हाल ही में मध्य प्रदेश के नेमावर ज़िले के देवास में एक आदिवासी परिवार के पांच सदस्यों की हत्या का मामला सामने आया है। यह कोई मामूली आपराधिक घटना नहीं है। जहां एक तरफ यह घटना मध्य प्रदेश में कानून व्यवस्था पर कई सवाल खड़ा करती है, वहीं दूसरी तरफ तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया के जातिवादी चरित्र को भी उजागर करती है। यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर भारतीय मीडिया की प्राथमिकताएं क्या हैं? जिस मीडिया के लिए एक पुजारी को थप्पड़ लगना प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बन जाता है उसी मीडिया के लिए नेमावर की घटना महज बुलेटिन का हिस्सा बनकर क्यों रह जाती है। बता दें कि नेमावर ज़िले के देवास में 13 मई को एक आदिवासी लड़की रुपाली और उसके परिवार के चार सदस्यों को गांव के ही सवर्ण समुदाय के सुरेंद्र चौहान ने अपने साथियों के साथ मिलकर जान से मार डाला और उनकी लाश को 10 -15 फुट गहरे गड्ढे में दफना दिया। उनकी लाश जल्दी गल जाए इसके लिए उनके शरीर पर नमक और यूरिया (खेती में प्रयोग होने वाली खाद) डाल दिया।
मृतक रुपाली और सुरेंद्र चौहान एक ही गांव के रहने वाले थे। दो साल से दोनों के बीच प्रेम संबंध था। सुरेंद्र ने रुपाली से शादी का वादा भी किया था लेकिन घटना से कुछ दिनों पहले ही रुपाली को पता चला कि सुरेंद्र का रिश्ता उसकी बिरादरी में तय हो गया है। रुपाली नहीं चाहती थी कि सुरेंद्र कहीं और शादी करे इसलिए वह दवाब बनाने लगी ताकि वह उससे शादी कर ले लेकिन सुरेंद्र ने मना कर दिया। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक गुस्से में आकर रुपाली ने सुरेंद्र की होने वाली पत्नी के फोटो को इंस्टाग्राम पर डाल दिया। इस बात से गुस्साए और जाति के हनक में चूर सुरेंद्र ने रुपाली को मिलने के लिए बुलाया। जब वह वहां आई तो उस के सिर पर वार करके सुरेंद्र चौहान, विवेक तिवारी और उसके साथियों ने मिलकर रुपाली को जान से मार दिया। इतने से भी जब सुरेंद्र को संतुष्टि नहीं मिली तो उसने रुपाली के भतीजे पवन जिसकी उम्र महज 14 साल थी उसे बुलाया जिसके माध्यम से परिवार के अन्य सदस्यों को बुलाकर एक एक करके सभी को जान से मार दिया। मृतकों में रुपाली सहित उसकी मां (ममता), बहन (दिव्या), भतीजा (पवन) और भतीजी (पूजा) शामिल थीं। किसी को कुछ पता ना लगे इसलिए 10-15 फुट का गढ्ढा जिसका इंतजाम पहले से ही था उसमें पांचों की लाशों को गाड़ दिया। साथ ही गड्ढे में नमक और यूरिया मिला दिया ताकि सभी लाश जल्द से जल्द गल जाए। तीन दिनों तक परिवार के पांच सदस्यों के लापता रहने के कारण परिवार के अन्य सदस्यों को कुछ गड़बड़ी की आशंका हुई। लिहाजा उन्होंने स्थानीय पुलिस स्टेशन पर मामले से संबंधित शिकायत दर्ज कराई।
और पढ़ें : रेप कल्चर और दलित महिलाओं का संघर्ष
जिस मीडिया के लिए एक पुजारी को थप्पड़ लगना प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बन जाता है उसी मीडिया के लिए नेमावर की घटना महज बुलेटिन का हिस्सा बनकर क्यों रह जाती है।
मध्य प्रदेश पुलिस की कार्रवाई इतनी तेज थी कि उन्हें लाश ढूढ़ने में ही 45 दिनों से ज्यादा का वक्त लग गया। सवर्ण जाति से होने के कारण सुरेंद्र चौहान का परिवार राजनीतिक रूप से मज़बूत है। हत्याकांड के विरोध में मौके पर पहुंचे भीम आर्मी प्रमुख चन्द्रशेखर आज़ाद ने इस घटना पर सरकार से सीबीआई जांच की भी मांग की। यह घटना वर्तमान समय की सबसे जघन्य अपराधिक घटना है। भारतीय समाज के जातिवादी चरित्र की सड़ान्ध से पूरा देश हिल उठा। सोशल मीडिया पर एक बार फिर से जातिवादी हिंसा पर चर्चा तेज हो गई। ट्विटर और फेसबुक पर इस घटना को लेकर लगातार कई दिनों तक हैशटैग चलते रहें। कभी घटना की सीबीआई जांच की मांग की गई तो कभी आदिवासियों की सुरक्षा के लिए नए कानून बनाने की मांग की गई। स्थानीय आदिवासियों ने भी इस घटना के खिलाफ़ प्रदर्शन किया।
मीडिया की कवरेज पर क्यों उठने चाहिए सवाल
नेमावर में आदिवासी समाज के लाखों लोगों ने कई दिनों तक प्रदर्शन किया। कभी कलेक्ट्रेट घेरा तो कभी चक्का जाम किया। मध्य प्रदेश के कई नेता इन प्रदर्शनों में शामिल हुए। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ भी प्रदर्शनकारी और पीड़ित परिवार से मिले। इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी स्थानीय अखबारों और पोर्टल को छोड़कर किसी मेनस्ट्रीम मीडिया के अखबार या चैनल के लिए यह घटना एक गंभीर मुद्दा नहीं बनी। उल्टा मेनस्ट्रीम मीडिया ने पूरे घटनाक्रम को साइडलाइन कर दिया। जहां तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों ने इस घटना को तीसरे या चौथे पेज पर तीन चार कॉलम में निपटा दिया। वहीं, टीवी चैनलों ने इस घटना को महज बुलेटिन तक सीमित कर दिया। इस घटना पर कहीं कोई डिबेट नहीं हुई, किसी चैनल ने इस घटना का फॉलोअप करने की कोशिश नहीं की। हैरानी की बात है कि जो भी मीडिया कवरेज हुई है उनमें पुलिस और सरकार पर सवाल उठाने के बजाय पुलिस के काम को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया। हालांकि कुछ स्थानीय पोर्टल हैं जिन्होंने पुलिस की कार्य प्रणाली पर सवाल उठाए। जब भी दलित या शोषित तबके की महिला के साथ इस प्रकार की घटना होती है तो उसमें हमे मीडिया का रवैया बेहद बदला हुआ नज़र आता है। जिस तरह से हमने हाथरस में देखा था कि किस तरह से पीड़िता के चरित्र पर सवाल खड़ा कर केस के रुख को बदल दिया गया था।
क्या मीडिया को इस विषय पर गंभीर चर्चा नहीं करनी चाहिए थी? आखिर इस तरह से महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराध की वजह क्या है? अगर मीडिया में हाथरस और नेमावर जैसी घटनाओं की चर्चा ठीक से हुई होती, अगर मीडिया पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाने के बजाय उसके साथ खड़ा हुआ होता तो परिस्थितियां नहीं बदलती?
मीना कोटवाल बीबीसी की पूर्व पत्रकार रह चुकीं हैं, अब वह ‘द मूकनायक’ की फाइंडिंग एडिटर हैं। जातिगत भेदभाव के कारण उन्हें बीबीसी छोड़ना पड़ा मीना बताती हैं, “मेनस्ट्रीम मीडिया जिन लोगों के लिए काम करता है वह उनकी ही खबरें दिखाता है। वह मीडिया सिर्फ एक क्लास के लिए है जो इस तरह की घटनाओं के पीछे की असली वजह को छिपाता है और आमतौर पर वह ऐसी खबरों को नज़रअंदाज़ कर देता है।” हमारे सामने जो स्ठिति है मेनस्ट्रीम मीडिया की उसे देखकर ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया को इस प्रकार की घटना से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता न ही उसे इस घटना से जुड़े सवालों में कोई दिलचस्पी है। गौरतलब है कि ज्यादातर मेनस्ट्रीम मीडिया चैनलों ने इतने बड़े अपराध को कुछ मिनटों में ही निपटा दिया।
और पढ़ें : हाथरस : क्या पीड़ितों के परिवार के पास अब अंतिम संस्कार का भी अधिकार नहीं है?
जिस दिन यह खबर सामने आई उस दिन आज तक चैनल के प्राइम टाइम डिबेट शो हल्ला बोल में “मोदी कैबिनेट और मोहन भागवत के बयान पर गरमाई राजनीति” की चर्चा चल रही थी। वहीं, दूसरी ओर दंगल में “क्या नए तेवर वाली होगी मोदी सरकार” और इंडिया टीवी के डिबेट शो कुरुक्षेत्र में “बीजेपी नेता ने खुल्लम-खुल्ला हिंदू मुसलमान क्यों बोला?” एबीपी के मास्टरस्ट्रोक में “मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर क्या है मोदी प्लान” पर और प्राइम शो इंडिया चाहता है में “दलबदल से खिले कमल का इनाम” पर चर्चा की जा रही थी। एनडीटीवी जैसे चैनल ने भी इस खबर को उतनी प्रमुखता से नहीं दिखाया। जिस वक्त यह खबर की जानी थी उस वक्त प्राइम टाइम शो में आदिवासियों के लिए काम करने वाले फादर स्टन स्वामी के निधन पर चर्चा तो हुई लेकिन आदिवासी समुदाय में एक परिवार के पांच सदस्यों की बेरहम तरीके से हत्या की गई उस घटना को कवर करना ज़रूरी नहीं समझा गया।
मीडिया और विक्टिम ब्लेमिंग
ठीक इसी तरह आज तक के रवीश पाल सिंह जिन्होंने नेमावर हत्याकांड पर रिपोर्ट लिखा है जिसकी हेडलाइन कुछ इस तरह थी, “MP:आदिवासी वोट बैंक का अखाड़ा बना नेमावर, गड्ढे से निकले थे 5 शव,” इस रिपोर्ट में इन्होंने घटना के बारे में पूरा ब्यौरा तो नहीं दिया लेकिन यह जरूर बता दिया कि लड़की सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहती थी और नेमावर जैसी छोटी जगह पर भी रुपाली के इंस्टाग्राम फॅालोवर पांच हजार के करीब थे मानो रुपाली का इंस्टाग्राम चलाना ही रुपाली का सबसे बड़ा अपराध था। यही नहीं, उनका मानना है कि इंस्टा पर आरोपी की मंगेतर के बारे में पोस्ट डाला जाना रुपाली और अन्य लोगों की मौत की वजह बनी। बता दें रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आज तक ने यह जानकारी नेमावर पहुंच कर ली बाकि हेडलाइन को देखकर यह समझा जा सकता है कि रिपोर्ट को कहां मोड़ा जा रहा है। इस रिपोर्ट में यह बात साफ तौर पर झलकती है कि रिपोर्ट लिखने वाला ‘विक्टिम ब्लेमिंग’ कर रहा है।
सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार 2017- 2019 के बीच एससी /एसटी समुदायों की महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध में 15.55 फीसद की वृद्धि हुई है जिसमें से बलात्कार के मामलों में 22.14 फीसद की सबसे अधिक वृद्धि देखी गई। वहीं, महिलाओं को अपमानित करने के मामले में 16.25 फीसद की बढ़त हुई। क्या यह मीडिया में चर्चा का विषय नहीं होना चाहिए था? क्या मीडिया को इस विषय पर गंभीर चर्चा नहीं करनी चाहिए थी? आखिर इस तरह से महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराध की वजह क्या है? अगर मीडिया में हाथरस और नेमावर जैसी घटनाओं की चर्चा ठीक से हुई होती, अगर मीडिया पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाने के बजाय उसके साथ खड़ा हुआ होता तो परिस्थितियां नहीं बदलती? लेकिन मीडिया दलित, शोषित महिलाओं की ताकत बनकर नहीं उभरा बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया बलात्कार जैसे मामले पर उल्टा पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाता नज़र आया है मानो मीडिया कहना चाहता हो कि ऐसी अपराधिक घटनाओं में पीड़िता की ही गलती है। क्या यह आसानी से भूला दी जाने वाली घटना है, क्या यह ऐसी घटना नहीं है जिस पर बात की जानी चाहिए। यह घटना मीडिया प्राइम टाइम का मुद्दा क्यों नहीं बन पाई। कल्पना कीजिए की अगर यही घटना किसी सवर्ण समुदाय के परिवार के साथ या किसी भी सवर्ण के साथ हुई होती तो मीडिया जगत में इतना ही सन्नाटा होता? फिर क्या मेनस्ट्रीम मीडिया का बर्ताव ऐसा ही होता ?
और पढ़ें : ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और जातिवाद है दलित महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा की वजह
तस्वीर साभार : नई दुनिया