एक बच्चे के जीवन में माता-पिता का बहुत अहम स्थान होता है। बच्चे का व्यवहार, विचार अधिकतर माता-पिता द्वारा दी गई परवरिश पर निर्भर करता है। बच्चा वही सीखता है जो देखता है। बड़े होने पर वह कितना भी खुद के विचार बदल ले पर बचपन में सीखी हुई, समझी हुई बातों का असर एक व्यक्ति के जीवन में हमेशा रहता है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक जीवन के पहले 1,000 दिनों के दौरान, एक बच्चे का मस्तिष्क बहुत तेजी से विकसित होता है और हर सेकंड दस लाख से ज्यादा नए न्यूरल कनेक्शन बनते हैं। इस समय में एक बच्चा बढ़ने के साथ-साथ समाज में हो रही चीजों को समझता है और समाज में अपना पूरा योगदान देने की क्षमता को विकसित करता है। हालांकि जीन्स मस्तिष्क के विकास के लिए ब्लूप्रिंट तैयार करते हैं, लेकिन बच्चे का वातावरण ही उसके मस्तिष्क के विकास को आकार देता है। माता-पिता को अपने बच्चों के जीवन के पहले पांच सालों में सही वातावरण को आकार देने में एक बड़ी भूमिका निभानी होती है, जब उनकी सीखने, बदलावों को अपनाने की क्षमता तय होती है।
हमारा समाज बच्चों की परवरिश में समानता, समावेशी होने का नारा कितना भी बुलंद कर ले लेकिन यह तब तक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता जब तक कि हम इन विचारधाराओं का इस्तेमाल धरातल पर ना करें, अपने जीवन में इन विचारों को न अपनाएं। इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि हम नई पीढ़ि यानि कि बच्चों को जन्म से ही समानता और समावेशी विचारों से रूबरू करवाना हम बच्चों में उनके लिंग के आधार पर कामों का बंटवारा ना करके बल्कि उनकी इच्छा के अनुसार कामों का बंटवारा करें। अक्सर माता-पिता अपने बच्चों को समानता का पाठ तो पढ़ाते हैं पर उस समानता को उनके जीवन में उतारने में कहीं न कहीं चूक जाते हैं क्योंकि उसी समानता को हम व्यवहारिक जीवन में इस्तेमाल में नहीं लाते।
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व्यवहारिक जीवन में लगभग हमारे घरों में वही पितृसत्तात्मक सोच हावी है। वहीं दूसरी कई माता- पिता अपने बच्चों के बीच समानता तो लाना चाहते हैं लेकिन वही समानता एक-दूसरे के बीच स्थापित नहीं कर पाते। मां कामकाजी हो या ना हो लेकिन ज्यादातर घरों में रसोई की पूरी ज़िम्मेदारी उसी की होती है। एक बच्चा या बच्ची जन्म से अपनी मां या दादी को घरेलू कामों में उलझा हुआ देखता है। इसी के अनुसार वह अपने मन में समाज के प्रति अपना योगदान निर्धारित कर लेता है। यूनिसेफ की ही रिपोर्ट के अनुसार बच्चों को तीन साल की उम्र से लिंग की समझ आने लगती है, लेकिन जन्म से (भारत में, जन्म से पहले) ही लिंग समाजीकरण का एहसास होना शुरू हो जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत के घरों के वातावरण में लैंगिक असमानता साफ-साफ देखा जा सकता है।
लड़कियों को मां-बाप यही सिखाते आए हैं कि वे पराया धन हैं और उन्हें दूसरे के घर जाकर अपना जीवन बिताना है इसलिए उन्हें सहन और समझौता करने का गुण होना चाहिए। यह हवाला देते हुए लड़कियों को मौलिक अधिकार के बारे में भले न बताया जाए लेकिन इन रूढ़िवादी मौलिक कर्तव्यों के बारे में ज़रूर बताया जाता है।
लैंगिक असमानता सिर्फ उन्हीं घरों में नहीं होती जहां लड़कियों को पढ़ाई से दूर रखा जाता है, जिन्हें रीति- रिवाज़ के नाम पर दकियानूसी सोच के नीचे दबा दिया जाता है। बल्कि उन घरों में भी होती है जहां सवाल सिर्फ एक ग्लास पानी का ही हो। मतलब यह कि यदि कोई बड़ा या घर का सदस्य एक ग्लास पानी मांगे तो वह एक ग्लास पानी देने की उम्मीद घर की लड़कियों से ही की जाती है। यदि किसी भी स्तर पर कोई भी समझौता करना हो तो उस समझौते की उम्मीद लड़कियों से ही की जाती है। जहां पढ़ाया तो जाता है लेकिन पढ़ाई का क्षेत्र बीएड, मेडिकल और सामान्य परीक्षाओं तैयारी तक ही सीमित रहती है। जहां नौकरी करने की अनुमति तो होती है लेकिन टीचिंग और बैंकिंग सेक्टर में ही, ताकि नौकरी करने के साथ-साथ वह घर की जिम्मेदारी भी अच्छी तरीके से निभा सके।
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लड़कियों को मां-बाप यही सिखाते आए हैं कि वे पराया धन हैं और उन्हें दूसरे के घर जाकर अपना जीवन बिताना है इसलिए उन्हें सहन और समझौता करने का गुण होना चाहिए। यह हवाला देते हुए लड़कियों को मौलिक अधिकार के बारे में भले न बताया जाए लेकिन इन रूढ़िवादी मौलिक कर्तव्यों के बारे में ज़रूर बताया जाता है। ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों में माता-पिता अपनी लड़कियों को सपने देखना बाद में और उनकी हद पहले बताते हैं। यूनिसेफ की ही एक और रिपोर्ट के अनुसार लड़कियों और लड़कों के बीच भेदभाव जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, इसका असर न केवल उनके बचपन में दिखता है बल्कि वयस्कता तक आते-आते इसका स्वरूप और व्यापक हो जाता है।
यूनिसेफ का मानना है कि माता-पिता की जिम्मेदारी निभाना दुनिया का सबसे बड़ा काम है। परवरिश का मतलब सिर्फ बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी करना ही नहीं है, बल्कि उनकी बेहतर परवरिश के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना भी जरूरी है। हम अच्छी परवरिश की बात करें तो उसमें पालन-पोषण की सही शैली, बच्चों का स्वभाव, सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंड, अभिभावक के साथ संवाद, मर्यादा की जानकारी, तारीफ करना, अनुशासन की सीमाएं, बच्चों में समानता, बच्चे की जिम्मेदारियां और अधिकार आदि के बारे में बच्चों को समझाना है पर जब तक हम खुद इन चीजों को अपने जीवन में नहीं इस्तेमाल में लाएंगे तब तक बच्चों को पढ़ाने का कोई मोल नहीं होगा।
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तस्वीर : रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए