अच्छी ख़बर बिहार की ये शिक्षिकाएं प्रश्न पेटी, गानों और नाटक के ज़रिये पीरियड्स के मुद्दे पर फैला रही हैं जागरूकता

बिहार की ये शिक्षिकाएं प्रश्न पेटी, गानों और नाटक के ज़रिये पीरियड्स के मुद्दे पर फैला रही हैं जागरूकता

जहानाबाद के सरकारी स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत अमृता प्रीतम ने बताया कि इस जागरूकता का लक्ष्य माहवारी में सिर्फ पैड का इस्तेमाल करना ही नहीं था। पीरियड्स से होने वाले कचरे से पर्यावरण को कैसे बचाया जाए, यह भी जरूरी था।

पीरियड्स एक ऐसा मुद्दा जिस पर अक्सर लोग बात करने से बचते हैं। आज भी बड़ी संख्या में लोग पीरियड्स के दौरान ज़रूरी सुविधाओं और प्रोडक्ट से दूर हैं। बात अगर बिहार की करें तो नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट-5 के अनुसार,बिहार में सिर्फ 59.2 प्रतिशत महिलाएं पीरियड्स के दौरान हाइजीनकि सैनिटरी प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल कर पाती हैं। जबकि 74.4 महिलाएं पीरियड्स के दौरान आज भी कपड़े का इस्तेमाल करती हैं।

पीरियड्स एक ऐसा विषय जिसे हमेशा हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने शर्म से जोड़ा है लेकिन उसी विषय को गाने में पिरोकर, नाटकों और प्रश्न पेटी के माध्यम से बिहार की अलग-अलग शिक्षिकाएं छात्राओं के बीच पहुंचाने का काम कर रही हैं। समाज कल्याण विभाग के महिला और बाल विकास निगम और यूनिसेफ के द्वारा माहवारी स्वच्छता प्रबंधन के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करनेवाली इन शिक्षिकाओं को सम्मानित भी किया गया। बिहार के अलग-अलग ज़िलों से कुल 34 शिक्षिकाओं ने अपने स्कूल की छात्राओं को जो कपड़ा इस्तेमाल करती थीं, उन्हें सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करना सिखाया। कैसे ये शिक्षिकाएं छात्राओं को सैनिटरी पैड के इस्तेमाल करने के लिए कैसे प्रेरित कर रही हैं आइए जानते हैं।

तस्वीर साभार: अनिमा

25 साल से छपरा के राजेंद्र कॉलेजियट स्कूल में पढ़ा रहीं गायत्री कुमारी को इस साल महिला और बाल विकास निगम द्वारा सम्मानित किया गया। उन्होंने बताया कि उनके स्कूल में कुल 1700- 1800 बच्चियां पढ़ती हैं। पीरियड्स की वजह से उन्हें अक्सर स्कूल छोड़कर जाना पड़ता था। यह देखकर उन्होंने अपने स्कूल में छात्राओं के लिए अपनी पूंजी से पैड खरीदना शुरू किया। शुरुआती दिनों में पैड के इस्तेमाल को लेकर छात्राएं बहुत घबराती थीं। इसलिए उन्होंने अपना विषय पढ़ाने के साथ-साथ छात्राओं को पीरियड्स से जुड़े भ्रम के बारे में भी बताना शुरू किया। उनकी कोशिश से आज उनके स्कूल की 80 प्रतिशत छात्राएं पीरियड्स के दौरान पुराने कपड़े की जगह सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल करती हैं।

जहानाबाद के सरकारी स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत अमृता प्रीतम ने बताया कि इस जागरूकता का लक्ष्य माहवारी में सिर्फ पैड का इस्तेमाल करना ही नहीं था। पीरियड्स से होने वाले कचरे से पर्यावरण को कैसे बचाया जाए, यह भी जरूरी था।

आज भी बड़ी संख्या में लोग पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा इसलिए है कि कपड़ा आसानी से उपलब्ध हो जाता है, जबकि पैड के लिए उन्हें कुछ कीमत देनी होती है। बात अगर बिहार की करें तो आज भी यह राज्य आर्थिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ है। ऐसे में यहां पैसों की कमी, जागरूकता और अशिक्षा एक बड़ा कारण होता है कि लोग सैनिटरी पैड के इस्तेमाल से बचते हैं। मनोचिकित्सक निधि की मानें तो बड़ी संख्या में औरतें कभी भी अपने लिए सैनिटरी प्रोडक्ट्स की खरीदारी नहीं कर पाती हैं। बजट के हिसाब से वे घर चलाती हैं। अगर उन्हें लगता है कि उनके निजी सामान की वजह से बजट बढ़ रहा है तो वे वह सामान छोड़ देती हैं। इसलिए सैनिटरी पैड खरीदने और उसके इस्तेमाल को वे अपनी बुनियादी ज़रूरत के रूप में नहीं देखती हैं।

वहीं, जहानाबाद के सरकारी स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत अमृता प्रीतम ने बताया कि इस जागरूकता का लक्ष्य पीरियड्स के दौरान सिर्फ पैड का इस्तेमाल करना ही नहीं था। पीरियड्स से होने वाले कचरे से पर्यावरण को कैसे बचाया जाए, यह भी ज़रूरी था। इसलिए उन्होंने छात्राओं को बताया कि वह पैड को मिट्टी में गाड़ दे या उसे किसी घड़े में डालकर छोड़ दें, जब वह सूख जाए तो उसे जला दें ताकि इससे पर्यावरण को कोई नुकसान न हो। उन्होंने बताया कि जब शुरू में उन्होंने छात्राओं से बात करनी शुरू की तो वे इस विषय पर बात करने से बचती थीं।

25 साल से छपरा के राजेंद्र कॉलेजियट स्कूल में पढ़ा रहीं गायत्री कुमारी को इस साल महिला और बाल विकास निगम द्वारा सम्मानित किया गया। उन्होंने बताया कि उनके स्कूल में कुल 1700- 1800 बच्चियां पढ़ती हैं। पीरियड्स की वजह से उन्हें अक्सर स्कूल छोड़कर जाना पड़ता था। यह देखकर उन्होंने अपने स्कूल में छात्राओं के लिए अपनी पूंजी से पैड खरीदना शुरू किया।

पीरिड्स पर छात्राओं के बीच जागरूकता के अभाव को देखते हुए उन्होंने एक प्रश्न पेटी बनाई, जिसमें हर रोज छात्राओं के 100 से अधिक सवाल आते थे। वे पीरियड्स से जुड़ी हर जानकारी चाहती थीं। लेकिन इस पर खुलकर बात करने से डरती थीं। अमृता प्रीतम ने छात्राओं की भागीदारी इस मुद्दे पर और बढ़े इसके लिए नाटक की शुरुआत की। अब हर हफ्ते अमृता के स्कूल में नाटक का आयोजन होता है, जिसमें पीरियड्स से जुड़े विभिन्न मुद्दों को दिखाया जाता है। यह प्रश्न पेटी, “पीरियड्स क्यों आते हैं, उनके खून का रंग कैसा होता है, क्यों दूसरी लड़कियों के पीरियड्स दो से तीन दिनों में खत्म हो जाते हैं,” जैसे सवालों से भरी रहती है।

वहीं, पीपीएचएस कान छेदवा स्कूल , पूर्वी चंपारण की शिक्षिका कुमारी दीप माला ने बताया कि उनके स्कूल में कुल 1400 छात्राएं पढ़ती हैं। पीरियड्स की वजह से अक्सर उनकी पढ़ाई में बाधा आती थी। इसलिए उन्होंने स्कूल में एक अलग कमरा बनाया जिसमें छात्राएं पीरियड्स से जुड़ी हर समस्या के बारे में बात कर सकें। उन्होंने छात्राओं को जागरूक करने के लिए कई स्कीम निकाली। साथ ही यह भी तय किया कि जिन छात्राओं का जन्मदिन है वे अपने बर्थडे पर एक पैकेट पैड का दान करेंगी जिससे अन्य छात्राओं को भी सुविधा होगी।

साथ ही उन्होंने बताया कि आज भी गांवों में पीरियड्स को लेकर कई तरह की भ्रांतियां मौजूद हैं। यहां लोग आज भी यह मानते हैं कि अगर पैड को जला दिया जाए तो लड़कियां गर्भवती नहीं होंगी। इसी तरह बिहार के अलग-अलग ज़िलों से आनेवाली शिक्षिकाओं ने पीरियड्स के लिए गाने बनाए, जिन्हें वह बच्चियों के साथ गाती हैं। किसी ने उनके लिए प्रश्न पेटी का इंतजाम किया जिसमें वे विभिन्न सवाल पूछती हैं।


Comments:

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content