हिड़मे मरकाम छत्तीसगढ़ के आदिवासियों और सरकार में शामिल आला अधिकारियों के बीच बीते कुछ सालों से एक जाना-पहचाना नाम हैं। 28 वर्षीय हिड़मे छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित गांव बुर्गुम (दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा) से आती हैं। वह गांव के स्कूल में सहायिका के पद पर कार्यरत थीं और आसपास के इलाकों में आदिवासी जमीन पर सीआरपीएफ कैंप बनाने का विरोध ग्रामीण इनकी अगुआई में कर रहे थे। बात 2019 की जब सरकार ने एनएमडीसी के अंतर्गत आने वाले बैलाडीला के पर्वत श्रृंखला में नंद राज पहाड़ी को फर्जी ग्रामसभा के ज़रिए अडानी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को खनन के लिए लीज पर दिया था। नंद राज पहाड़ी आदिवासियों का एक पवित्र देवस्थल है और यह पहाड़ उस इलाके में पर्यावरण के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखता है। इसे खनन के लिए दिए जाने के विरोध में आसपास के हजारों ग्रामीण एकत्रित होकर सरकार के इस फैसले का विरोध प्रदर्शन करते लामबंद हुए थे। इस प्रदर्शन में शामिल हज़ारों लोगों के बीच एक नाम हिड़मे का भी है तबसे आज तक वह लगातर सुर्खियों में बनी रहीं। साथ ही हिड़मे मरकाम ‘जेल बंदी रिहाई कमेटी’ की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं जिसकी शुरुआत भूपेश बघेल ने आदिवासी वोट बैंक को साधने के लिए जेलों में बंद हजारों बेगुनाह आदिवासियों की रिहाई की बात कहीं थीं जिन्हें फर्जी मुकदमें में गिरफ्तार किया गया हैं। लेकिन यह सिर्फ़ सरकार के मेनिफेस्टो में शामिल रहा, जमीनी स्तर पर अब तक यह नगण्य है।
हिड़मे की गिरफ्तारी
हिड़मे मरकाम जिस तरह से आदिवासियों की समस्याओं को सरकार और मिडिया के समक्ष रखती हैं उसी तरह वह छत्तीसगढ़ के महिला अधिकार मंच से भी जुड़ी हुई हैं जहां पर वह आदिवासी महिलाओं की समस्या। इन महिलाओं पर होते पुलिसिया हिंसा की बात कई बड़े मंचों पर करती हैं। इसी सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दूसरे दिन 9 मार्च 2021 को दंतेवाड़ा के समेली गांव में एक सभा आयोजित की गई थी। यह सभा कथित तौर जबरन लोन वार्रटू के जरिए घर वापसी करने वाली दो युवा लड़कियां कवासी पांडे और कवासी नंदे की याद में रखी गई थी जो पुलिस कस्टडी में यौन हिंसा और शारीरिक हिंसा की शिकार हुई थी जिसके चलते उनकी कथित रूप से आत्महत्या से मौत हो गई थी। इसी सभा से पुलिस ने बिना वारंट निकाले हिड़मे को करीब 300 गांव वालों के सामने घसीटते हुए अपने साथ ले गए। वहां मौजूद कार्यकर्ताओं ने हिड़मे को छुड़ाने की बहुत कोशिश की इस गिरफ्तारी का विरोध किया बावजूद इसके उसे न्यायालय में पेश कर 19 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तब से वह जगदलपुर जेल में बंद हैं। बस्तर एसपी अभिषेक पल्लव का कहना था कि हिड़में एक हार्डकोर नक्सली हैं जिसके नाम से पुलिस विभाग में विभिन्न अपराध दर्ज हैं। द पुलिस प्रॉजेक्ट को दिए गए बयान में हिड़मे की बहन बताती हैं कि हिड़मे सिर्फ महिलाओं के अधिकार के लिए आवाज़ उठाना जानती है। इसी वजह से वह शादी भी नहीं करना चाहती। वह सिर्फ एक सामाजिक कार्यकर्ता है इसके अलावा और कुछ नहीं।
इस तरह शिक्षा, आदिवासियों के हक़ अधिकार, पर्यावरण आदि की बात करने वाले कार्यकर्ताओं को जन जन सुरक्षा अधिनियम लगाकर सालों से जेलों बंदी बनाकर रखा गया है।
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हालांकि स्थानीय लोगों का कहना है कि पुलिस रिकॉर्ड में जिसके खिलाफ अपराध दर्ज है वह कवासी हिड़के हैं जो कि एक पुरुष है और इन पर लाखों के ईनाम सरकार ने घोषित किया हैं। बस्तर अंचल में सामान्यतः महिलाओं और पुरुषों के नाम लगभग सामान होते हैं उन्हें उनके उपनाम और गांव से पहचाना जाता है। हिड़मे सरकार की आंखों के किरकिरी बन गई हैं वह आदिवासियों के हर बड़े आंदोलनों का नेतृत्व करती हैं शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन में शामिल होती हैं सरकार के आला अधिकारियों से मिलती हैं और उनसे सवाल करती रहती हैं। यही कारण है कि सरकार ने फर्जी तरीके से झूठे आरोपों के आधार पर इन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया था।
अब सवाल यह है कि अगर हिड़मे मरकाम पर साल 2016 से ही कई अपराध दर्ज हैं फिर वह रिहाई कमेटी की अध्यक्ष किस आधार पर नियुक्त की गई थी और सरकार के आला अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों से बेरोकटोक कैसे मिलती रहे आखिर उन्हें बीते पाँच सालों में गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? हिड़मे मरकाम की गिरफ्तारी के 40 दिनों बाद ही देश-विदेश के कई मानवाधिकार, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों ने भूपेश सरकार को पत्र लिखकर उनकी रिहाई की अपील की। साथ में उन पर लगे यूएपीए सहित सभी आरोपों को खारिज करने की भी अपील की थी। हाल ही में हिड़मे मरकाम की गिरफ्तारी पर यूएन राइट्स रैपोर्टर्स ने केंद्र को पत्र लिखकर सरकार की आलोचना की और उनकी जल्द से जल्द रिहाई की मांग रखी। हिड़मे मरकाम को जेल में रहते अब तक 100 से भी अधिक दिन बीत चुके हैं। क्या एक लोकतांत्रिक देश में अपने हकों की बात करना सरकार के खिलाफ बोलना सरकार की आलोचना करना अपराध है? आखिर क्यों सरकार संवैधानिक अधिकारों को ताक पर रखकर अपनी मनमानी करती हैं। इस तरह शिक्षा, आदिवासियों के हक़ अधिकार, पर्यावरण आदि की बात करने वाले कार्यकर्ताओं को जन जन सुरक्षा अधिनियम लगाकर सालों से जेलों बंदी बनाकर रखा गया है।
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