाज की अगली पीढ़ी के साथ ऐसा नहीं होने देंगे। अय्यंकली ने साधु जन परिपालन संघम के नाम से एक संस्था बनाई। साल 1907 में सरकार ने दलित बच्चों को स्कूलों में दाख़िले का आदेश जारी किया। स्कूल प्रशासन में जमींदारों भी शामिल थे जातिगत दंभ में उन्होंने इस नियम को मानने से इनकार कर दिया। उनके इस दंभ को चुनौती देते हुए अय्यंकली ने कहा था, “अगर तुम हमारे बच्चों को पढ़ने से रोकोगे, तुम्हारे खेतों में घास-फूंस उग आएंगे।” उन्होंने मज़दूरों को अपनी अस्मिता में विश्वास दिलाया। 

अय्यंकली की एक प्रतिमा

और पढ़ें : ई वी रामास्वामी पेरियार : भारत में आडम्बरों के ख़िलाफ़ तर्कवाद की सशक्त पहचान

केरल की पहली श्रमिक हड़ताल

शिक्षा के हक़ के लिए शुरू हुई अय्यंकली की आवाज़ श्रमिकों और मजदूरों के हक़ में खड़ी थी। उन्होंने जमींदारों के आगे कई शर्तें रखीं। जैसे, श्रमिकों के काम को पक्का करें, उन्हें जब मन तब हटाया न जा सके, उन्हें झूठे आरोपों में न फंसाया जाए, उन पर कोड़े का इस्तेमाल न हो, उन्हें अपने बच्चों को स्कूली शिक्षा दिलाने की आज़ादी हो। जमींदारों ने ये सारी मांगें खारिज़ कर दीं लेकिन श्रमिकों ने भी काम करने से मना कर दिया। बल के प्रयोग पर श्रमिकों ने उन्हें जवाब दिया, उनके साथ अय्यंकली सेना थी। धीरे-धीरे जमींदारों के खेत जंगल होने लगे। श्रमिकों के ऊपर भी भुखमरी की विपदा हावी थी। अय्यंकली ने श्रमिकों के लिए एक हल निकाला। उन्होंने विझिनजम के मछुआरा समुदाय से बात की और हर दिन श्रमिकों के हर परिवार से एक काम करने वाला इंसान उनके साथ पानी में जाने लगा। श्रमिकों की हालत सुधरने लगी थी। जमींदारों ने हार मान ली और समझौते के लिए आए। जमींदारों का मामला ठीक होने की तरफ बढ़ा था लेकिन नौकरशाही में दलितों के स्कूल प्रवेश को लेकर सहमति का भाव नहीं था।

अय्यंकली ने अपने लोगों के लिए अपने स्कूल बनाने का फैसला किया। उन्होंने इस स्कूल के निर्माण की अनुमति शिक्षा विभाग से ली और दलितों के लिए पहला स्कूल वेंगनूर में बना लेकिन इस स्कूल में पढ़ाने आने वाले शिक्षक इस भावना के साथ आते जैसे वे किसी छोटी जगह जा रहे हैं। इस स्कूल के विरोध में कई समूह आए, कई बार स्कूल की इमारत तोड़ी गई। प्रधानाध्यापक स्कूल से त्यागपत्र देना चाहते थे, अय्यंकली के बहुत कहने और सुरक्षा देने के बाद वह रुके। अय्यंकली दलितों की शिक्षा के लिए सिस्टम के अंदर रहकर और बाहर से, दोनों ही शैली में मजबूती से खड़े थे। हालांकि अय्यंकली जाति आधरित स्कूलों के पक्षधर नहीं थे। वे शिक्षा को प्रगति का एक मात्र रास्ता मानते थे। शोषित समुदायों के लिए शिक्षा के द्वारा हर जगह बंद थे, उनके लिए अलग स्कूल की मांग डिकू समुदाय (शोषक समुदाय) के रवैये का नतीजा ही था। 1936 में अय्यंकली जो सामाजिक शोषण के कारण खुद साक्षर नहीं हो पाए, उस अय्यंकली ने वेंगनूर स्कूल की स्थापना की। इस स्कूल में पुस्तकालय और अन्य पाठ्यक्रमों की भी शुरुआत की गई।

और पढ़ें : दक्षिण भारत के ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ की कहानी

महिलाओं के वस्त्र चयन की बात

सौ साल पहले दलित महिलाओं और पुरुषों को एक तरह से कपड़े पहनने के लिए बाध्य किया जाता रहा। उन्हें केवल केवल कमर से घुटने तक के बदन को ढकने की आज़ादी थी। वे केवल ग्रेनाइट के पत्थरों से बनीं मालाएं पहन सकते थे। ये मालाएं ग़ुलामी की निशानी थी। महिलाएं तन का ऊपरी भाग नहीं ढक सकती थीं। अय्यंकली ने नैय्याटीनकरा में एक सभा आयोजित की और कहा कि दलित महिलाओं को इस माला का त्याग करना चाहिए। उन्हें ब्लाउज़ पहनने का अधिकार होना चाहिए और इनके नहीं मिलने पर उन्हें इस अधिकार के लिए लड़ना चाहिए। केरल में इस अमानवीय कपड़े निर्धारण के नियम का अंत अय्यंकली के कारण हुआ। 

धार्मिक प्रपंचों के ख़िलाफ़

साल 1917 में चकोल कुरुम्बा देवस्थान श्री मूलम प्रजा सभा के सदस्य बने। उन्होंने इस देश में इतिहास का पहला मंदिर प्रवेश आंदोलन किया। इस आंदोलन में शामिल पुलाया समुदाय के कई लोग ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए, लेकिन जब ईसाई धर्म में उनकी संख्या बढ़ने लगी, डिकू ईसाइयों ने उन्हें भी अछूत क़रार दे दिया। अय्यंकली ने इस आंदोलन में पूरी भागीदारी दी लेकिन इस घटना के कारण अय्यंकली का यह विचार और मजबूत हुआ कि धर्म परिवर्तन की जगह दलितों को इसका हिस्सा रहकर ही ब्राह्मणवाद को चुनौती देनी चाहिए। पहचान की लड़ाई में अय्यंकली ने दलितों के लिए नई राहें खोली और तरीके निकाले। वह उनके लिए शारीरिक शक्ति के प्रशिक्षण के पक्षधर थे। कारण उनके जीवन के अनुभवों से उन्होंने यह सीखा था। उन्होंने ‘शरीर की राजनीति’ को समझा और उसके तरह दलित महिलाओं और दलित पुरुषों के लिए उनके शरीर से लेकर शारीरिक श्रम तक इसे खंडित कर के शोषित जन के आगे रखा। वह जानते थे कि सीधे प्रहार के अलावा समाज कई तरह के चिन्हों के द्वारा शोषित समाज को कमतर साबित करते हैं, इसलिए उनकी कई लड़ाइयां एक विस्तृत आंदोलन के अलावा इस प्रतीकवाद को ढहाने के लिए रहा। वह घनी मूंछें रखते थे, ऐसा दिखना तथाकथित बड़ी जाति के पुरुषों की पहचान थी। उन्होंने दलित समुदाय को अपने समाज की पुनर्रचना और पहचान के सम्मान की अहमियत से मिलवाया। 

और पढ़ें : दलित महिलाओं की अपने ‘स्तन ढकने के अधिकार’ की लड़ाई : चन्नार क्रांति


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content