अच्छी ख़बर अनाथों की मां : पद्मश्री सिंधुताई सपकाल

अनाथों की मां : पद्मश्री सिंधुताई सपकाल

सिंधुताई को ऐसे बच्चे मिले, जो उनसे ज़्यादा ज़रूरत में थे, जो पेट भरने की जद्दोजहद कर रहे थे। बच्चों का दुख उनसे देखा न गया। सिंधुताई ने ज़्यादा भीख मांगना शुरू किया। उन्हें जो भी मिलता, वे बाकी बच्चों के साथ मिल- बांट कर खातीं।

एडिटर्स नोट : यह लेख हमारी नई सीरीज़ ‘बदलाव की कहानियां’ के अंतर्गत लिखा गया सातवां लेख है। इस सीरीज़ के तहत हम अलग-अलग राज्यों और समुदायों से आनेवाली उन 10 महिलाओं की अनकही कहानियां आपके सामने लाएंगे जिन्हें साल 2021 में पद्म पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। सीरीज़ की अगली कड़ी में पेश है पद्मश्री सिंधुताई सपकाल की कहानी।

साल 1973, महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले का एक तबेला। एक महिला इस तबेले में लेटी है, दर्द से कराह रही है। गर्भवती है और शायद आखिरी महीना है। बच्चा होने वाला है, कभी भी हो सकता है, चीखें और तेज़ होती हैं। अब अथाह शांति है, जन्म हो चुका है, लड़की हुई है। इस महिला के साथ कोई नहीं, वह भी इस हालत में, ऐसा कैसे हो सकता है। महिला एक पत्थर से 16 बार जन्मनाल पर मारती है, ताकि वह टूट जाए। कौन है यह महिला, जो इस हालत में है, ऐसे असीम दुख में है। इस महिला का नाम सिंधुताई है। लेकिन आज इस महिला की पहचान क्या सिर्फ एक दुखियारी स्त्री की है? नहीं, यह महिला आज हज़ारों बच्चों की मां है। असल में, ये सिंधुताई नहीं हैं, सिंधु “माई” है। माई उसकी, जिसका कोई नहीं। इस बार की हमारी पद्मश्री विजेताओं में से एक, सिंधुताई सपकाल। 

वर्धा ज़िले के पिंपरी मेघे गांव में एक मवेशी चराने वाला परिवार रहता है। 14 नवंबर 1948 का दिन है, इनके यहां लड़की हुई है। कोई लड़की चाहता नहीं था तो सब उदास हैं, शोक में हैं। इसी उदासी में सबने उसे ‘चिंदी’ बुलाना शुरू कर दिया। चिंदी मतलब कपड़े का बेकार टुकड़ा, जिसका कोई उपयोग न हो, जिसके होने का कोई मतलब ही न हो। चिंदी को उसके पिता अभिमान साठे के अलावा किसी ने बहुत प्यार न दिया। मां नहीं चाहती थीं कि वह पढ़े या कुछ भी अच्छा करे। अनचाही थी तो बोझ समझी जा रही थी। पिता ने किसी को बिना बताए उसका स्कूल में दाखिला करवा दिया। वह मवेशी चराने के बहाने घर से निकलती और पढ़ने पहुंच जाती। चिंदी कक्षा चार तक पढ़ी, उसके बाद पढ़ने को नहीं मिला। 10 साल की उम्र में उसकी शादी कर दी गई। पति दोगुने उम्र के थे। बाल विवाह का दंश चिंदी ने झेला। ससुराल भी वर्धा ज़िले में ही थी। वह ससुराल आ गई। दुखद कि यहां भी कोई प्यार या सम्मान देने वाला नहीं था। उसे पढ़ने का शौक था, तो जो भी कागज़ मिलता, वह उठाकर पढ़ने लगती। पति को चिंदी के पढ़ने से दिक्कत थी क्योंकि वह खुद अनपढ़ था। उसके ‘मर्द’ होने को ठेस पहुंचती थी। लिहाज़ा, जिस कागज़ को भी वह पढ़ती, उसके पति गुस्से में जला देते। 

और पढ़ें : पद्मश्री मंजम्मा जोगती : एक ट्रांस कलाकार जो बनीं कई लोगों की प्रेरणा

20 साल की उम्र तक वह तीन बच्चों की मां बन चुकी थीं। सिंधु माने सागर, सागर- सी विशालता वाली चिंदी लोगों के अधिकारों के लिए भी खड़ी होना जानती थी। साल 1972 में उसके साथ की एक महिला गोबर उठाती थी। उस महिला को उसका हक नहीं मिल रहा था, उसका उत्पीड़न हो रहा था। सिंधुताई ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई। वह वन विभाग और ज़मींदारों के खिलाफ लड़ीं। महिला को तो उसका हक मिल गया लेकिन सिंधुताई उसकी नज़र में आ गईं। जमींदार ने उनके पति के कान भरने शुरू किए। उनके पति से कहा गया, ‘सिंधुताई के पेट में जो बच्चा पल रहा है, उसका पिता मैं हूं। तुम नहीं हो।’ पति बातों में आ गए। पहले तो खूब पीटा, फिर गुस्से में सिंधुताई को घर से निकाल दिया। सिंधु बेघर हो गईं। बच्चा कभी भी पैदा हो सकता था, तो उन्होंने तबेले में पनाह ली और वहीं अपनी बेटी को जन्म दिया। नाम रखा, ममता। अपनी दुधमुंही बच्ची को लेकर वह मायके पहुंची। मायके में भी नहीं अपनाया गया। माँ ने कहा कि पति के पास ही वापिस जाओ। सिंधुताई नहीं जा सकती थीं। उन्होंने सब छोड़ दिया। 

सिंधुताई को ऐसे बच्चे मिले, जो उनसे ज़्यादा ज़रूरत में थे, जो पेट भरने की जद्दोजहद कर रहे थे। बच्चों का दुख उनसे देखा न गया। सिंधुताई ने ज़्यादा भीख मांगना शुरू किया। उन्हें जो भी मिलता, वह बाकी बच्चों के साथ मिल- बांट कर खातीं।

17 दिन की अपनी बेटी को लेकर वह अमरावती ज़िले के चिकलदरा आ गईं। वहां वह सड़कों पर, मंदिरों के बाहर, स्टेशन पर भजन गा- गाकर भीख मांगती। दूरदर्शन को दिये एक इंटरव्यू में वह गाकर कहती हैं, “ये भी कुछ कम नहीं तेरा दर छूटने के बाद, हम अपने पास आये दिल टूटने के बाद।” उनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था। खुले में आदमी गलत व्यवहार कर सकते थे इसलिए वह श्मशान घाट में रहती थीं। रात को घाट आतीं। भूख लगने पर कई बार चिता पर रोटियां सेकतीं। दाह संस्कार की आखिरी रस्म के बाद लोग आटा वगैरह छोड़ जाते थे। सिंधुताई उसी बचे आटे को गूंथती और लाश की आग में रोटियां सेंक कर खुद और बेटी को खिला देतीं। उन्हें ऐसी जगह पर रात में देख कर लोग डर जाते और भूत समझते। सिंधुताई सुबह- सुबह सूरज उगने से पहले ही नहा लेतीं और कफन के बचे कपड़े पहनतीं। 

सिंधुताई सकपाल, तस्वीर साभार: sindhutaisapakal.org

इन्हीं जगहों यानी स्टेशन और रास्तों पर सिंधुताई को ऐसे बच्चे मिले, जो उनसे ज़्यादा ज़रूरत में थे, जो पेट भरने की जद्दोजहद कर रहे थे। बच्चों का दुख उनसे देखा न गया। सिंधुताई ने ज़्यादा भीख मांगना शुरू किया। उन्हें जो भी मिलता, वह बाकी बच्चों के साथ मिल- बांट कर खातीं। उन्होंने कुछ बच्चों को गोद ले लिया और सबका पालन- पोषण करने लगीं। इसी समय सिंधुताई को महसूस हुआ कि अगर उनकी बेटी ममता उनके साथ रहेगी तो वह कहीं न कहीं उससे ज़्यादा लगाव रखेंगीं और बाकी बच्चों के साथ भेदभाव कर देंगीं। इस भेदभाव से बाकी बच्चों को बचाने के लिए उन्होंने अपनी सगी बेटी ममता को पुणे के श्रीमंत दगड़ू सेठ हलवाई ट्रस्ट को दे दिया। खुद को उससे थोड़ा दूर कर लिया। 

और पढ़ें : पद्मश्री पूर्णमासी जानी : बिना पढ़ाई किए जिन्होंने की हज़ारों कविताओं और गीतों की रचना

इसी समय, वह आदिवासियों के संपर्क में आईं। आदिवासियों ने उनके लिए एक घर बनाया, इसमें वह अपने सभी गोद लिए बच्चों के साथ रहने लगीं। तभी, सरकार ने ‘चीता संरक्षण प्रोजेक्ट’ शुरू हुआ। इसके तहत 84 गांव खाली कराए जाने थे। इन सभी गांवों में आदिवासी रहते थे। प्रोजेक्ट ऑफिसर ने इन आदिवासी ग्रामीणों की 132 गायें जब्त कर लीं। सिंधुताई ने तुरंत निर्णय लिया कि वह असहाय लोगों की मदद करेंगी। उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि महाराष्ट्र के तत्कालीन वन मंत्री छेदीलाल गुप्ता ने अधिकारियों को आदेश दिया कि आदिवासियों से सही तरीके से बात की जाए। उन्हें पहले एक अच्छी जगह बसाया जाए, उसके बाद ज़मीन खाली करने को कहा जाए। वीकिपीडिया के अनुसार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब ‘चीता संरक्षण प्रोजेक्ट’ का उद्घाटन करने आईं। तब, सिंधुताई सपकाल ने उन्हें एक ग्रामीण की तस्वीर दिखाई जिसकी एक आंख भालू के हमले में चली गयी थी। उन्होंने इंदिरा गांधी को कहा, “अगर जंगली जानवर ने किसी गाय या मुर्गी को मारा होता तब वन विभाग जरूर मुआवज़ा देता तो, इंसान के नुकसान पर क्यों नहीं?” इंदिरा के मन में उनकी बात घर कर गई और उन्होंने तुरंत उस गांववाले को मुआवज़ा देने का आदेश दिया। 

इधर धीरे- धीरे बच्चे गोद लेने और उन्हें पालने का सिलसिला भी चलता रहा। आज उनका एक बहुत बड़ा परिवार है। दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक उनके 1500 से ज़्यादा बच्चे हैं, 382 दामाद हैं, 49 बहुएं हैं और हज़ार से ज़्यादा नाती- पोते हैं। ये संख्या शायद अब तक तो कुछ और भी बढ़ गई होगी। वह बच्चों को तब तक अपने साथ रखती हैं, जब तक कि वे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते। आज उनके ये बच्चे डॉक्टर, वकील, टीचर, नर्स और लेक्चरर हैं। उनका एक बच्चा तो उन पर ही पीएचडी कर रहा है। सिंधुताई को डी वाई पाटिल इंस्टीट्यूट ने डॉक्टरेट की उपाधि दी है। उनके आज कई एनजीओ भी हैं। उनका पहला एनजीओ चिकलदरा में खुला, जिसका नाम सावित्रीबाई फुले गर्ल्स हॉस्टल था। फिर धीरे- धीरे कई सारे खुलते ही चले गए। जैसे- सन्मति बाल निकेतन, ममता बाल सदन, अभिमान बाल भवन, गोपिका गई रक्षण केंद्र आदि। अभी पिछले हफ्ते इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक किसानों के लिए काम करने वाले ग्रांड मराठा फाउंडेशन ने मदर ग्लोबल फाउंडेशन (सिंधुताई सपकाल वाला) के साथ टाई अप किया है। इसके ज़रिए 50 लाख रुपए 650 अनाथ बच्चों वाले मदर ग्लोबल फाउंडेशन को दिए जाएंगे ताकि अनाथ बच्चों का सशक्तिकरण हो सके। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया में साढ़े 15 करोड़ के करीब अनाथ बच्चे हैं। इनमें से 3 करोड़ सिर्फ भारत में है। यह आंकड़ा बहुत बड़ा है और इसे पाटने की ज़रूरत है। ये बच्चे प्यार, अवसर और देख- भाल को तरसते हैं। 

वैसे सिंधुताई के जीवन पर साल 2010 में फ़िल्म भी बन चुकी है। फ़िल्म का नाम है, मी सिंधुताई सपकाल। इसे अनंत नारायण महादेवन ने बनाया है। फ़िल्म मराठी भाषा में बनी है और 12 नवंबर 2010 को रिलीज़ हुई है। इसे साल 2011 में नेशनल अवार्ड भी मिल चुका है। साथ ही, इसे 54वें लंदन फ़िल्म फेस्टिवल में भी दिखाया गया था। सिंधुताई पर कई किताबें भी लिखी गई हैं। इनमें डी. बी. महाराज की ‘आमची माई’ और प्रतिभा हप्रंस की सिंधूताई सपकाल’ शामिल हैं। वह अमेरिका में जाकर विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन में भाषण भी दे चुकी हैं। 

साथ ही उनके पति श्रीहरि सपकाल, जिन्होंने सिंधुताई को घर से निकाला था, ने 70 साल की उम्र में वापिस आकर उनसे माफी मांगी। तब सिंधुताई ने उनसे कहा था कि मैं किसी की पत्नी नहीं हूं, अब मां बन चुकी हूं। बेटा बनकर आ सकते हो तो आ जाओ। 40 साल की समाज सेवा में सिंधुताई को अब तक 750 से अधिक सम्मान मिल चुके हैं। साल 2018 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मानों में एक ‘नारी शक्ति सम्मान’ मिला था। अब इस साल जनवरी में उन्हें देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ मिला है। सम्मान मिलने पर उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत में कहा, ‘पद्मश्री मिलने पर मैं बहुत खुश हूं। यह निश्चित ही मेरे अनाथाश्रम के बच्चों की भूख मिटाने में मदद करेगा। ये सम्मान मेरे उन सभी बच्चों के नाम है, जिन्होंने अब तक मेरी मदद की है, मेरा सहयोग किया है और मेरी ताकत बन मेरे पीछे खड़े रहे हैं। मेरी सामने बड़ी चुनौतियां आईं पर मैंने कभी हार नहीं मानी। मैं अपना अतीत कभी नहीं भूल सकती और मैं हमेशा अपने इन बच्चों के लिए काम करती रहूंगी।’ वह भावुक होते हुए कहती हैं, ‘जो भूख और आग मेरे पेट में रही है, वही मेरे बच्चों में भी है। मैंने अपनी भूख सबके साथ बांटी और बेसहारा बच्चों का सहारा बन गई। इस सम्मान के मिलने पर मुझे मेरे पापा की बहुत याद आई। वह कहते थे, “सिंधु, रो मत, परिस्थितियों से लड़ो और जीतो।’ 

और पढ़ें : 105 साल की हैं यह युवा किसान पद्मश्री पप्पाम्मल


(सिंधुताई के बारे में अधिक जानकारी के लिए उनकी वेबसाइट पर जाएं।)

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content