महिलाओं की भागीदारी की आवाज़ समय-समय पर सुनाई देती रहती है। कई बार नारीवाद के मुद्दे विशेषाधिकार प्राप्त तबके की औरतों तक ही सीमित रह जाते हैं। इन सबके बीच धुंधले हो जाते हैं औरतों के असल मुद्दे। नौकरी करने का अधिकार, समान वेतन का अधिकार, समानता का अधिकार, घर के काम के बोझ से छुटकारे का अधिकार, तथाकथित घर की इज्जत का ठेका ना लेने का अधिकार, खुलकर जीने का अधिकार, प्यार करने का अधिकार, अपनी पसंद से शादी करने का अधिकार आदि। महिलाओं के ऐसे तमाम अधिकार हैं जिन पर अमूमन बात नहीं होती है। इसका एक बड़ा कारण ये भी है कि हमारे समाज में महिलाओं की आवाज़ पुरुष उठा रहे हैं। चूंकि महिलाओं को उनके खुद के मुद्दों पर बात करने का मौका आज भी नहीं दिया जाता। इसके तमाम उदाहरण है जैसे, व्यवसाय के हर क्षेत्र पर पुरुषों का कब्जा है। जब वहां बात आती है महिलाओं की तो वहां आपको महिलाएं बहुत ही कम मिलेंगी। यही हाल राजनीति, न्यायालय आदि का भी है। जो महिलाएं इन क्षेत्रों में पहुंची भी हैं वे भी केवल एक ही तरह की जाति की। ऐसा क्यों होता है इसकी तह तक जाना ज़रूरी है।
न्यूज़ मिनट की एक रिपोर्ट के मुताबिक मीडिया में ही महिलाओं की भागीदारी बहुत कम हैं, खासकर उच्च पदों पर। जब हम बात करते हैं महिलाओं की तो सनद रहे हैं कि यहां भी वही महिलाएं मौजूद हैं जो एक खास जाति से आती हैं यानि सवर्ण जाति की महिलाएं। महिलाएं अपने आप में एक दोयम दर्जे का जीवन व्यतीत करती हैं। लेकिन अगर बात दलित-आदिवासी महिलाओं की हो तो उनका जीवन कई गुना मुश्किल बन जाता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दलित महिलाओं की मृत्यु सवर्ण महिलाओं के मुकाबले 14 साल पहले हो जाती है। इसके पीछे का कारण है दलित महिलाओं को उचित साफ-सफाई न मिलना, पानी की कमी और समुचित स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा का अभाव है। हालांकि इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ दलित स्टडीज द्वारा करवाए गए एक और शोध में पाया गया कि अगर सामाजिक स्थिति एक सी भी हो जाएंगी तो दलित और सवर्ण महिलाओं के जीवन में अंतर है तो भी दलित महिलाओं की मृत्यु लगभग 11 साल पहले होने की संभावना है।
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ये यहां अवगत करवाना इसलिए जरूरी था क्योंकि मीडिया से आज भी ये स्थिति छिपी हुई है या वे जानबूझकर इस पर नजर डालना नहीं चाहते। चूंकि इस पर कई रिसर्च पहले भी हो चुके हैं कि मीडिया में वर्चस्व किसका बना हुआ है। दलितों में भी अछूत मानी जाने वाली डोम जाति, बिहार की सबसे निचली जाति है। गौरतलब है कि इस जाति के लोगों को गांव से बाहर रखा जाता है। बीते साल बिहार विधानसभा चुनाव की कवरेज के दौरान मैंने देखा कि ये टोला (समूह) सड़क किनारे रहते हैं। बांस से समान बनाते हैं जैसे टोकरी, पंखा, दउरा, कोठी आदि बनाते हैं, जिन्हें बिहार के चर्चित पर्व छठ में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इनके बनाए हुए समान को पहले गंगाजल या अच्छी तरह धोकर शुद्ध किया जाता है, फिर उनका इस्तेमाल किया जाता है। छठ पर इनके घाट भी अलग से एक कोने पर होते हैं जहां कोई आना जाना पसंद नहीं करता और ये भी दूसरे के घाट में जा नहीं सकते। इनके बच्चों को आज भी स्कूलों में अलग से बैठाया जाता है, खाना सबसे आखिर में बचा-कुचा मिलता है, पानी का बर्तन या हैंडपंप खुद से चलाकर पी नहीं सकते, घर से खाने-पीने के बर्तन लेकर जाना होता है। यहां तक की सुबह अगर कोई इनकी शक्ल भी देख ले तो इन्हें जातिगत कई गालियां दी जाती हैं।
महिलाओं की स्थिति यहां इतनी बुरी थी कि उन्हें अपनी उम्र तक नहीं पता होती थी, जब भी इन महिलाओं से उम्र पूछी जाती वे हंस देती और पति की तरफ देखने लगती।
दलित-आदिवासियों की तथाकथित आवाज़ कहने वाले कई मीडिया संस्थान में भी इनके मुद्दों को नहीं उठाया जाता। इस वाक्ये पर हैरान होने से ज्यादा चिंता होनी चाहिए कि क्यों इस समाज को मीडिया ने अछूत बनाकर रखा, जिनका दर्द उन्हें दिखाई नहीं दिया। इनके मुद्दों से ना मीडिया को मतलब रहा ना, ना समाज को और ना ही सरकार को। कवरेज के दौरान डोम जाति की एक महिला से बातचीत में उन्होंने बताया था, “हम सड़क किनारे ही रहते हैं। इसी सड़क से कई रैलियां निकलती हैं। इसी सड़क पर कई वादे करते हुए नेता आते-जाते हैं, जोर-जोर से नारे लगते हैं लेकिन सड़क किनारे रह रहे हम उन्हें दिखाई नहीं देते। ना वे यहां वोट मांगने आते हैं और ना हम से हमारी समस्या पूछने। किसी को हमसे कोई मतलब ही नहीं होता। यहां तक कि हमारा पहचान पत्र (वोटर आईकार्ड) भी नहीं बना है। कोरोना में सबको राशन बंटा लेकिन हम तक तो राशन भी नहीं पहुंचा।”
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महिलाओं की स्थिति यहां इतनी बुरी थी कि उन्हें अपनी उम्र तक नहीं पता होती थी, जब भी इन महिलाओं से उम्र पूछी जाती वे हंस देती और पति की तरफ देखने लगती। पति भी अंदाज़े पर उनकी उम्र बता देते। यहां महिलाओं को किसी भी तरह का अधिकार नहीं है, घर में खाना क्या बनना है से लेकर बच्चे कितने करने हैं तक का फैसला अमूमन पति या घर के मर्द करते हैं। लगभग 15 साल की लड़की बांस छिलने का काम रही होती है। पूछने पर बताती है उसकी कोई सहली नहीं है, वह स्कूल नहीं गई, वह गांव के अंदर नहीं जा सकती। उनकी दुनिया अपने ही टोले में शुरू होती है और वहीं खत्म। बाहर और स्कूल क्यों नहीं जाती है, दोस्त क्यों नहीं हैं ये सब पूछने पर अपना काम छोड़ थोड़ा ऊपर अपना चेहरा कर हैरानी के साथ देखा और बताया कि बाहर सब छेड़ते हैं और ‘डोमनी-डोमनी’ कहते हैं। इसके बाद कुछ देर के लिए सन्नाटा था और मन में कई सवाल कि क्यों इनका दर्द आज भी शहरों में बसे मीडिया संस्थान से अछूत रहा, क्यों इनका दर्द और इनके मुद्दें उन तथाकथित नारीवादी समाज के पास नहीं पहुंचे, आखिर क्या वजह रही होगी।
ऑक्सफेम से लेकर कई तमाम रिपोर्ट गवाह हैं कि मीडिया में दलितों और आदिवासियों की क्या स्थिति है। टीवी, रेडियो, प्रिंट, वेब कहीं भी इस जाति का एडिटर या उच्च पद पर नहीं हैं। जो कुछ लोग मीडिया में इस जाति के नजर आएंगे वे एकदम निचले स्तर पर होते हैं जिनके हाथ में कोई फैसला लेने का अधिकार नहीं होता। एक ये भी कारण है जो मीडिया समाज का आइना बनना चाहता है वहां उस समाज के लोग ही नहीं हैं, तो उनका दर्द कोई कैसे समझेगा। एक कहावत है, “जाके पाव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई” यानि जिसने इस तरह की पीड़ा का सामना किया ही नहीं वह क्या समझेगा किसी का दर्द, वो क्या समझेगा जाति के कारण किस तरह का नुकसान झेलना पड़ता है। किस तरह का अपमान, लिंचिंग, मौत केवल इसलिए हो जाती है क्योंकि वह तथाकथित एक छोटी जाति से आता है, जिसमें उसका दूर–दूर तक दोष नहीं होता।
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तस्वीर साभार : मीना कोटवाल