साल 2013 के सितंबर के महीने में अचानक भारतीय खबरों की सुर्खियों में पश्चिम बंगाल की एक महिला के नाम का ज़िक्र हो रहा था। इस साधारण महिला का नाम देश के राजनीतिक और सामाजिक चर्चों में शामिल होने लगा। अपने खिलाफ फतवा जारी होने और साल 1995 में अपनी मौत के लिए जारी हुए फरमान से बचने के बावजूद, कथित रूप से तालिबान की गोलियों की शिकार हुई कोलकाता की इस महिला का नाम था सुष्मिता बनर्जी। साधारण जीवन जी रही सुष्मिता बनर्जी का अफ़गानिस्तान जाने का कारण निजी था, लेकिन दुनिया ने उन्हें उनके जीवन के दूसरे पड़ाव में एक लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में जाना। 49 वर्षीय बनर्जी, अपने संस्मरण, ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी‘ (काबुलीवालार बांगाली बोऊ) के लिए भारत में प्रसिद्ध हुई। अपनी इस किताब में उन्होंने एक अफगान से शादी करने के अपने अनुभव और तालिबान शासन के दौरान अफ़गानिस्तान में अपने जीवन के बारे में लिखा।
कलकत्ता के एक आम मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में जन्मी सुष्मिता बनर्जी पश्चिम बंगाल में ही पली-बढ़ी। उनके पिता नागरिक सुरक्षा विभाग में काम करते थे और उनकी मां एक गृहिणी थीं। तीन भाईयों में सुष्मिता इकलौती बहन थीं। वह पहली बार अपने पति अफगान के एक व्यवसायी जानबाज़ खान से कलकत्ता में एक थिएटर रिहर्सल में मिलीं और 2 जुलाई 1988 को उनसे शादी कर ली। यह शादी कोलकाता में शांत और गुप्त रूप से हुई क्योंकि उन्हें डर था कि उनके माता-पिता इस शादी को लेकर आपत्ति करेंगे। शादी के बाद बनर्जी के माता-पिता उनके तलाक की बात पर ज़ोर देने लगे। अपने माता-पिता से असहमत होकर वह अपने पति के साथ अफ़गानिस्तान चली गई।
49 वर्षीय बनर्जी, अपने संस्मरण, ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी‘ (काबुलीवालार बांगाली बोऊ) के लिए भारत में प्रसिद्ध हुई। अपनी इस किताब में उन्होंने एक अफगान से शादी करने के अपने अनुभव और तालिबान शासन के दौरान अफ़गानिस्तान में अपने जीवन के बारे में लिखा।
पश्चिम बंगाल में रह रही सुष्मिता शायद तब अफगानिस्तान के तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिवेश का अंदाज़ा नहीं लगा पाई। वह अपने पति के साथ एक ऐसे देश में चली गई जो एक लंबे समय से युद्ध झेल रहा था। उस दौरान अफ़गानिस्तान एक ऐसे दौर से गुजर रहा था, जब वहां के आम नागरिक अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। शादी के बाद बनर्जी को अपने पति की पहली पत्नी ‘गुलगुटी’ के बारे में भी पता चला जो उस वक़्त उसी घर में रह रही थी। बनर्जी अपनी किताब में इनका ज़िक्र करती हैं और लिखती हैं कि इस बात का पता उन्हें शादी से पहले नहीं चला था। इस बीच वह पाटिया गांव में अपने पति के पुश्तैनी घर में पति की पहली पत्नी, पति के तीन भाई, उनकी पत्नियां और उनके बच्चों के साथ रहने लगीं।
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अफ़गानिस्तान में उनका जीवन और औरतों की स्थिति
आउटलुक पत्रिका में छपे अपने लेख में बनर्जी लिखती हैं कि साल 1989 में साराना गांव बिलकुल प्राकृतिक और सुंदर था। लेकिन किसी भारतीय महिला के लिए वहां के बनाए गए नियमों को मानना बहुत कठिन था। लगभग तीन महीनों तक घर में नज़रबंद रह चुकी बनर्जी अपने लेख में लिखती हैं कि उस वक़्त अफ़गानिस्तान में महिला होने का अर्थ था घर से निकलने और अपने पति के अलावा किसी दूसरे पुरुष से बात करने पर पाबंदी। शादी के बाद उनके पति खान को अपने व्यवसाय के लिए कोलकाता लौटना पड़ा। उस वक़्त बनर्जी अपने ससुराल वालों के साथ रह रही थीं। वह लिखती हैं कि हालांकि उनके ससुराल वाले कुछ खास सहयोगी नहीं थे, लेकिन अफ़गानिस्तान में तालिबन के राज से पहले साल 1993 तक जीवन ‘सहनीय’ था।
पूरा-पूरा दिन घर पर गुज़ार रही बनर्जी के पास डॉक्टरी की कोई डिग्री न होने के बावजूद आम रोगों की मूलभूत समझ थी। आस-पास कोई मेडिकल सुविधा न होने के कारण वह अपने घर पर दवाखाना खोल लोगों को, ख़ासकर महिलाओं को आम रोगों की दवा मुहैया कराने लगीं। अपने लेख में वह बताती हैं कि उस वक़्त अफ़गानिस्तान की महिलाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य था। महिलाओं को रेडियो या गाने सुनने की इजाज़त नहीं थी। घर से बाहर निकलने के लिए महिलाओं के पतियों को उनके साथ होना होता था और सभी महिलाओं को बाएं हाथ पर अपने पति का नाम लिखवाना होता था। बनर्जी को महिलाओं के लिए बनाए गए इन नियमों से सख्त आपत्ति थी। अफ़गानिस्तान की औरतों को अपने तरीके से जीने की आज़ादी नहीं थी।
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पूरा-पूरा दिन घर पर गुज़ार रही बनर्जी के पास डॉक्टरी की कोई डिग्री न होने के बावजूद आम रोगों की मूलभूत समझ थी। आस-पास कोई मेडिकल सुविधा न होने के कारण वह अपने घर पर दवाखाना खोल लोगों को, ख़ासकर महिलाओं को आम रोगों की दवा मुहैया कराने लगीं।
गृहणी से लेखिका बनने तक का सफर
महिलाओं के लिए तत्कालीन लागू नियमों के अनुसार उनका कोई व्यवसाय चलाना मना था। साल 1993 के शुरुआती दौर में तालिबान ने बनर्जी के खोले गए दवाखाने को बंद करने का आदेश दिया। साथ ही महिला होकर व्यवसाय चलाने के कारण उन्हें चरित्रहीन भी घोषित कर दिया गया। इसके बाद अफ़गानिस्तान में सुष्मिता बनर्जी के संघर्ष की कहानी की शुरुआत हुई। अफ़गानिस्तान में औरतों की बदहाल स्थिति को दुनिया के सामने लाने के लिए बनर्जी दवाखाने के काम के साथ-साथ वहां की महिलाओं की स्थिति को फिल्माने का काम शुरू कर दिया था। साल 1994 में अफ़गानिस्तान से भागने का निश्चय कर चुकी बनर्जी कई बार भागने का प्रयास करती रहीं। लेकिन घरवालों के सहयोग के अभाव और तालिबान की नज़र में दोषी रह चुकी महिला का भाग निकलना आसान नहीं था।
पहली बार भागने का प्रयास कर रही बनर्जी किसी पड़ोसी की मदद से इस्लामाबाद पहुंचने में कामयाब रहीं लेकिन वीज़ा या पासपोर्ट न होने की वजह से भारतीय उच्च आयोग से उन्हें भारत लौटने के लिए कोई मदद नहीं मिली। इस बीच उनके पति के भाइयों ने उन्हें ढूंढ निकाला और दुर्भाग्यवश उन्हें वापस अफ़गानिस्तान जाना पड़ा। उनके बनर्जी को भारत वापस भेजने के वादे के बावजूद उन्हें अब घर पर नज़रबंद रखा जाने लगा। साथ ही, तालिबान ने उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया और 22 जुलाई 1995 को उनकी मौत की तारीख तय कर दी। बनर्जी ने इस घटना से हार नहीं मानी और इसके बाद भी लगातार भागने के प्रयास करती रहीं। कई बार निष्फल प्रयास के बाद साल 1995 में गांव के मुखिया की मदद से वह काबुल पहुंचने में कामयाब रहीं। हालांकि इस बार भी भागने के दौरान वे तालिबान से उनका सामना हुआ और उनसे लंबी पूछताछ भी की गई पर अगले दिन भारतीय दूतावास से उनका संपर्क हुआ और उन्हें वापस कोलकाता भेज दिया गया।
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अफ़गानिस्तान वापसी और उनकी मौत
बनर्जी अफ़गानिस्तान लौटकर वहां की स्थानीय महिलाओं के जीवन पर और काम करना चाहती थीं। परिवार के आपत्ति के बावजूद फैसला कर चुकीं बनर्जी वापस लौटी और दक्षिण पूर्वी अफ़गानिस्तान के पक्तिका क्षेत्र में एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगीं। साथ ही उन्होंने स्थानीय महिलाओं को भी फिल्माने का काम जारी रखा। 4 सितंबर, 2013 की रात कथित रूप से तालिबान ने उनके घर जबरन घुसकर उनके पति को बंधक बना लिया और उन्हें लेकर फरार हो गए। अगले दिन उनकी लाश प्रांतीय राजधानी शाराना के बाहरी इलाके में मिली। सुष्मिता बनर्जी को 20 गोलियां मारी गई थीं। निडर और साहसी सुष्मिता बनर्जी की अफ़गानिस्तान में औरतों को आज़ाद देखने की चाहत उनकी मौत का कारण बन गई। भले कई लोगों के मन में यह सवाल हो कि आखिर वह वापस क्यों गई, लेकिन दुनिया उन्हें कभी न हार मानने वाली, अफ़गानिस्तान में अपनी आवाज़ उठानेवाली महिला के रूप में याद रखेगा।
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तस्वीर साभार : DNA