भारतीय महिला कुश्ती टीम की सबसे चर्चित खिलाड़ी फोगाट बहनों में सबसे बड़ी बहन गीता फोगाट की कुश्ती में वापसी हो गई है। तीन साल तक मातृत्व अवकाश के बाद गीता कुश्ती की नेशनल चैंपियनशिप में हिस्सा लिया और सिल्वर मेडल भी अपने नाम किया। एक सफ़ल खिलाड़ी के साथ-साथ गीता अपने व्यक्तिगत जीवन में भी उन सभी भूमिकाओं का अनुभव कर रही है, जो सामान्य इंसान करते है, जिनमें से एक है मातृत्व का अनुभव। पर अब इसे अपनी समाज की अजीब विडंबना ही कहेंगें जो किसी महिला के मातृत्व अनुभव को ही उसका सब कुछ मान लेता है और उसे ‘सुपर मॉम’ की उपाधि देने लगता है। इसी वैचारिकी के तहत कई मीडिया चैनल व ऑनलाइन पोर्टल ने गीता फोगाट की इस वापसी को ‘सुपर मॉम’ के तमग़े के साथ प्रकाशित किया।
पर अब सवाल ये है कि क्यों हम किसी भी भूमिका को सामान्य रूप से स्वीकार नहीं कर पाते है? क्या हम महिमामंडन के शिकार हो चुके है? ख़ासकर तब जब उस भूमिका का ताल्लुक़ महिलाओं के साथ होता है। इसमें से प्रमुख है – मातृत्व या माँ बनने का अनुभव। अपने भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में मातृत्व को बेहद ज़्यादा महिमामंडित किया गया है, ये महिमामंडन इस कदर है कि महिला ईश्वर के स्वरूप को भी ‘माँ’ की उपमा दी जाती है। ‘माँ’ होने को दुनिया के सबसे सुंदर अनुभव और महिला को पूरा करने के लिए माँ बनना सबसे ज़रूरी बताया जाता है। ठीक दूसरे ही पल जो महिलाएँ इस मातृत्व की बनायी परिभाषा में खरी नहीं उतरती है तो वो अयोग्य मानी जाती है और उनके साथ हिंसा को वैध माना जाता है। उन्हें समाज बुरी करार देता है। जब कोई महिला माँ (बच्चे को अपनी कोख से जन्म नहीं दे पाती है) नहीं बन पाती तो उसे समाज बाँझ या कई बार डायन करार कर उसके साथ हिंसा करता है। वहीं दूसरी तरफ़ जब कोई माँ अपने बच्चों को आज़ादी और समानता का पाठ पढ़ाती है और अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने को प्रोत्साहित करती है तो वो समाज की नज़र में बुरी करार की जाती है। ऐसे में सवाल ये है कि जब हम सुपर मॉम की बात करते है तो इसके मानक क्या होंगें और जो महिलाएँ उन मानकों में खरी नहीं उतरती उनके साथ क्या होगा?
सुपर मॉम या सुपर वीमेन के तमग़े पितृसत्ता के वो टैग है जो समय के साथ इस दमनकारी वैचारिकी के बदले रूप का उदाहरण है। ये टैग किसी भी महिला को सामान्य भूमिकाओं के साथ ज़िंदगी जीने से हमेशा बाधित करते है।
मातृत्व की मानकों की बात करने से पहले हमें ये समझना ज़रूरी है कि ‘मातृत्व’ का मतलब सिर्फ़ अपनी कोख से बच्चे को जन्म देने से नहीं है, जिसका ताल्लुक़ महिला से होता है। बल्कि मातृत्व एक अनुभव-एक विचार है, जो किसी भी इंसान का हो सकता है, फिर वो महिला हो या पुरुष। उसने किसी बच्चे को जन्म दिया हो या नहीं। एक इंसान का किसी जानवर या पेड़-पौधे के साथ भी मातृत्व का रिश्ता हो सकता है। मातृत्व का ये अनुभव-ये वैचारिकी इंसान से संबंधित है, जो बेहद सामान्य है। पर ऐसा नहीं है कि मातृत्व ही किसी इंसान की पूरी ज़िंदगी है।
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पर पितृसत्तात्मक समाज में मातृत्व को ही महिला का पूरक माना जाता है। पितृसत्ता महिला को समाज ख़ासकर वंश को बढ़ाने का सबसे प्रमुख एजेंट मानती है और उसकी सामाजिक व्यवस्था में महिला की जगह माँ बनने (यानी बच्चे को जन्म देने) और उसकी परवरिश में अपना सब कुछ (अपने विचार, अनुभव, सपने, काम और विकास के अवसर) भुला देना ही एक महिला को अच्छी माँ बनाता है।
जैसा की हम जानते है पितृसत्ता समय के साथ अपने रंग को बदलती है। इसी बदले रंग की उपज है – सुपर मॉम का तमग़ा। जी हाँ, जब हम किसी महिला को सुपर मॉम कहते है, जब वो अपने बच्चे के लालन-पालन के साथ अपने लिए जीती है या अपने सपनों को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाती है, ऐसे में सुपर मॉम का ये टैग हमेशा महिला को ये एहसास दिलाता है कि उसका मातृत्व उसकी अन्य भूमिकाओं में से सबसे ज़रूरी है। ये टैग किसी भी महिला को बच्चे को जन्म देने के बाद अपने काम पर वापस लौटने या अपने सपनों को पूरा करने को कभी भी सामान्य नहीं बनने देता है।
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सुपर मॉम या सुपर वीमेन के तमग़े पितृसत्ता के वो टैग है जो समय के साथ इस दमनकारी वैचारिकी के बदले रूप का उदाहरण है। ये टैग किसी भी महिला को सामान्य भूमिकाओं के साथ ज़िंदगी जीने से हमेशा बाधित करते है। किसी महिला का बच्चे पैदा करना या बच्चे न पैदा करना, ये सब उसका अपना व्यक्तिगत निर्णय है, लेकिन जब हम सुपर मॉम की बात करते है तो बिना कहे ये शब्द किसी महिला को सुपर बनने के लिए माँ बनने को ज़रूरी बताता है। इसलिए अगर हम वास्तव में पितृसत्ता को दूर कर समानता को सरोकार से जोड़ना चाहते है तो हमें महिला को और उससे जुड़े अनुभवों-निर्णयों और भूमिकाओं को सामान्य रूप से स्वीकार करना होगा। हमें समझना होगा कि जिस तरह महिला का माँ बनना स्वाभाविक है, इसके बाद अपने काम पर लौटना भी उतना ही स्वाभाविक है। इसमें कोई सुपर वाली नहीं बल्कि स्वाभाविक वाली बात है। क्योंकि मातृत्व का अनुभव इंसान की ज़िंदगी का हिस्सा हो सकता है पर पूरी ज़िंदगी नहीं।
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