संस्कृतिमेरी कहानी समाज ने औरतों के लिए जो भूमिकाएं तय की हैं उन्हें तोड़ना होगा

समाज ने औरतों के लिए जो भूमिकाएं तय की हैं उन्हें तोड़ना होगा

समाज ने महिलाओं के लिए जो रूढ़ीवादी भूमिका तय की है उससे मेरा परिवार आज भी पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाया है।

किसी भी व्यक्ति के जीवन में परिवार उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना मिट्टी के घड़े के लिए कुम्हार। जन्म से ही जिस तरह का व्यवहार परिवार एक बच्चे के साथ करता है, उसी आधार पर उसकी मानसिकता गठित होती हैं। भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां महिलाओं के साथ निजी और सार्वजनिक दोनों ही ‘स्पेसेज़’ में हिंसा की गतिविधियां चौंकाने वाली हैं। परिवारों में आज भी अवैध लिंग परीक्षण के ज़रिये लिंग जांच कराई जाती है और जन्म से पहले ही लड़कियों को मार दिया जाता है। यह सब परिवारों की रूढ़िवादी मान्यताओं के हिसाब से होता है जिसके अनुसार घर का ‘वारिस’ एक लड़का ही हो सकता है। आज भी बहुत सारे घरों में लड़कियों के जन्म को एक बोझ की तरह देखा जाता है। असल में, उसके पीछे भी इसी समाज का दोष है। लड़की क्योंकि सामाजिक पटल में लड़के से कमतर मानी जाती है, इसलिए उसकी शादी के लिए मोटा दहेज चुकाना पड़ता है। पुरुष सामाजिक अनुक्रम में ऊंचे दर्जे पर आसीन है।

मैं उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के एक छोटे से गांव से आती हूं। मेरे माता-पिता किसान हैं। अपनी मां से बात करने पर मालूम हुआ कि मेरी मां नहीं चाहती थी कि उनकी बेटी पैदा हो। आज से 20 साल पहले एक लड़की जिसका ग्रेजुएशन भी पूरा न हुआ हो और उसे समाज की गढ़ी हुई परंपराओं में बांध दी जाए। उसे जिम्मेदारियों का बोझ थमा दिया जाए और वह आर्थिक रूप से न स्वतंत्र हो, न ही मानसिक रूप से पूरी तरह परिपक्व वह और क्या ही सोचेगी। मेरे पिता बारहवीं पास हैं। उनकी आगे की पढ़ाई नहीं हो पाई और अभी मैं जिस उम्र में हूं, उससे भी कम उम्र में उनकी शादी कर दी गई। ग्रामीण इलाके में 20-21 साल की उम्र में ऐसा समझा जाता है मानो शादी की उम्र निकल रही हो। इसके नकारात्मक परिणाम भी होते हैं। मेरे माता-पिता ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, खेती करते हैं, लेकिन शायद शुरुआत से ही उन्होंने तय कर रखा था कि अपने साथ हुए सभी भेदभावों में से एक का भी भोगी वे अपने बच्चों को नहीं बनने देंगे। उन्होंने ‘परिवार नियोजन’ किया और सिर्फ दो बच्चे पैदा किए। मेरे भाई और मुझमें कोई भेदभाव नहीं किया गया। उसे अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में दाख़िल कराया गया तो मुझे भी वहीं पढ़ाया गया। दूध पीने से लेकर खेलने तक हर जगह हम दोनों के साथ बराबरी का व्यवहार किया गया।

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बचपन में पड़ोसी ने जब मेरा यौन शोषण करने की कोशिश की तो मैं सीधे अपने माता-पिता के पास गई यानी उन्होंने वह ‘स्पेस’ बनाया था, जहां मैं उनसे सब कुछ कह सकती थी। वे मुझे सुनते थे, मुझे बताया गया था क्या सही है, किस तरह का व्यवहार ग़लत है। अपने गांव से बाहर जाकर शहर में पढ़ने वाली मैं पहली लड़की हूं। हालांकि मेरे गांव में आर्थिक रूप से संपन्न लोगों की बेटियों को यह अवसर नहीं मिलता। महिलाओं की हालत ख़राब है। बारहवीं पास करते ही उनकी शादी कर दी जाती है और फिर कुछ समय बाद उन्हें बच्चे हो जाते हैं। बुनियादी शिक्षा पूरी न होने के कारण वे तमाम ज़रूरी स्वास्थ्य ज़रूरतों को भी पूरी नहीं कर पाती और आर्थिक स्वतंत्रता न होने के कारण उनका परिवार के निर्णय के मसलों में कोई हस्तक्षेप में नहीं होता।

ये सारी परिभाषाएं और अवधारणाएं बदली जानी चाहिए और मेरे जैसी लड़कियां, जो अपने गांवों से निकलकर शहरों में आ रही हैं, अपने जीवन के बारे में सोच रही हैं, अपनी माओं और ‘फोरेमदर्स’ के संघर्ष को देख रही हैं, समाज में व्याप्त भेदभाव को समझ पा रही हैं और अपने रिश्ते चुन रही हैं, वे इन्हें ज़रूर बदलेंगी।

हालांकि बचपन के बाद स्थितियां बदली हैं। ग्रामीण जीवन और उस माहौल का परोक्ष प्रभाव मेरे परिवार पर भी पड़ा है। घर में यह समझा जाता है कि लड़कियां पराया धन हैं और उन्हें दूसरे के घर जाना चाहिए। इसलिए अक़्सर परिवार का यह आग्रह होता है कि पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खाना बनाना भी सीखना चाहिए। समाज ने महिलाओं के लिए जो रूढ़ीवादी भूमिका तय की है उससे मेरा परिवार भी पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाया है। हालांकि इसकी जड़ें गहरी हैं और अभी इसे बदलने में समय लगेगा। अभी भी ज़्यादातर सिर्फ गांवों में नहीं बल्कि शहरों में भी अगर पति-पत्नी दोनों की कामकाजी हैं, तब भी औरत ही काम से आकर खाना पकाती है। कामकाजी होने के बावजूद भी रसोईघर से बाहर स्त्री की छवि स्वीकार नहीं कि जाती है।

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मेरी मां और पापा दोनों खेती का काम करते हैं लेकिन खेतों से घर आने पर मां ही खाना पकाती हैं। भाई मुझे खाना नहीं परोसकर देता, मुझसे यह आग्रह करता है कि मैं परोसकर दूं क्योंकि मैं ‘पराया धन’ हूं और ‘मुझे दूसरे के घर’ जाना है। ये सारी परिभाषाएं और अवधारणाएं बदली जानी चाहिए और मेरे जैसी लड़कियां, जो अपने गांवों से निकलकर शहरों में आ रही हैं, अपने जीवन के बारे में सोच रही हैं, अपनी माओं और ‘फोरेमदर्स’ के संघर्ष को देख रही हैं, समाज में व्याप्त भेदभाव को समझ पा रही हैं और अपने रिश्ते चुन रही हैं, वे इन्हें ज़रूर बदलेंगी।

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तस्वीर साभार : women on wings

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