जगह पेरिस, टूर्नामेंट- आर्चरी वर्ल्ड कप। इस आर्चरी वर्ल्ड कप में भारत की दीपिका कुमारी ने एक ही दिन में तीन गोल्ड मेडल अपने नाम किए। दीपिका ने अपना पहला गोल्ड मेडल महिला टीम रिकर्व स्पर्धा में अंकिता भगत और कोमोलिका बारी के साथ मेक्सिको की टीम को हराकर जीता। उन्होंने दूसरा मेडल मिक्स्ड डबल्स में अतनु दास के साथ जीता और तीसरा गोल्ड मेडल एकल रिकर्व स्पर्धा में अपने नाम किया। इस जीत के साथ ही दीपिका कुमारी दोबारा दुनिया की नंबर वन तीरंदाज़ बन गई हैं। इससे पहले उन्होंने साल 2012 में यह खिताब हासिल किया था। अपनी जीत पर वर्ल्ड आर्चरी.कॉम से बीतचीत के दौरान दीपिका ने कहा कि वह बेहद खुश हैं, साथ ही अपनी इस परफॉर्मेंस को उन्हें बरकरार रखना होगा, क्योंकि आने वाला टूर्नामेंट उनके लिए बेहद अहम है। यहां दीपिका टोक्यो ओलंपिक्स की बात कर रही थीं। दीपिका की यह जीत कई मायनों में महत्वपूर्ण है। सबसे ज़रूरी यह कि उन्होंने यह शानदार जीत टोक्यो ओलंपिक से पहले हासिल की है। इससे आगामी ओलंपिक में उनसे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें और अधिक बढ़ गई हैं।
हालांकि देश की मीडिया द्वारा उनकी इस जीत को वह कवरेज नहीं मिली जिसकी वह हकदार हैं। देखा जाए तो जितनी चर्चा बीते दिनों भारतीय क्रिकेट टीम को न्यूज़ीलैंड द्वारा मिली हार को लेकर हुई, दीपिका की इस शानदार जीत को वह भी हासिल नहीं हुआ। क्रिकेट में टीम इंडिया की हार अखबारों के पहले पन्ने और वेबसाइट्स की लीड खबरें तो बनीं, लेकिन दीपिका की जीत को या तो अखबारों में चंद लाइनों में पहले पन्ने पर समेट दिया या फिर उन्हें जगह ही नहीं दी। हालात ये रहे कि कई लोगों ने बकायदा ट्वीट करके एक कैंपेन चलाया कि दीपिका कुमारी को पूरी कवरेज दी जाए।
उदाहरण के तौर पर टीम इंडिया की हार का अखबार हिंदुस्तान टाइम्स (दिल्ली संस्करण) ने शुरुआत के ही एक पूरे पन्ने पर विश्लेषण किया लेकिन दीपिका की जीत की खबर को एक कॉलम में समेट दिया। साथ ही दीपिका स्पोर्ट्स पेज से भी गायब दिखीं।
टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली संस्करण) के शुरुआती पन्ने पर दीपिका की खबर को एक छोटा सा कॉलम मिला लेकिन स्पोर्ट्स के पन्नों पर भी दीपिका की खबर क्रिकेट, फुटबॉल या टेनिस जितना महत्व नहीं पा सकी।
वहीं अगर नज़र डालें हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों पर तो अमर उजाला (दिल्ली संस्करण) के स्पोर्ट्स पेज पर दीपिका की जीत की खबर से अधिक इस बात को तरजीह दी गई कि प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात में क्या कहा।
हिंदुस्तान (दिल्ली संस्करण) के शुरुआती पन्नों ने भी दीपिका की जीत को एक कॉलम में जगह दी। वहीं, स्पोर्ट्स के पन्ने पर भी दीपिका की खबर को मुख्य खबर के रूप में नहीं रखा गया, न ही उनकी तस्वीर लगाई गई।
बात अगर दैनिक जागरण (दिल्ली संस्करण) की करें तो वहां दीपिका की खबर को मास्ट हेड पर ज़रूर जगह मिली लेकिन स्पोर्ट्स पेज पर क्रिकेट की खबरों को ही प्रमुखता दी गई।
जनसत्ता ने ज़रूर पहले पन्ने पर दीपिका की खबर को पहले पन्ने के निचले कॉलम में जगह दी।
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महिला खिलाड़ियों की उपलब्धि और मेल गेज़
महिलाओं के लिए खेल के क्षेत्र में भी सिर्फ समान वेतन इकलौता मुद्दा नहीं है। दीपिका के पार्टनर अतनु दास भी एक तीरंदाज़ हैं और इस वर्ल्ड कप में उन्होंने भी हिस्सा लिया है। दीपिका और अतनु ने साथ मिलकर एक गोल्ड मेडल भी जीता है। यहां दीपिका और अतनु ने बतौर खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया है। लेकिन एक महिला खिलाड़ी को हमेशा एक उसी पितृसत्तात्मक, मेल गेज़ से देखना हमारे मीडिया की आदत रही है। मीडिया के लिए एक महिला खिलाड़ी, खिलाड़ी बाद में किसी की पत्नी, मां, बहन पहले होती है। उदाहरण के लिए अमर उजाला में छपी खबर की यह लाइन पढ़िए- “अतनु दास और उनकी पत्नी दीपिका कुमारी ने रविवार को तीरंदाजी विश्व कप की मिश्रित टीम स्पर्धा के फाइनल में स्वर्ण पदक जीता।” एक तथाकथित मुख्यधारा मीडिया की वेबसाइट जिसे हर रोज़ लाखों लोग पढ़ते हैं, क्या उसे यह तक नहीं पता कि दीपिका कुमारी ने इस टूर्नामेंट में हिस्सा बतौर खिलाड़ी लिया है। उनकी पहचान सिर्फ अतनु दास की पत्नी नहीं बल्कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज़ की है। न सिर्फ कई बार मीडिया ने दीपिका की पहचान सिर्फ अतुन दास की पत्नी होने तक सीमित की बल्कि टूर्नामेंट में उन दोनों की उपलब्धियों पर उनके निजी रिश्ते की कहानियां हावी नज़र आईं। बतौर खिलाड़ी अपनी जीत और साथ का जश्न मना रहे दीपिका और अतनु को भी शायद यह मंज़ूर न हो कि उनके खेल पर उनका निजी जीवन हावी रहे।
एक खिलाड़ी की उपलब्धि को जब हम निजी रिश्तों तक सीमित कर देते हैं तो ज़ाहिर सी बात है आम जन में भी उसके निजी जीवन से जुड़ी खबरों को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ेगी। यहां दिक्कत अमर उजाला या किसी ख़ास वेबसाइट की नहीं है। यहा दिक्कत है उस मेल गेज़ की जिसके तहत ये खबरें लिखी जाती हैं। वह मेल गेज़ जो एक औरत को स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखता। मेल गेज़ और स्पोर्ट्स सिर्फ खबरें लिखने और ब्रॉडकास्ट करनेवालों तक सीमित नहीं है। मेल गेज़ स्पोर्ट्स देखनेवालों में भी उतना ही हावी है। स्पोर्ट्स देखनेवाले और उनपर खबरें लिखनेवाले इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं। उदाहरण के लिए भारतीय क्रिकेटर स्मृति मंधाना पर किया गया यह ट्वीट देखिए।
खिलाड़ियों, उनके लुक्स, मैदान के बाहर उनकी फैन फॉलोविंग कोई नई बात नहीं है। कई लोगों को इस ट्वीट में कोई परेशानी नज़र नहीं आती। हां एक खिलाड़ी के लुक्स की फैन-फॉलोविंग बहुत सामान्य है लेकिन इस मेल गेज़ की आड़ में महिला खिलाड़ियों की पूरी उपलब्धि को ही नकार दिया जाता है। नैरेटिव बस उनके कपड़ों, उनके निजी जीवन और लुक्स तक सीमित कर दिया जाता है। जबकि ऐसे पुरुष खिलाड़ियों के साथ नहीं होता। पुरुष खिलाड़ी इस मामले में काफी प्रिविलेज़्ड होते हैं। उन्हें इस बात का नुकसान नहीं उठाना पड़ता। आप गूगल में फीमेल एथलीट्स का कीवर्ड डालकर देखिए। सर्च रिज़ल्ट में आपको दिखाई देगा कि लोग ये खोज रहे हैं कि सबसे खूबसूरत महिला खिलाड़ी कौन है? “दुनिया की 10 सबसे हॉट महिला खिलाड़ी” ऐसे शीर्षकों के साथ आपको कई लेख मिल जाएंगे। चाहे वह खेल का मैदान हो या आम जीवन महिलाओं को हमेशा से ही उनके शरीर, पुरुषों से उनके संबंधों तक ही सीमित किया जाता रहा है।
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यूनाइटेड नेशन एडुकेशनल, साइंटफिक एंड कलचरल ऑरगनाइज़ेशन (UNESCO) की एक रिपोर्ट ‘जेंडर इक्वॉलिटी इन स्पोर्ट्स मीडिया’ के मुताबिक खेल के क्षेत्र में 40 फीसद खिलाड़ी महिलाएं हैं लेकिन उन्हें सिर्फ 4 फीसद कवरेज ही मिल पाती है। इस सीमित कवरेज में भी अधिकतर महिला खिलाड़ियों को ऑब्जेक्टिफाई किया जाता है या कमतर आंका जाता है। इसका सीधा संबंध इससे भी है कि आज भी स्पोर्ट्स जर्नलिज़म में पुरुषों का एकाधिकार है।
दीपिका जैसे खिलाड़ियों की उपलब्धियों की कवरेज क्यों ज़रूरी
बात जब हम मीडिया कवरेज की करते हैं, खासकर महिलाओं के खेल की तो हम आसानी से कह सकते हैं कि न सिर्फ दीपिका बल्कि महिलाओं के किसी खेल को वह कवरेज नहीं मिलती जो पुरुषों को मिलती है। हां क्रिकेट ज़रूर इस मामले में हमारे देश में थोड़ा आगे है लेकिन पुरुषों के क्रिकेट के सामने उसकी कवरेज भी फीकी पड़ जाती है। तीन गोल्ड मेडल, दो बार विश्व की नंबर वन तीरंदाज़ बनने का सफ़र दीपिका के लिए आसान नहीं था। झारखंड के रातू गांव में उनका जन्म हुआ। मां गीता महतो और पिता शिवनारायण महतो के लिए दीपिका के तीरंदाज़ के खेल को आर्थिक तौर पर समर्थन देना नामुमकिन था। बचपन में वह आम पर निशाना लगाकर प्रैक्टिस किया करतीं। आर्थिक दिक्कतों का सामना करते हुए, देश के एक पिछड़े राज्य से आज वह यहां तक पहुंची हैं। भारत में क्रिकेट के बाद किसी अन्य खेल को कवरेज मिलना ऐसे भी एक चुनौती है। लेकिन पर्याप्त कवरेज और समर्थन के बिना कई खिलाड़ी पीछे रह जाते हैं। ये खिलाड़ी पहले से ही सीमित संसाधनों के बीच खेल रहे होते हैं। इन सीमित संसाधनों के बीच ही वे मेडल लेकर आते हैं लेकिन उसके बाद भी कितनों की आर्थिक स्थिति नहीं बदलती। हमने न जानें कितनी ऐसी खबरें पढ़ी होंगी जहां राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके खिलाड़ी सब्ज़ी बेचने को मजबूर हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर झारखंड की एथलीट गीता कुमार जो आठ गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं, इस लॉकडाउन में सब्ज़ी बेचने को मजबूर हो गईं।
मानसिक स्वास्थ्य के लिए नाओमी ओसाका के फैसले से लेकर उन्हें कमज़ोर कहना, सानिया मिर्ज़ा की स्कर्ट की लंबाई और उनकी शादी, मारिया शारपोवा के ऑब्जेक्टिफिकेशन, से लेकर हर बार पितृसत्ता खेल के क्षेत्र में महिलाओं को कैद करने की कोशिश जारी रखती हैं। यही पितृसत्ता मीडिया की कवरेज में भी झलकती है। इसलिए ज़रूरी है कि खेल की कवरेज में भी लैंगिक संवेदनशीलता को प्रमुखता दी जाए। वंचित और हाशिये पर गए समुदाय और क्षेत्रों से आनेवाले खिलाड़ियों, खासकर महिला खिलाड़ियों के लिए खेल के इस प्रिविलेज़्ड क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना ही किसी जीत से कम नहीं होता। इसलिए उन खिलाड़ियों को प्रमुखता दी जानी चाहिए जो समाज के रूढ़िवादों, जातिवाद, लिंगभेद, वर्ग-विभेद आदि चुनौतियों का सामना कर अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश में लगे हैं। खेल की कवरेज में भी समावेशी नज़रिया ज़रूरी है तभी यहां मौजूद विशेषाधिकार और मेल गेज़ की दीवार दरकेगी।
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तस्वीर साभार: World Archery Foundation