समाजख़बर सुल्ली डील्स: मुस्लिम महिलाओं की ‘बोली’ लगाता सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज

सुल्ली डील्स: मुस्लिम महिलाओं की ‘बोली’ लगाता सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज

“मैंने ट्रोलिंग या गालियां बर्दाश्त करना सीख लिया था क्योंकि मैं जान गई थी कि अगर सोशल मीडिया पर अपनी बातों को रखना है तो ये सब झेलना होगा लेकिन जब इस ऐप पर अपना नाम देखा तो काफ़ी ग़ुस्सा आया। अब हमारे ट्रॉमा में एक और सदमा शामिल हो गया है।” यह कहना है आफ़रीन फ़ातिमा ख़ान का जो जेनयू की छात्रा हैं और उन लड़कियों में शामिल हैं जिनका नाम ‘सुल्ली डील्स’ ऐप पर ‘डील ऑफ द डे’ में था। दरअसल कुछ दिन पहले Github ऐप जो कि एक ओपन सोर्स प्लैटफॉर्म है, वहां ‘सुल्ली डील्स’ नाम से मुस्लिम लड़कियों को ‘बेचा’ जा रहा था। इसमें लगभग अधिकतर मुस्लिम लड़कियों की बिना इजाज़त तस्वीरें और ट्विटर अकाउंट साझा किए गए थे। इस लिस्ट में पत्रकार और एक्विस्ट भी शामिल थीं। ये सब वे लड़कियां थीं जो सोशल मीडिया पर पितृसत्ता को चुनौती और सामाजिक मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखती हैं। 

ऑबसेर्वेर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 तक भारत में 67 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले सिर्फ 33 प्रतिशत महिलाओं ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया था। 52 प्रतिशत महिलाएं यूज़र इंटरनेट पर अपनी व्यक्तिगत जानकारी साझा करने में भरोसा नहीं करती हैं। 26 प्रतिशत से भी कम महिलाएं उत्पीड़न, पॉर्न का शिकार होने का डर और महिला द्वेष के कारण मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल से दूर हैं। इसी साल जनवरी में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने प्रोग्राम में बात करते हुए कहा था कि कोविड-19 महामारी के बाद से ऑनलाइन उत्पीड़न के मामलों में पांच गुना बढ़ोतरी देखी गई है। वहीं, साल 2020 की ORF की ही दूसरी रिपोर्ट कहती है कि वास्तविक और साइबर स्पेस हिंसा को अलग-अलग करना नामुमकिन हो गया है। इंटरनेट ट्रोल्स का एक बड़ा तबका हिंदू-मुस्लिम मुद्दे पर ही ध्यान केंद्रित करता है और ब्राह्मणवादी पितृसत्ताh का प्रचार करता है। 

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आफ़रीन सुल्ली डील्स मामले पर कहती हैं. “यह सिर्फ साइबर क्राइम का मामला नहीं है बल्कि यह मुस्लिम आइडेंटिटी पर हमला है क्योंकि जिन महिलाओं का नाम इस ऐप पर शामिल था वे सभी मुस्लिम हैं और उन्हे उनकी पहचान की वजह से ही निशाना बनाया गया। देश में जिस तरह से इस्लामोफिबिया बढ़ा है उसकी वजह से ही इस तरह की घटनाओं को बिना किसी डर के अंजाम दिया जा रहा है।” इस पूरे मामले को उजागर करने वाली आयशा (बदला हुआ नाम) नाम की ट्विटर यूज़र का प्रोफाइल भी उस ऐप पर बनाया गया था। वह पहचान छिपाने की शर्त पर कहती हैं, “ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और देश में जिस तरह के हालात चल रहे हैं ये आखिरी बार भी नहीं होगा। पहले से ही महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं और अगर आप अल्पसंख्यक समुदाय से आती हैं तो आपके लिए ख़तरा और ज़्यादा बढ़ जाता है। सुल्ली डील्स पर अपना नाम देखकर डर तो नहीं लगा और ना ही बुरा लगा। डर पहली या दूसरी बार लगाता है। इस बार गुस्सा बहुत आया कि इनकी हिम्मत हर दिन बढ़ती ही जा रही है।  इन लोगों को भय ही नहीं है। इनको पता है कि इन्हें कुछ नहीं होगा।”

वहीं, राजस्थान की रहने वाली आमना बेगम अंसारी पेशे से रिसर्च असोसिएट हैं। सोशल मीडिया पर टैग कर उन्हें जानकारी दी गई कि उनका नाम भी उस लिस्ट में मौजूद है लेकिन उनके चेक करने से पहले ही ऐप को हटा दिया गया था। आमना कहती हैं, “जब किसी ने मुझे बताया कि उस लिस्ट में मेरा नाम है तो सुनकर काफी दुख हुआ क्योंकि वही एक पब्लिक स्पेस है जहां पर आपका अस्तित्व होता है अगर वह भी आपकी मुसीबत बन जाए तो गुस्सा आता है। यह मेरा मूल अधिकार है कि मैं पब्लिक स्पेस का इस्तेमाल करूं। अब मुझे ट्रोलिंग आम बात लगने लगी है। पहली बार जब सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया था तब बहुत सदमा लगा था लेकिन इस बार डर नहीं लगा।”

बता दें कि इससे पहले भी इसी साल ईद के मौक़े पर ‘लिबरल डोज़’ नाम के ट्विटर यूज़र ने कुछ मुस्लिम लड़कियों को ‘बेचा’ था। जिन लड़कियों की बोली लगाई गई थी उनमें कांग्रेस की राष्ट्रीय संयोजक हसीबा भी मौजूद थीं। यहां भी हसीबा की बिना मंजूरी के तस्वीरें इस्तेमाल की गई थीं और उन्हें 77 पैसे में ‘बेच’ दिया गया था। वह कहती हैं, “मैं उनका निशाना इसलिए बनी क्योंकि मुझमें वे सब कुछ है जिससे वे नफ़रत करते हैं। मैं मुस्लिम हूं, महिला हूं, मैं बोलती हूं और उनकी हर पॉलिसी पर सवाल करती हूं। उनकी विचारधारा के मुताबिक हम लड़कियों की जगह किचन में है। उनको यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि कैसे ये मुस्लिम लड़कियां उनके साथ कंधे से कंधा मिला सकती हैं और उनसे सवाल पूछ सकती हैं।”

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मुस्लिम महिलाएं और नफ़रत की विचारधारा

इसी साल महिला दिवस के मौक़े पर ट्विटर कमिशन फॉर इंडिपेंडेंट रिसर्च ने एक डेटा जारी किया। इसमें बताया गया की भारत में महिलाओं ने ट्विटर पर किन मुद्दों पर ज़्यादा चर्चा की। यह रिसर्च जनवरी 2019 से फरवरी 2021 के बीच 10 शहर में की गई थी जिसके मुताबिक 24.9 फीसद महिलाओं ने फैशन, किताबें, खूबसूरती, मनोरंजन और खानपान के बारे में सबसे ज़्यादा बातें की। इसके बाद 20.8 फ़ीसद करेंट अफेयर्स, खुशी के पलों के बारे में 14.5 फ़ीसद, समुदाय के बारे में 11.7 फ़ीसद और सामाजिक परिवर्तन के बारे में 8.7 फ़ीसद महिलाओं ने बातें कीं। साफतौर पर महिलाओं ने ज्यादातर सामाजिक मुद्दों को अपनी चर्चा का विषय बनाया।एमनेस्टी इंटरनेशनल की साल 2020 में आई एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में दलित महिला नेताओं को ऑनलाइन दुर्व्यवहार ज़्यादा झेलना पड़ा। रिपोर्ट की मानें तो उन्हें 59 फ़ीसद अधिक धमकी और नफरत भरे ट्वीट्स का सामना करना पड़ा। मुस्लिम महिलाओं को अन्य धर्मों की महिला नेताओं के मुकाबले 94.1 फ़ीसद अधिक जातिगत या धार्मिक गालियां सुनने को मिलीं। 

उधर, साल 2019 में हुए सीएए- एनआरसी के ख़िलाफ़ जामिया और शाहीन बाग आंदोलन के बाद से ही मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ ट्रोलिंग और भड़काऊ भाषणों के मामलों में इज़ाफ़ा हुआ है। आफ़रीन कहती हैं, “2014 के बाद जो एंटी-मुस्लिम कैम्पेन चल रहा है ये उसका ही दूसरा चेहरा है। इस पूरे मुद्दे को अलग से नहीं देखा जा सकता है। जिन लोगों ने यह किया है उन्हें ये सब सिखाया गया है। उन्हें राइट विंग से समर्थन हासिल है। मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बयान देते हुए खुद बीजेपी के नेता नज़र आ जाते हैं।” वह आगे कहती हैं “यह घटना दिखाती है कि पूर्ण हिंदू राष्ट्र की जो कल्पना है उसमें मुस्लिम महिलाओं का दर्जा एक ‘सेक्स स्लेव’ की तौर पर होगा। अभी कुछ दिन पहले ही हरियाणा के पटौदी की पंचायत में बयान दिया गया कि ‘सलमा को ले कर आओ’। इन सब को अलग करके नहीं देखा जा सकता है ये सब एक विचारधारा से जुड़ा हुआ है।”

हसीबा कहती हैं, “इनकी विचारधारा RSS से जुड़ी हुई है। इनके लिए महिलाएं एक उपकरण हैं और यह बलात्कार को वैध राजनीतिक हथियार मानते हैं। इनसे उम्मीद भी क्या की जा सकती है।” इस मुद्दे पर बात करते हुए आयशा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, “हमारे समाज में जब दो राज्यों या तबकों के बीच जंग होती है तो महिलाओं के जिस्म को ‘युद्ध का मैदान’ समझा जाता है। दोनों समुदायों में मर्दों को लेकर भी नफरत होती है लेकिन वे उन्हे इस तरह बेचेंगे नहीं। पितृसत्ता ने महिलाओं को उनके जिस्म तक सीमित कर दिया है। समाज ने इज़्ज़त महिलाओं के जिस्म में डाली है। अब लोगों को लगता है कि इनकी महिलाओं पर हमला करने से समुदाय को नुक़सान पहुंचेगा।” वहीं, आमना इस मामले को संप्रदायक नहीं मानती हैं और कहती हैं, “इसी तरह की reddit पर पाकिस्तान में एक साइट बनाई हुई है जिसमें हिंदू महिलाओं की अश्लील तस्वीरें शेयर की गई हैं। महिलाओं पर इस तरह हमला करना हर विचारधारा और धर्म में है। यह सिर्फ एक पितृसत्तात्मक मानसिकता है।”

आफ़रीन इस मुद्दे को लेकर कुछ लोगों पर खामोश इख़्तियार करने का आरोप लगते हुए कहती हैं, “जिस तरह से कुछ मानवाधिकार, महिला संगठनों और विपक्षी दलों ने इस पर चुप्पी साध ली उससे लगाता है कि उन्होंने सहमति दे दी हो कि आप इन महिलाओं के साथ कुछ भी कर सकते हैं और कोई कुछ भी नहीं बोलेगा।” इस घटना के असर पर बात करते हुए आमना कहती हैं, “समाज में लोगों को औरतों की आज़ादी को नियंत्रण करने का बहाना मिल जाता है। वे महिलाओं को इस तरह की घटना को मिसाल बनाकर पेश करेंगे कि जो औरतें दायरे में नहीं रहती हैं उनके साथ ये होता है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग जिनमें मुस्लिम और महिलाएं भी शामिल हैं अब वे इन लड़कियों को ही ज़िम्मेदार बता कर ट्रोल कर रहे हैं। आयशा (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “इस पूरे केस के बाद लोगों ने उल्टा लड़कियों की मोरल पुलिसिंग करनी शुरू कर दी है। कुछ लोगों ने उन्हें ट्रोल किया कि अगर वे अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर न करतीं तो उनके साथ ऐसा न होता।”

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इंसाफ़ की लड़ाई

सर्बिया की आर्टिस्ट मरीना आब्रमोविक ने साल 1974 में अपने प्रदर्शन ‘रिथम ज़ीरो’ के ज़रिए दर्शाने की कोशिश की थी कि अगर पीड़ित सहनशील है तो हिंसा बढ़ जाती है। जब लोगों में कार्रवाई या सज़ा का डर नहीं होता और वे अपने किए गए कामों के परिणामों की कमी को देखते हैं तो ऐसी क्रूरता करने में सक्षम होते हैं। हसीबा कहती हैं कि उन्होंने ईद के मौक़े पर मुस्लिम महिलाओं के बेचे जाने की शिकायत पुलिस में की थी लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। वह कहती हैं, “इस मामले में मैंने एफआईआर दर्ज कराई थी। जो पुलिस ऑफिसर इस मामले की जांच कर रहे हैं मुझे उन पर भरोसा है लेकिन उनसे बातचीत करके लगा है कि उन्हे सोशल मीडिया की जानकारी कम है। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपना फ़ोन बदल लूं जिसके लिए मैंने मना कर दिया। मुझे समझ नहीं आता कि आख़िर जिन्हे सोशल मीडिया की जानकारी नहीं होती उन्हे साइबर अपराध से जुड़े मामलों की जांच किस आधार पर सौंपी जाती है? अगर इस मामले में पहले ही कोई कार्रवाई हो जाती तो शायद ये सुल्ली डील का मामला ना होता और लोगों में कानून को लेकर थोड़ा डर होता।”

अब आफ़रीन, आयशा (बदला हुआ नाम) और आमना ने भी सुल्ली डील, Github और ट्विटर के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने का मन बना लिया है। आफ़रीन कहती हैं, “इस घटना को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है इसलिए हम कोशिश करेंगे की इस पूरे मामले में हम क़ानूनी कार्रवाई करें और अपने साथ कुछ विपक्षी दलों के नेताओं को भी ले कर आएं।” वहीं, मुंबई में इस मामले को लेकर शिकायत दर्ज कराई गई है। मुंबई हाईकोर्ट के वकील सैफ़ आलम बताते हैं कि उनकी क्लाइंट इस घटना के बाद से सदमे में हैं। वह कहते हैं, “जब हमें इस मामले के बारे में जानकारी मिली तो काफी दुख हुआ और हमने तय किया कि इसके ख़िलाफ़ कानूनी कदम उठाएंगे। हमने मुंबई पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है जिस पर पुलिस की दो टीमें काम कर रही हैं।” इस मामले में आईटी समेत मानव तस्करी का केस भी बनता है जिसमें आरोपी को लगभग दस साल की सज़ा हो सकती है। इसके अलावा दिल्ली पुलिस की साइबर सेल ने भी इस घटना के बाद एफआईआर दर्ज कर ली है। एडिटर्स गिल्ड समेत कई अन्य संगठन ने इस घटना पर रोष जताया है। आफ़रीन कहती हैं, “इस घटना से हम बिल्कुल डरे नहीं हैं। वे यही चाहते हैं कि हम डर जाएं, इसलिए हमें डर नहीं लग रहा है। हम आगे भी सोशल मीडिया पर बोलते और लिखते रहेंगे।”

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Comments:

  1. Abhilasha says:

    Well researched,and we’ll put arguments. Amazingly argued Heenaji.

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