इतिहास सोफिया दलीप सिंह : जिसने महिलाओं के मताधिकार के लिए आवाज़ उठाई| #IndianWomenInHistory

सोफिया दलीप सिंह : जिसने महिलाओं के मताधिकार के लिए आवाज़ उठाई| #IndianWomenInHistory

अठारहवीं शताब्दी में भारत में जन्मी, सोफिया दलीप सिंह एक सिख राजकुमारी थीं। सिख साम्राज्य के महाराजा रंजीत सिंह उनके दादा थे और उनके पिता का नाम दिलीप सिंह थे।

अठारहवीं शताब्दी में भारत में जन्मी, सोफिया दलीप सिंह एक सिख राजकुमारी थीं। सिख साम्राज्य के महाराजा रंजीत सिंह उनके दादा थे और उनके पिता का नाम दिलीप सिंह थे। साल 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद शक्तिशाली सिख साम्राज्य को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। रानी विक्टोरिया ने युवा दलीप को अपने अधीन कर लिया और उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया। ईसाई धर्म में परिवर्तित होने और इंग्लैंड में अपना घर बनाने के बावजूद, वह अपने राज्य को वापस लेना चाहते थे जिसके लिए वह फिर से सिख धर्म में परिवर्तित हो गए, लेकिन अंग्रेजों ने फिर से उनको उनके साम्राज्य को वापस लेने के प्रयासों को विफल कर दिया।

साल 1876 ​​में जन्मी सोफिया दलीप सिंह दलीप सिंह और उनकी पहली पत्नी बंबा मुलर की सबसे छोटी बेटी थीं। महारानी विक्टोरिया सोफिया की गॉडमदर थीं। दस साल की उम्र तक, सोफिया अपनी पहचान और उसके साथ आने वाली तकलीफों से अच्छी तरह से वाकिफ थी। अपने साम्राज्य को दोबारा हासिल करने की कोशिश में दलीप सिंह भारत के लिए रवाना हुए लेकिन उन्हें और उनके परिवार को ब्रिटिश सरकार के आदेश पर 30 मार्च 1886 को एडेन में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद वह कभी भी भारत नहीं आ पाए। साथ ही वह इसके बाद जुआ, शराब और कर्ज़ के डूब गए। रानी विक्टोरिया, जो सोफिया को काफी पसंद करती थीं और उन्होंने उन्हें हैम्पटन कोर्ट में एक घर दिया। 

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अपने पिता की मृत्यु के बाद, सोफिया ने साल 1903 में दिल्ली दरबार में भाग लिया, जहां उनके साम्राज्य को उसके पिता के सबसे अच्छे दोस्त एडवर्ड VII को सौंपा जा रहा था। सोफिया को एहसास हुआ कि वह और उनका परिवार उन्हीं लोगों से हार गया है जिन्हें वे अपना दोस्त मानते थे। इसके बाद वह साल 1907 में भारत भी गईं। यह उनके लिए परिवर्तन का क्षण था। वह स्वदेशी आंदोलन के नेता लाला लाजपत राय और अन्य क्रांतिकारियों से प्रभावित हुईं। अंग्रेजों से भारतीय स्वतंत्रता की सोच ने उन पर काफी प्रभाव डाला। भारत में उन्होंने गरीबी और असमानता को उस पैमाने पर देखा जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। इसके अलावा, उसकी बहन बंबा जर्मनी में सर्जन की पढ़ाई नहीं कर पाई क्योंकि उस समय कानून के आधार पर महिलाओं को इसकी पढ़ाई करने की आज़ादी नहीं थी।

राजकुमारी बांबा, सोफिया और कैथरीन, तस्वीर साभार: Pinterest

साल 1909 में उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करना शुरू किया। एम्मेलिन (Emmeline Pankhurst) जो कि महिला मताधिकार की दिशा में काम कर रही थीं, उन्होंने सोफिया को महिला कर प्रतिरोध लीग (Women’s Tax Resistance League) के एक प्रमुख सदस्य के रूप में चुना। राजकुमारी सोफिया एक आसान जीवन जी सकती थीं, लेकिन उन्होंने इंग्लैंड और भारत दोनों में असमानता से लड़ने की कोशिश की। राजकुमारी सोफिया ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपने जुनून के साथ-साथ महिलाओं के मतदान के अधिकार के लिए बहुमूल्य योगदान दिया। महिलाओं के मताधिकार को बढ़ावा देते हुए, उन्होंने साल 1918 में सफलतापूर्वक भारतीय सैनिकों के लिए एक ध्वज-दिवस की शुरुआत की।

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तस्वीर साभार:  The Telegraph

उन्होंने ईस्ट एंड के एशियाई नाविकों, महिलाओं के विकास, भारत की स्वतंत्रता और 1914 (प्रथम विश्व युद्ध) में पश्चिमी मोर्चे पर घायल हुए भारतीय सैनिकों के लिए भी काम किया। सिख सैनिकों को यह विश्वास नहीं हो रहा था कि महाराजा रणजीत सिंह की पोती नर्स की वर्दी में उनके बिस्तर के पास बैठी हैं। उन्होंने पश्चिमी मोर्चे पर तैनात भारतीय सैनिकों के लिए धन भी जुटाया। हैम्पटन कोर्ट की महारानी विक्टोरिया की गॉड-डॉटर (Goddaughter) एक आंदोलनकारी में बदल गई थी। साल 1910 में मताधिकारवादी अखबार द वोट के संपादकीय ने यह तर्क दिया कि “नारीवादी आंदोलन युवा भारत की आकांक्षाओं के साथ जुड़े हुए हैं” और सोफिया ने इस भावना का प्रतिनिधित्व किया। महारानी विक्टोरिया ने अपनी गॉड-डॉटर को ‘लिटिल सोफी’ नाम दिया था। राजकुमारी सोफिया ने अध्यक्ष के रूप में मताधिकार फैलोशिप की समिति का नेतृत्व भी किया, जब 21 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं को पुरुषों के बराबर संपत्ति और वोट देने का अधिकार दिया था। 22 अगस्त साल 1948 में सोफिया की मौत नींद में ही हो गई। अपनी मौत से पहले उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की थी कि उनका अंतिम संस्कार सिख रीति-रिवाजों से किया जाए और उनकी अस्थियां भारत में प्रवाहित की जाएं।

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